सोचिये जब सरकार ही हिंसा का प्रचार करने लगे, लोगों की भड़काने लगे तो उस देश का क्या होगा?
विविधताओं में एकता का संदेश देने वाला देश एक काल्पनिक भारत है, क्योंकि आज के भारत में उसकी भिन्नताओं को लोगों/ राजनेताओं ने हिंसा व सत्ता का साधन बना लिया है। समाज ने कभी जाति बांटी तो कभी धर्म, उसमें वर्ग डाला तो कहीं रंग व नस्ल, किसी को सवर्ण कहा तो किसी को पिछड़ा हुआ।
कौन कितना ताकतवर, किसका कितना आधिपत्य की सामाजिक लड़ाई, राजनैतिक नेताओं के लिए फायदेमंद हो गई। किसे आगे बढ़ाना है, किसे प्रताड़ित करना, देश का स्वरूप कैसा होगा और उसमें किसे और कैसे दिखना चाहिए, यह सब एक राजनैतिक विचारधारा तक आकर सिमट गया।
देश आज़ाद हुआ तो एकजुटता के लिए संविधान व उसमें लोगों के लिए कुछ अधिकार व कर्तव्य चिन्हित किये गए जो समय-समय पर बहुल विचारधाराओं व राजनैतिक खेलों के साथ-साथ बहिष्कृत होते गए, उनका मूल रूप खत्म होता चला गया।
आज के परिपक्ष्य में संविधान का अनुच्छेद 14-18,अनुच्छेद 19-20,अनुच्छेद 23-24 व अनुच्छेद 25-28 से मिलने वाले लोगे के अधिकार सिर्फ संविधान की किताब तक ठहरकर रह गए हैं जिसके लिए बाबा साहेब अंबेडकर के साथ मिलकर कई लोगों ने मेहनत की थी। यह तो सिर्फ कुछ ही मूल अधिकार हैं जिसके बारे में नागरिकों को थोड़ी जानकारी है, वरना इनके साथ कई अधिकार या ये कहें अधिकतर अधिकार ऐसे हैं जो काफी समय से सामाजिक व राजनीतिक परिपक्ष्य की सत्ता में शोषित होते चले आये हैं जिसका सीधे तौर पर असर जनता पर नज़र आता है।
इन शोषित अधिकारों से जुड़े हैं लोग व लोगों से जुड़ी हैं हिंसाएं जो किसी विशेष धर्म, जाति, वर्ग व व्यक्ति से जुड़ी हुई है, जिनका लेखा-जोखा कुछ हद तक आंकड़ों में देखने को मिल जाएगा।
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हाल ही में, हरियाणा के गुरुग्राम में हुई हिंसा को देख लीजिये कि किस तरह से अधिकारों व सुरक्षा का शोषण होता है। गुरुग्राम में 31 जुलाई को हुई सांप्रदायिक हिंसा, मुस्लिमों को टारगेट करते हुए थी जिसमें उनकी दुकाने जलाना, उन्हें उनकी जगह से बहिष्कृत करना शामिल था। अन्य मामले में उत्तराखंड के देवभूमि से मुस्लिमों को ज़बरदस्ती बाहर निकालने के लिए ऐलान करना, उन्हें ‘बाहरी’ कहकर उनके अस्तित्व पर सवाल उठाना, यह सब उनके अधिकारों के हनन के उदाहरण रहें।
देश में हो रही धार्मिक हिंसाएं अब प्रचलन हो गई हैं। जिस तरफ देखो वहां धर्म के नाम पर मान्यता-अमान्यता,विश्वास-दबाव, क्रोध-कट्टरता, ‘मेरा धर्म बड़ा, उसका धर्म छोटा’,वेश-भूषा इत्यादि से जुड़े हुए हिंसक मामले देखने को मिलते रहे हैं। इन्हें इतना साधारण बना दिया गया है कि व्यक्ति धर्म से बढ़कर कुछ सोचता ही नहीं, जो सोचता है वह समाज के अनुसार समाज द्वारा बनाये गए धर्म के नहीं रह सकता। उस पर सामाजिक विचारधारों को अपनाने का दबाव रहता है। अगर नहीं माना तो इन मामलों की तरह बेघर होना पड़ेगा, हिंसा सहनी पड़ेगी, अपना सब कुछ खोना पड़ेगा। यहां तक की इसकी भी कोई गैरंटी नहीं रहेगी कि वह सुरक्षित इस समाज में जी भी पाएंगे या नहीं।
धार्मिक हिंसा के साथ जनजातीय हिंसा भी साथ-साथ चलती है। धर्म और जाति समाज द्वारा एक साथ गढ़े गए हैं।
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पिछले लगभग तीन महीनों से, मणिपुर में कुकी और मैतई समुदाय के बीच जनजातीय हिंसा चल रही है जिसमें महिलाओं को हिंसा का केंद्र बनाते हुए बर्बरता की जा रही है। मैतई समुदाय द्वारा कुकी समुदाय की दो महिलाओं को नग्न करके घुमाया गया। इस दौरान राज्य में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई। सीएम बिरेन सिंह अपना इस्तीफ़ा देने का नाटक करते दिखे। वहीं लगभग 80 दिनों बाद वायरल वीडियो देखने के बाद पीएम मोदी के अंदर का व्यक्ति कचौटा और उन्होंने अपने मुख से सांत्वना के दो शब्द निकाले। हुआ कुछ नहीं, बस राजनैतिक नाटक से जनता का थोड़ा दिल-बहला दिया और फिर परे हट गए।
अक्टूबर 2022 को प्राकशित एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले में 15.3% की बढ़ोतरी हुई है। हिंसा से जुड़े अधिकतर मामलों में जातीय हिंसा हमेशा से रही है जिसकी गवाही सरकारी आंकड़े भी देते हैं।
इतना ही नहीं, हाल ही में सरकार द्वारा एक आंकड़ा ज़ारी किया गया है जिसमें यह बताया गया कि 2019 से 2021 के बीच लगभग 13.13 लाख महिलाएं व लड़कियां गायब हो गई हैं। वहीं , संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले 50 सालों में विश्व की 142.6 मिलियन “लापता महिलाओं” में से 45.8 मिलियन भारत की हैं, जिसमें कहा गया है कि चीन के साथ-साथ भारत में वैश्विक स्तर पर लापता महिलाओं की संख्या सबसे ज़्यादा है।
यह आंकड़े इस तरफ भी इशारा करते हैं कि महिलाओं का किस तरह से ताकत बिटोरने और फिर उन्हें गायब करने में सत्ताधारियों और उनकी योजनाओं का हाथ रहा है जिसका खुलासा अमूमन चुनाव के आस-पास ही देखने को मिलता है।
धर्म के साथ जुड़ी जातीय व महिलाओं के साथ हो रही हिंसाओं में समाज द्वारा पिछड़ा कहे जाने वाले समुदायों के मामले भी जुड़े हुए हैं। हाल ही की ताज़ा घटना ही देख लीजिये।
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4 जुलाई को एमपी के सीधी जिले से सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल होने लगा जिसमें एक व्यक्ति आदिवासी व्यक्ति के चेहरे पर पेशाब कर रहा था। रिपोर्ट्स में सामने आया कि आदिवासी व्यक्ति के चेहरे पर पेशाब करने वाला व्यक्ति प्रवेश शुक्ला कथित तौर पर सवर्ण व भाजपा का कार्यकर्ता है।
इस मामले का सरकार ने यह इन्साफ तय किया कि एमपी के सीएम शिवराज सिंह चौहान उस आदिवासी व्यक्ति के चरण धोने पहुँच गए, आरोपी को गिरफ्तार कर लिया, दो शब्द सांत्वना के बोल दिए और हो गया इंसाफ।
सिटिज़न फॉर जस्टिस एन्ड पीस की 3 जनवरी 2023 की रिपोर्ट ने बताया, एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार, अपराध में 2020 में (50,291 मामले) की तुलना में 2021 में 1.2 प्रतिशत (50,900) की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में बताया गया कि जातीय हिंसा के मामलों में उत्तर प्रदेश का नाम सबसे आगे है जिसके सीएम इस समय योगी आदित्यनाथ है।
कुल जनसंख्या के अनुपात के संदर्भ में, दलित (एससी) आबादी का 16.6 प्रतिशत और आदिवासी/एसटी के 8.6 प्रतिशत होने का अनुमान है।
वैसे तो संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। लेकिन यह जब सब सत्ता के अधीन आते हैं तो सत्ताधारियों द्वारा उनके अनुसार इसे तोड़-मोड़ दिया जाता है या फिर उन्हें दबा दिया जाता है। जैसाकि हमने यहां अधिकतर मामलों में देखा, अगर नज़रिये में थोड़ा बदलाव करेंगे तो ज़रूर देख पाएंगे।
अधिकतर मामलों को गहन तौर पर देखा जाए तो कहीं न कहीं सत्ताधारी व मूलरूप से राजनीतिक पार्टियां ही लोगों की एकजुटता की विचारधारा को तोड़ते हुए नज़र आई हैं।
सोचिये जब सरकार ही हिंसा का प्रचार करने लगे, लोगों की भड़काने लगे तो उस देश का क्या होगा?
इंडियन एक्सप्रेस की 30 मार्च 2023 की प्रकाशित रिपोर्ट की हेडलाइन बताती है, “4 महीने, महाराष्ट्र में 50 रैलियां, एक थीम: ‘लव जिहाद’, ‘लैंड जिहाद’ और आर्थिक बहिष्कार” (4 months, 50 rallies in Maharashtra, one theme: ‘Love jihad’, ‘land jihad’ and economic boycott) – यह हेडलाइन यह बताने के लिए काफी थी कि एक धर्म के प्रति हो रही हिंसाओं के पीछे की वजह व स्त्रोत क्या है।
यह जो आंकड़े सामने नज़र आ रहे हैं, यह अचानक से या किसी एक दशक से हो रही हिंसाओं या अनदेखी के परिणाम नहीं है बल्कि शुरू से चलती आ रही लापरवाही व प्रताड़ना का परिणाम है। सामाजिक रूढ़िवादी विचारधारा, महिलाओं को समाज का केंद्र बना उनके साथ बर्बरता करना, उनका इस्तेमाल करना और उसके साथ चलती आ रही राजनीतिक सत्ता की लालसा की देन है जिसकी नींव पर सरकारें बनती हैं, ताकतवर सत्ताओं का निर्माण होता है और शक्ति का प्रदर्शन होता है।
आज़ाद भारत की कल्पना तो कभी यह थी ही नहीं, न इस विचारधारा के साथ लोगों के हित में संविधान का गठन हुआ था। संविधान, हर एक व्यक्ति की सुरक्षा व समानता की बात करता है, न कि किसी विशेष की। आज का भारत तो वह भारत है ही नहीं। हर वर्ग, हर जाति, सभी लिंग व नस्ल के लोग इत्यादि सभी पीड़ित है। ये कैसी आज़ादी?
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