हिजाब मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने कक्षाओं में हिजाब पहनने की याचिका को खारिज कर दिया है। अब लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख अपनाया है।
“ये महिलाओं की ‘चॉइस’ और ‘अधिकार’ की बात है जो उसने हमेशा से लड़ी है पर ये बात तुम नहीं समझोगे क्यूंकि तुम्हें कभी अपने अधिकारों के लिए लड़ने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी।”
देश में पिछले कई महीनों से हिजाब विवाद को लेकर विरोध-प्रतिरोध देखा जा रहा है। जिसमें कल कर्नाटक हाई कोर्ट ने हिजाब मामले में फैसला सुनाते हुए कक्षाओं में हिजाब पहनकर जाने की याचिकाओं को खारिज़ कर दिया। अब मामले की दुबारा सुनवाई के लिए याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटया है।
यहां बात है कि आखिर जब भी एक महिला के अधिकार और आज़ादी की बात आती है तो उन्हें इसके लिए इतनी बड़ी जंग क्यों लड़नी पड़ती है ? इतिहास के पन्नों को उठाकर भी देख लिया जाए तो यही सामने आएगा कि उन्हें कुछ भी बिना लड़े नहीं मिला।
धर्म में कई बंदिशें हैं, तो कहीं आस्था और विश्वास तो कहीं चॉइस। कोई आस्तिक है तो कोई नास्तिक। किसी को अपने धर्म का रास्ता अपनाते हुए जनेयू और माथे पर तिलक लगाना पसंद है। किसी को पगड़ी, किसी को गले में क्रॉस-साइन का नेकलेस पहनना पंसद है। कोई इन धार्मिक चीज़ों को बेतुका कहता है तो किसी के लिए यह करना उनका खुदा, वाहेगुरु/ भगवान को मानने और उसकी आस्था का प्रमाण होते हैं।
हिन्दू धर्म में महिलाओं द्वारा पर्दा और सर पर चुन्नी रखने का रिवाज़ है। आज इसे कई लोग ख़ुशी से अपनाते हैं तो कई लोगों को पर्दा रखना पसंद नहीं है। यह उनका अधिकार है, यह उनकी चॉइस है। फिर आज जब बात मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के चॉइस की है तो वह अपनी चॉइस हिजाब रखना है या नहीं रखना, ये क्यों नहीं तय कर सकती ?
क्यों देश में महिलाओं द्वारा हिजाब रखने की चॉइस को लेकर इतना बड़ा विवाद बनाया जा रहा है? क्यों उनके चॉइस को माना नहीं जा सकता ? कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुआ हिजाब विवाद आज पूरे देश में संघर्ष और अधिकार की लड़ाई बन चुका है।
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किसी भी धर्म को चुनने का अधिकार देता है संविधान
संविधान का आर्टिकल 25 हर एक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। उनके पास किसी भी धर्म को खुले तौर पर अपनाने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है। संविधान ने तो व्यक्ति को ये हक़ दे दिया लेकिन आज इसी अधिकार, राइट ऑफ़ चॉइस (चुनने की आज़ादी) एक बड़े और विवादित सवाल की तरह सामने आकर खड़ा हो गया है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय कहती है, शैक्षणिक संस्थानों में सब सामान हैं। कपड़ों से समानता, अखंडता बाधित होती है लेकिन यह आज से पहले तो कभी नहीं हुआ? एक हिजाब समानता भंग करता है लेकिन पूजा का माथे पर लगा तिलक, गले में माँ द्वारा पहनाया गया तावीज़, स्कूल में अध्यापिकाओं द्वारा पहनी जाने वाली व नाम की कहीं जाने वाली शादी की निशानियों को पहनना यह सब धर्म को नहीं दर्शाता, क्यों ? यह समानता को नहीं तोड़ता? एक पंजाबी लड़के का पगड़ी पहनना उसके धर्म को नहीं दर्शाता? हिन्दू का जनेयू पहनकर स्कूल में जाकर पढ़ाना, पढ़ना, पंडितों जैसा हेयरस्टाइल रखना उसके धर्म को नहीं दिखाता, क्यों ? पर हिजाब पहनकर कक्षा में बैठना समानता को खंडित करता है? शायद यही अदालत कह रही है ?
एक तरफ संविधान हर व्यक्ति को आज़ादी से चुनने का हक़ देता है वहीं दूसरी तरफ उस अधिकार को अपनाने के बाद उस अधिकार को रखने और मानते रहने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। हर बार यह लड़ाई महिलाओं के हक़ और अधिकार की ही होती है।
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हिजाब विवाद फैसले में नहीं था कोई मुस्लिम प्रतिनिधि
संविधान का अनुच्छेद 26 कहता है कि सभी संप्रदाय धर्म के मामलों में अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं कर सकते हैं। हिजाब मामले में जब कल 15 मार्च को बेंच ने फैसला सुनाया तो उसमें मुस्लिम समुदाय से कोई भी प्रतिनिधि नहीं था। यह मामला धार्मिक था तो फिर क्यों किसी मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि को फैसले और उसके निर्णय में शामिल नहीं किया गया?
कल, 15 मार्च 2022 को कर्नाटक हाईकोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि हिजाब पहनना इस्लाम धर्म में ज़रूरी धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है। इसके बाद अदालत ने कक्षाओं में हिजाब पहनकर जाने की अनुमति की याचिका को खारिज़ कर दिया। मामले के लिए चीफ जस्टिस रितु राज अवस्थी की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच गठित की गयी थी जिसमें जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित और जस्टिस जेएम खाजी शामिल थे।
अदालत कहती है कि शिक्षा ज़रूरी है लेकिन शिक्षा कभी धार्मिक भेदभाव करने को नहीं कहती। वह यह नहीं कहती एक धर्म ऊंच है तो दूसरा उससे छोटा। फिर यहां किस शिक्षा की बात हो रही है? हिजाब ने कब समाज या उसके परिवेश में बाधा पैदा की है?
मुद्दा धार्मिक हो या सामजिक, लड़ाई महिलाओं की ही होती है जहां उन्हें आखिर तक उनके अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता। कानून महिलाओं के अधिकार की बात कहता नहीं थकता। वहीं वह उन्हें अधिकार का इस्तेमाल भी नहीं करने देता। महिलाओं को पता है कि उन्हें क्या चाहिए। अगर उन्हें धार्मिक रिवाज़ नहीं पसंद तो उन्होंने उन रूढ़िवादी विचारधाराओं के लिए भी लड़ाई लड़ी है। अब जब उन्हें अपने धर्म को रखने के लिए लड़ना है तो वह उसे भी लड़ रही हैं। उसे पता है कि उसे किन बंदिशों को तोड़ना है या उसे किन अधिकारों के लिए लड़ना है।
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