एक ऐसी ग्रामीण महिला पत्रकार जिसने समाज से लड़कर चुना पत्रकारिता का रास्ता।
उनकी यह बात सुनने में या पढ़ने में कई लोगों को अजीब लगेगी। लेकिन उनके लिए घर की चौखट से बाहर निकल पाना कितना महत्व रखता है। उन्होंने अपनी पत्रकारिता का अर्थ बताते हुए साबित कर दिया। उन्होंने मुझे बताया कि अगर वह पत्रकार नहीं होती तो उनके परिवार वाले उन्हें घर से बाहर भी निकलने नहीं देते। उनसे कहते कि बाहर किसलिए जाना है। घर पर रहकर घर का काम करो। शायद इसलिए उनके लिए बाहर निकलना बहुत बड़ी बात है।
आज से लगभग 13 साल पहले 2011 में शिव देवी के जीवन में उनकी पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ था। जब उनसे पूछा गया कि उनका अब तक सफर कैसा था तो उनका यही जवाब था….. “बहुत मज़ेदार।” शिवदेवी के जीवन में पत्रकारिता तब आई जब वह बीस साल की थी। वह यूपी के जिला बाँदा के तिंदवारी ब्लॉक की रहने वाली हैं। साल 2011 में उन्हें कर्वी के महिला समाख्या के बारे में पता चला। जो आदिवासी और दलित महिलाओं को शिक्षित करने के लिए शुरू किया गया था। उसके ज़रिये उन्होंने महिला शिक्षण केंद्र से छह महीने का कोर्स किया। लेकिन कोर्स करने के पीछे संघर्ष ने उन्हें पहले ही एक पत्रकार बना दिया था। जिसे यह पता था कि उन्हें अपने जीवन में क्या करना है। उन्हें अपने जीवन को क्या दिशा देनी है। कच्ची मिट्टी के घड़े के समान वह खुद को निखारने की लड़ाई में आगे बढ़ निकलीं थीं।
16 साल की उम्र में शिवदेवी की शादी हो गयी थी। भारत में आज भी शादी के बाद महिलाओं को बाहर काम करने नहीं जाने दिया जाता। यहां तो शिवदेवी एक जिले के छोटे से ब्लॉक के छोटे से गांव से थी। ऊपर से दलित और विवाहित। वहीं लोग दलित को नीची जाति मान प्रताड़ित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते थे। फिर सवाल यह है कि आखिर उन्होंने कोर्स करने के लिए क्या-क्या और किस तरह से लड़ाई लड़ी होगी ?
मैंने इस बारे में खुद उनसे ही जाना। बड़े ही प्यार से वह कहती हैं कि जब उन्हें कोर्स के बारे में पता चला तो बस उनके मन में यही ख्याल था कि वह ‘अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हैं।’ बस उनके इस इरादे ने ही उन्हें आगे बढ़ने का जज़्बा दे दिया था। कोर्स करने की बात वह अपने पति और ससुराल वालों के सामने रखती हैं। परिवार कहता है कि “पढ़कर के डीएम बन जाओगी।” देवरानी और जेठानी ताना मारती हैं।
लेकिन यहां उन्होंने किसी के ताने नहीं सुने बल्कि सबको करारा जवाब दिया। उन्होंने अपना घर छोड़ा और अपने लक्ष्य की ओर निकल पड़ीं। उस वक़्त तक उनकी एक महीने की बेटी हो चुकी थी। घर छोड़ते समय उनके वापस लौटने का कोई इरादा नहीं था। वहीं उनके ससुराल वालों और पति द्वारा उनके फैसले के बाद उन्हें पूरी तरह से त्याग दिया गया था। सब कुछ छोड़ते वक़्त समाज द्वारा सौ तरह की बातें बनाई जा रही थी। आज भी हमारा समाज कुछ ऐसा ही है। जब कोई विवाहित महिला अपना ससुराल छोड़ अपने मायके आती है तो समाज महिला पर ऊँगली उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
जब वह ससुराल का दामन छोड़ अपनी नन्ही सी बेटी को लिए अपने घर पहुंची तो उनके माँ-बाप ने तो उन्हें अपनाया। लेकिन भाई-भाभी द्वारा खूब खरी खोटी सुनाई गयी। भाई-भाभी ने कहा कि ‘ज़रूर घर में हिस्सा लेने आई है।’ उन्होंने भी कह दिया कि ‘अगर ऐसा ही कहते रहोगे तो ज़रूर लूंगी।’ वह अपने फैसले को लेकर अडिग थीं। बेटी को अपने माता-पिता के घर छोड़ते समय उन्होंने यह तय कर लिया था कि जो उन्होंने ठाना है। अब तो वह करके ही रहेंगी। फिर क्या था वह पहुँच गयी महिला शिक्षण केंद्र और यहां से उनके जीवन में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी।
शैक्षिणक शिक्षा के तौर पर वह सिर्फ तीसरी तक ही पढ़ी हैं। लेकिन उनके सीखने के आगे के जज़्बे के सामने कक्षाओं का स्तर भी कम पड़ गया। शुरू में उन्होंने चंबल मिडिया द्वारा शुरू किये गए बुंदेली अखबार खबर लहरिया में काम किया। शुरू में उनके लिए खबरों को लाना और लोगों से बात करना टेढ़ी खीर के समान था यानी बेहद मुश्किल। लेकिन यहीं से तो उन्होंने खुद को संवारने का कदम उठाया।
समय बीता और शिवदेवी भी पत्रकार के रूप में और भी ज़्यादा निडर और साहसी हो गयी। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्यूंकि उनके काम में यह नज़र आता है। यह थोड़े बीतें समय की बात है। वह अपनी स्कूटी लिए तिंदवारी ब्लॉक के जौहरपुर गाँव से निकल रही थीं। स्कूटर पर खबर लहरिया रिपोर्टर के नाम का स्टीकर चिपका हुआ था। वह बालू खदान के सामने से निकल रही थीं। उनके साथ अन्य दो लोग भी उसी रास्ते से बाइक से जा रहे थे। वह भी मिडिया से थे। लेकिन वह उन्हें जानती नहीं थी। सामने से एक व्यक्ति अवैध मात्रा में बालू खनन करके लेकर जा रहा था। जिसकी तस्वीर उन दो लोगों ने खींची और गायब हो गए। वह थोड़े आगे बढ़ी तो बालू खदान के चपरासी ने उन्हें रोक लिया और दोनों व्यक्तियों व फोटो के बारे में पूछने लगे।
चपरासी ने कहा कि जो भी उन्होंने वीडियो बनाई है। वह पहले उसे हटाए तभी वह उन्हें जाने देंगे। उन्हें धमकाते हुए चपरासी ने कहा कि “क्या तुम्हें सानू ठाकुर के बारे में पता है?” वह कहतीं, ‘ उन्हें नहीं पता।’ फिर आगे से चपरासी ने कहा कि वह उनका निकलना मुश्किल कर देंगे। यह सुनकर वह डरी नहीं। वह कहतीं, ‘ अभी करो कर दो। देर क्यों लगा रहे हैं। ज़्यादा से ज़्यादा मुझे जान से ही मारोगे?” वह आगे से कहते, ‘तुम जानती हो सानू को ? हम लोग उसी के आदमी है।’
बहुत ही बेफिक्री जवाब देते हुए वह फिर कहती हैं, ‘ तुम गाड़ी रुकवाकर धमकी देते हो। अब तो मैं रोज़ यहीं से निकलूंगी।” उन्होंने आगे कहा, ‘सानू को बुलवा लो, बलबीर, दलजीत, विवेक सबको बुला लो। फिर उनसे मेरे बारे में पूछना। फिर आज के बाद मेरी गाड़ी न रुकवाना।” इतनी बात सुनते ही वह लोग बौखला गए और चुप हो गए कि उन्हें इतना कुछ कैसे पता है। इसके बाद उन लोगो को भी पता चल गया था कि इस महिला को डराया नहीं जा सकता।
इसके आलावा उन्हें एक और रिपोर्टिंग करने के दौरान धमकी मिली थी। जब वह गायों की मौत से जुड़े मामले पर जौहरपुर के पास के गाँव में रिपोर्टिंग कर रही थीं। जब उन्होंने पूरी खबर को अपने फोन में रिकॉर्ड किया तो गाँव के ठाकुर जाति के लोगों द्वारा खबर न चलाने को लेकर उन्हें धमकी दी गयी। वह लोग चार पहिया गाड़ी में अचानक से उनके घर आ धमके। उनसे कहा गया कि जो उन्होंने खबर बनाई है, वह चलनी नहीं चाहिए। उन्होंने उनसे झूठ कह दिया कि उन्होंने सारी फोटो और वीडियो को डिलीट कर दिया है। जिसके बाद बेहद ही समझदारी से उन्होंने इस खबर को किसी और खबर के साथ मिलाकर चला दी। जब खबर चल गयी तो ठाकुरों द्वारा खुद को बचाते हुए कहा गया कि बीमारी की वजह से गायों की मौत हुई है ताकि कोई उन पर किसी भी तरह का सवाल न उठाए।
उनका यह कार्य दिखाता है कि धमकी के बाद भी वह डरी नहीं। बल्कि बेहद ही चतुराई से उन्होंने बात को संभालते हुए एक सच्चे पत्रकार के तौर पर सच को सामने रखने का काम किया।
सिर्फ निडरता के साथ रिपोर्टिंग करने के आलावा उन्होंने अपनी पत्रकारिता से छुआछूत को कम करने का भी काम किया। बाँदा के बड़ोखर ब्लॉक में कुछ समय पहले तक नीची माने जाने वाले जाति के लोगों को एक जगह से पानी नहीं भरने दिया जाता था। उनके लिए अलग स्थान रखा गया था। जहां पर उन्होंने इस मुद्दे को लेकर कई दफ़ा रिपोर्टिंग की। इसका यह परिणाम निकला कि आज इस ब्लॉक के लोग बिना किसी भेदभाव के एक ही कुएं से पानी भरते हैं।
जहां तक मुझे पता है कि पत्रकारिता बदलाव लाती है। एक पत्रकार का भी यही कार्य होता है कि वह अपनी पत्रकारिता से लोगों के जीवन में बदलाव ला सके। उनके जीवन को बेहतर बना सके। जो की एक छोटे से गाँव से निकली दलित महिला पत्रकार ने पूरी तरह से अपने काम के ज़रिये साबित किया है।
अब वह अपनी स्कूटी लिए दूर-दूर के गाँवों में रिपोर्टिंग के लिए निकल पड़ती हैं। खबरों की जानकारी इकठ्ठा करते-करते तो कई बार रात हो जाती थी। लेकिन वह अपनी पूरी खबर करके ही लौटती हैं। चाहें फिर कितना भी समय लग जाए। एक तरफ जहां गाँवों में दिन ढलते ही लड़कियों को दहलीज़ के अंदर बंद कर दिया जाता था। वहां खबरों की तलाश और सच को पाने के सफर में उनके लिए रात किसी दिन के पहर से ज़्यादा कुछ नहीं थी।
जब कभी उन्हें लगता है कि अब वह नहीं कर सकती तो वह कुछ देर तक शांत बैठ जाती। लेकिन वह चीज़ों को छोड़ने के बारे में नहीं सोचतीं। वह यह देखती हैं कि वह अन्य चीज़ों या खबरों को और कितने बेहतर तौर से कर सकती हैं। उनकी यह बात दिखती है कि निराशा ने उन्हें कभी छोड़ना नहीं बल्कि हर बार उठकर खड़ा होना सिखाया है। वह भी पहले से भी बेहतर तरीके से।
आज उनकी पत्रकारिता और मेहनत की वजह से शिवदेवी के पास अपना खुद का मकान है। सबसे पहले उन्होंने साइकिल खरीदी। फिर अपने खुद के पैसों से ज़मीन खरीद उस पर अपना खुद का घर बसाया। कुछ सालों पहले उन्होंने अपने लिए स्कूटी भी खरीदी। वह बहुत ही ख़ुशी से मुझे बताते हुए कहती हैं कि अब बस उनका यही सपना है कि वह खुद के लिए एक चार पहिया गाड़ी खरीदे। लेकिन उनकी बेटी की शादी के बाद। आपको बता दें, उनकी तीन बेटियां है। जिसमें से एक की शादी हो चुकी है। वह अपने माता-पिता और बेटियों के जीवन का जरिया है।
आज वह कहीं भी जाए। एक पत्रकार होने के नाते हर जगह उन्हें सम्मान दिया जाता है। यहां ये कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि उनकी पत्रकारिता ने उन्हें लोगों में सम्मान का दर्ज़ा दिया है।
खुद के पैरों पर खड़े होने के फैसले से लेकर, निडरता की राह तक शिव देवी ने अपनी पत्रकारिता के सफर को जीया है। अपने हौसले से अब वो चाहें सच को सामने लाना हो या फिर लोगों के जीवन में बदलाव लाने का काम हो।
इस ग्रामीण महिला पत्रकार ने समाज और पैतृक रीतियों को तोड़ते हुए, समाज को एक नई दिशा और खुद को अलग पहचान देने का काम किया है। जिसकी जंग आज भी ज़ारी है क्यूंकि पत्रकारिता कभी-भी खत्म न होने वाली लड़ाई है।
( नोट – यह आर्टिकल प्रेस फ्रीडम डे के एक सप्ताह की सीरीज़ का हिस्सा है। जो खबर लहरिया की रिपोर्टर रह चुकीं रिज़वाना तबस्सुम की याद में मनाया जा रहा है। यह 3 मई से 8 मई तक मनाया जाएगा। इस बीच हम आप लोगों के साथ ग्रामीण महिला पत्रकारों की कहानियां शेयर करते रहेंगे।)
इस सीरीज के अन्य भाग नीचे दिए गए लिंक पर देखें:
भाग 1: पत्रकारिता के लिए ली समाज से लड़ाई – ग्रामीण महिला पत्रकार शिवदेवी
भाग 2: एक ऐसी महिला पत्रकार जिसने हमले के बाद भी नहीं छोड़ी पत्रकारिता
भाग 3: समाज की सोच को पीछे छोड़, अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिए लोगों का दिल जीत रहीं रूपा
भाग 4: “खबर बनाना ही नहीं, न्याय दिलाना भी मेरा काम है” – ग्रामीण युवा महिला पत्रकार सीता पाल
भाग 5: आन्दोलन ने दिखाई पत्रकारिता की राह – नवकिरण नट
भाग 6: अखबार बेच कर शुरू किया सफर, आज पत्रकारिता के ज़रिये दे रहीं समाज की सोच को चुनौती