खबर लहरिया Blog नग्न्ता लिबास नहीं ओढ़ती और मैं नग्न हूँ

नग्न्ता लिबास नहीं ओढ़ती और मैं नग्न हूँ

सेक्स वर्कर्स दिवस यौनकर्मियों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए मनाया जाता है पर क्या उन्हें आज तक अपना अधिकार मिल पाया है?

वस्त्रों को लिबास कहना और यह कहना कि चोला पहना हुआ व्यक्ति सुशोभित होने की पहचान होता है। मेरे मन में काफ़ी सवाल खड़ा करता है। अगर शरीर पर लिपटा कपड़ा सच में सम्मान और आदर की पहचान होता तो संसार में हर व्यक्ति आज सम्मानित होता। लेकिन ऐसा नहीं है। फिर क्यों उन महिलाओं, उन स्त्रियों पर समाज ऊँगली उठाता है जिसने खुद को कभी लिबास ( कपड़े) में बाँध कर रखा ही नहीं। यूँ तो औरत को हमेशा से ही इस पितृसत्ता समाज ने किसी न किसी जकड़न में बाँध कर रखा है। अब चाहें उसे चार दीवारी में बांधना हो या घूंघट में उसकी पहचान को दबाना।

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महिलाओं को लालसा के नाम पर कामसूत्र से जोड़ा गया है। कामसूत्र को यूँ तो भारतीय इतिहास में सम्मानीय नज़रिये से देखा जाता है क्यूंकि वह धर्म, काम और अर्थ से बंधा हुआ है। लेकिन जब महिलाएं इस नाम से हटकर वैश्यावृति का काम करती हैं तो उन्हें देखने का नज़रिया सम्मानजनक नहीं रहता। वो भी सिर्फ इसलिए क्यूंकि ग्रंथो और किताबों में इसे सजाया नहीं गया है पर हाँ पुरुषों की लालसा को यह बेहद ही बेहतर तौर पर दर्शाता है।

जिन औरतों ने खुद को लिबास से आज़ाद कर दिया। समाज ने उन्हें दरकिनार करके उन्हें वैश्या का नाम दे दिया। वैश्या का सामाजिक अर्थ “देह का व्यापार करने वाली स्त्रियों को दिया गया।” लेकिन व्यापारी का क्या? उसका क्या जो उसके शरीर को खरीद रहा है? उसे समाज ने कोई अर्थ क्यों नहीं दिया?

साभार – गूगल

 

महिलाओं के लिए खुद को किसी भी जकड़न से आज़ाद करना कभी-भी आसान नहीं था। पुरातन काल में भी महिलाओं को चाहें वह राजा-महाराजा हो या अन्य कोई नागरिक। वह उनके लिए किसी मनोरंजन की वस्तु से ज़्यादा कुछ नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपने मनोरंजन की जगह को कोठे का नाम दे दिया। वहीं कोठे में रहने वाली महिलाओं को सिर्फ उपभोग की वस्तुओं की तरह उपयोग किया। समाज में उनके नाम पर छीटें लगाकर खुद के नाम को सजाया।

कोठे को वैश्याओं की जगह कहने वाला ये समाज आखिर कौन होता है? जिसमें रहने वाले खुद भी इन वैश्याओं के कोठों का हिस्सा है।

इन वैश्याओं कहे जानी वाली महिलाओं ने कभी भी अपने तन पर सिमटे लिबास को जकड़न नहीं समझा। उस लिबास को खुद को बाँधने नहीं दिया। शायद, इसी वजह से समाज ने उसे दरकिनार परिभाषित किया। जब ये तन से लिबास हटाती हैं तो वह हर लज्जा से खुद को मुक्त कर देती हैं। उनका मुक्त हो जाना समाज को हज़म कर पाना मुश्किल हो जाता है।

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इस बात को और बेहतर से समझने के लिए मैंने खुद से लिपटे पल्लू को हटाकर उन्हें देखने की कोशिश की। बिल्कुल उनकी ही तरह, जिस तरह से वह हर रोज़ खुद को देखती हैं। “शरीर ने तो सिर्फ चमड़े के ऊपर लबादा पहना हुआ है। इससे ज़्यादा मेरे लिए वस्त्र की और कोई पहचान नहीं है। वस्त्र शरीर पर लिपटे मैल की तरह है। जो हर दिन बदलता है पर कभी आज़ाद नहीं होता। लेकिन इन वैश्या कही जाने वाली महिलाओं ने खुद को इस मैल से आज़ाद कर लिया है।”

मेरे द्वारा लिखी कविता शायद आपके मन में मेरे शब्दों को चित्रित कर पाएं।

साभार – इंडियन एक्सप्रेस

साड़ी का पल्लू

मेरी साड़ी के पल्लू
और मेरी हाथों की हरकतों से
पहचान लेते हो,
उलझने मेरी..
ये हसर सिर्फ इस शरीर
पर पहने लबादे का है,
जिस्म में सिमटी रूह का नहीं
जो बेहया तो है
पर उसकी साड़ी का पल्लू
और उसकी हसरतें
कोई ठीक नहीं करता,
कोई सजाता नहीं है,

और जो चाहती ही नहीं थी
बेहया होना…
उसे हया की तख्तो – ताज़ तले
उसकी हर आबरू को
नग्न किये जा रहे हो
और कहते हो
शरीर पर से
ये सरकता लिबास
तुम्हें आवाज़ देता है
तुम्हें ओढ़ लेने का…

तुम ये क्यों नहीं कहते कि
कि तुमने कभी
लिबास रखा ही नहीं,
तो जानोगे क्या,
कि आबरू क्या होती है?
कि तेरे नग्न बाज़ार में
रूह की नग्नता भी
आमंत्रण होती है ,
जहां शरीर मिटता है
वहां रूहे ,
एक शरीर में और परोसी जाती है
और
लिबास से ढकी निगाहें
नग्न हीन की कहानी
दो खाली पन्नो में
बिना किसी अक्षर और
स्याही के
कुछ इस प्रकार लिख दी जाती है
कि पढ़कर भी लगता है
कि अभी और पढ़ना बाकी है
भूख  वो दलदल है
जिसमें और धंसना बाकी है

और फिर
वो यूँ ही नग्नता की कहानी
लिखता चला जाता है
उन पन्नो में
जो नग्न होने के साथ
बिना शब्दों के बिक
चुके है
जिसकी ज़िल्द
सड़ी मांसपेशियों
की तरह,
इस कदर गल रही है
मानों उसने अपनी जीने की
ख्वाहिशे ही गवां बैठी हो,
और उस परत को छूते हाथ
मानों उसकी नहीं
अपना ही कोई
बिस्तर संवार रहे हो,

जहां नींद का एक चोला भी नग्न है
और रात होती
आंखे भी,
मसला ये नहीं की
हमारी नग्नता कितने ऊपर से है
मसला ये है
कि खोखलापन पहना शरीर
अब आबरू से भी
वस्त्रहीन हो गया है ।
नग्नता की कहानी
का नाम लिए।

कवयित्री – संध्या

( नोट : कविता और पूरे आर्टिकल में नग्नता की परिभाषा अलग-अलग है)

साड़ी का पल्लू कविता से ज़्यादा वास्तविकता है… हर उस महिला की, जो इसमें लिपटी हुई है। साड़ी तन को खुद में कुछ इस हद तक लपेट लेती हैं जैसे रूह को ढकता है शरीर। लेकिन फिर भी निगाहें उन्हें किसी न किसी तरह से देख ही लेती हैं। सिलवटें साड़ी के पल्लू पर हो या फिर जीवन में, कोई उसे ठीक नहीं करता। लेकिन अब ये औरतें इस बात की फ़िक्र नहीं करती की साड़ी तन पर सुंदर लग रही है या नहीं या फिर वो मटमैली हो गयी है।

समाज द्वारा कहा जाने वाला मटमैला शरीर उसका नहीं बल्कि समाज में बैठे हर उस व्यक्ति का है। जिसने उसके शरीर को ओढ़ा है। वह उसको अपना तन ओढ़ाकर उसकी लालसा को सुरक्षित करती है। इसके बदले में वह कुछ चाहती भी नहीं। वह हर प्रकार की नग्नता से मुक्त है। उसे समाज का कोई अर्थ या शब्द नहीं बांधता।

आखिर में सिर्फ यही कि जो व्यक्ति शरीर से बंधा है वह नग्नता की आज़ादी को महसूस नहीं कर सकता। जो महसूस नहीं कर पाते, वह बस साड़ी पर दाग- धब्बे लगाने का काम करते हैं। लेकिन यह भी उसके शरीर को मैला नहीं करते क्यूंकि नग्नता हर चीज़ से आज़ाद है।

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