खबर लहरिया Blog टेसू के फूलों की ‘होली’ | बुंदेलखंड

टेसू के फूलों की ‘होली’ | बुंदेलखंड

होली के 5 दिन पहले से ही हम जंगलों से ढाई किलोमीटर दूर पैदल जाकर टेसू के फूल लाते थे। हम उन फूलों को तोल में तो नहीं तोले थे लेकिन एक टोकन फूल 10 किलो के घड़े में जिसमे पानी होता था डालते थे। उन फूलों को तीन दिनों तक पानी में भीगो के रखते थे। पत्थर के सिलबट्टे से पीसते थे। फिर उसे पानी में घोल बनाकर सूती के कपड़े से बांध कर दूसरे बर्तन में रखकर कपड़े में छानते थे। उन रंगों को कांच की बोतल में भरकर रख लेते थे। होली के दिन वही रंग अपनी भाभियों और सहेलियों के ऊपर डालते थे। ऐसा करते समय हमारे हाथ भी संतरे रंग के हो जाते थे। हमें अपने हाथों को देख बड़ी खुशी होती थी।

'Holi' of Tesu palash flower, bundelkhand

                                                                                      टेसू/पलाश के फूलों की तस्वीर ( फोटो साभार – सोशल मीडिया)

टेसू यानि पलास, टेसू के फूलों के रंगों से क्या आपने कभी होली खेली है? नहीं क्या? टेसू के फूलों से आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में होली का उत्सव मनाया जाता है। प्रकृति के इस रंग में कोई मिलावट नहीं है। जंगलों से फूलों को तोड़ कर सिलबटे पर पीसकर रंग तैयार हो जाता है। इस टेसू के फूलों से न जाने कितनी कहानियां जुड़ी है कुछ के बारे में हम आपको भी बताएंगे।

आधुनिक माने मॉडर्न। अब मॉडर्न जमाना है तो बाजार में अनगिनत केमिकल वाले रंग मिल जाते है। जो हमारे त्वचा को नुकसान पहुंचाते है। अब उस में वो बात कहां? जो प्रकृति से मिले रंगों में होती है। जो हमारी त्वचा को नुकसान नहीं पहुंचाते है। ऐसे तो जैविक रंगों की मांग आज भी है पर इनके दाम भी बहुत है। आपको ऑनलाइन जैविक (नेचुरल/ ऑर्गैनिक) रंग घर बैठे ही मिल सकते हैं पर बहुत महंगे दाम पर। आप चाहें तो ऑनलाइन यूट्यूब से घर बैठे खुद ही रंग बना सकते हैं।

यूपी के बुंदलखंड में एक `मोहारी` नाम का गाँव है। जहां आज भी टेसू के फूलों के रंगों से होली खेली जाती है। खबर लहरिया की रिपोर्टर ने गाँव के लोगों से बात की और इसके बारे में जाना। वैसे तो होली गुलाल से खेली जाती है और आज के समय तो होली में ऐसे पक्के और भद्दे रंग चेहरे पर मल दिए जातें हैं जिससे शरीर की त्वचा पर असर पड़ता है। टेसू के फूलों के रंगों का इतिहास 46 साल पहले का है तभी से टेसू के फूलों से रंग बनते है।

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टेसू के अन्य नाम

टेसू के फूल को पलाश, परसा, ढाक, किशक, सुपका, ब्रह्मवृक्ष और फ्लेम ऑफ फोरेस्ट आदि नामों से भी जानते हैं। जो चित्रकूट, मानिकपुर, बाँदा, महोबा और मध्य प्रदेश से जुड़े बुंदेलखंड में पाया जाता है। ये उत्तर प्रदेश का राजकीय फूल है। जो अपने रंग और औषधीय गुणों की खेती के लिये प्रचलित है। कहा जाता है कि इस फूल में कोई खूशबू नहीं होती लेकिन इसकी गोंद, पत्ता, पुष्प, जड़ समेत पेड़ का हर हिस्सा काफी फायदेमंद होता है।

घने जंगल में टेसू के पेड़ की अलग पहचान

कहीं भी टेसू का पेड़ होगा तो उसके फूलों से पता चला जाता है। इतना विशाल और फूलों से लदे लाल रंग के फूल व्यक्ति की नज़रों से चूक ही नहीं सकते हैं।

टेसू के फूलों से रंग बनाने की प्रक्रिया

बुंदेलखंड के मोहारी गाँव की भवानी बाई जिनकी उम्र 70 साल है कहती हैं कि, “हमें होली आने का इंतजार रहता है कि कब होली आएगी? होली के 5 दिन पहले से ही हम जंगलों से ढाई किलोमीटर दूर पैदल जाकर टेसू के फूल लाते थे। हम उन फूलों को तोल में तो नहीं तोले थे लेकिन एक टोकन फूल 10 किलो के घड़े में जिसमे पानी होता था डालते थे। उन फूलों को तीन दिनों तक पानी में भीगो के रखते थे। पत्थर के सिलबट्टे से पीसते थे। फिर उसे पानी में घोल बनाकर सूती के कपड़े से बांध कर दूसरे बर्तन में रखकर कपड़े में छानते थे। उन रंगों को कांच की बोतल में भरकर रख लेते थे। होली के दिन वही रंग अपनी भाभियों और सहेलियों के ऊपर डालते थे। ऐसा करते समय हमारे हाथ भी संतरे रंग के हो जाते थे। हमें अपने हाथों को देख बड़ी खुशी होती थी।”

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पुराने दिन याद आते हैं

भवानी बाई कहती है, “पुराने दिन याद आते हैं जब सभी टेसू के फूलों से होली मनाते थे। टेसू के फूलों का रंग एक सप्ताह तक चलता था। पहले कोई बुरा नहीं मानता था और वह रंग डालने से माना भी नहीं करते थे। हमें बहुत खुशी होती थी कि `बुरा ना मानो होली है।` यह होली का त्यौहार एक साल में एक बार तो आता है जो रंगों से और गुलाल से खेला जाता है।

टेसू के रंग को पक्का करने की कला

भवानी बाई कहती हैं कि “मैंने अपने अपने हाथों से बनाया हुआ टेसू का रंग अपने देवर के कुर्ते पर डाला तो रंग उतरा नहीं कुरता फट गया पर रंग नहीं मिटा। हमेशा मेरा देवर कहता था की भुज्जी तुमने इस रंग में क्या डाला था? मेरा कुर्ता फटने को जा रहा है पर इसका रंग नहीं हट रहा है। मेरा देवर भी सफेद कुर्ता सूती का पहना हुआ था। मैं कहती हूं मैं अपनी मन की बात आपसे नहीं बताऊंगी, नहीं आप भी इसी तरह का रंग बनाने लगोगे। मेरा देवर कहता था कि नहीं आपको तो बताना ही होगा क्यों नहीं बता रही हो फिर मैंने बताया कि मैं ज्यादा दिन टेसू के फूल को घड़े में डालकर रखा था। जब टेसू के फूल पीस रही थी तो पीसने के समय थोड़ा सा सरसों का तेल भी डाल दिया था इसलिए उसका कलर और पक्का हो गया था। इतना ही नहीं टेसू के रंग को पकाया भी था आग में। ऐसा टेसू का रंग नहीं बनाती तो हर समय मुझे याद कैसे करते हैं।”

टेसू के रंग मनोंरजन का साधन

शोभा रानी बताती है “टेसू के फूल  का रंग बनाने के लिए अपनी-अपनी तरकीब करते थे। वहां पर बाजी भी लगाते थे। किसका अच्छा रंग होगा? जैसे हमारा रंग अच्छा हुआ और दूसरे व्यक्ति का रंग नहीं अच्छा हुआ तो रंग देखकर हमें हंसी आती थी।”

पुराने समय से लेकर आज तक होली खेलने के अंदाज में काफी अंतर आ गया है और खेलने का ढंग भी बदल गया है। अब प्रकृति के रंगों की जगह केमिकल के रंगों ने ले ली है। जो लोग गाँव छोड़ यहां शहर में बस गए हैं और शहर के अंदाज को अपनाने लगे हैं इसलिए इन प्रकृति के रंगों का मोल बहुत बढ़ गया है। ग्रामीण क्षेत्र से निकली ये चीजें अब खोने लगी है। जिन लोगों को आज भी प्रकृति के रंगों से प्रेम हैं और अपने स्वास्थ को लेकर सतर्क हैं, जिनके पास पैसे हैं वो इन रंगों के महंगे दाम देकर भी खरीदते हैं। गाँव के माध्यम से ही हमें ये जानने को मिलता है कि ये सब अभी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है। हमें ऐसी प्रकति के रंगों से जुड़ी चीजों, त्यौहार को जीवित रखना चाहिए। ये सब चीजें ही तो हम में उमंग भरती है हमारे दुःखों से हमें निकलती है।

रिपोर्ट – श्यामकली 

 

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