जब हम कहीं जाते हैं उस जगह की एक तस्वीर हमारी आँखों के सामने महीनों तक चलती रहती है और अगर हम उसे फोटो फीचर या लेखन के माध्यम से लोगों के बीचसाझा करें तो कितना अच्छा लगता है, है न? आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से आप सबके बीच ऐसा ही रिपोर्टिंग का अनुभव साझा करेंगे। हमें उम्मीद है यह लेखन आपको भी अपने रिपोर्टिंग के अनुभव की दिनचर्या को तरोताज़ा कर देगा।
मध्य प्रदेश के छतरपुर और पन्ना जिले में हमने हफ्तों वहां के गांव की सैर की। सुबह 6:30 बजे से निकल कर फील्ड जाना और शाम को 8:00 बजे वापस आना यह हमारी कहीं ना कहीं दिनचर्या बन गई थी। 9 दिसंबर को सुबह 6:30 बजे पन्ना होटल से फील्ड के लिए निकले कंचनपुरा कुडन गांव से कुछ ही दूरी में एक ढाबा था जहां पर गाड़ी रुकी और वहां की हमने चाय पी। क्या चाय थी मजा आ गया और सुबह की जो उनकी दिनचर्या की इतना सुबह उनका खाना पक गया था। रोटी बेली रखी हुई थी भट्टी में सेंकी जा रही थी।
ठंड भगाने के लिए चारो तरफ से लोग खड़े हुए थे। गरम-गरम सेंक रहे रोटियों की ऐसी सोंधी खुशबू मिटटी के चूल्हा की याद दिला दी। भूख न लगते हुए भी भट्टी की रोटी खाने का मन कर गया, खा पीकर हम आगे बढ़े। देखते हैं कि जंगल में कितनी सारी नीलगाय दौड़ रही हैं। रफ़्तार इतनी तेज थी की गाड़ी के अन्दर से हम उनकी फोटो नहीं ले पाए। जंगल के रास्ते चलते-चलते गांव पहुंचे जंगल में देखा कितना सुहाना नजारा, पूरा साफ सुथरा बीच का रास्ता सुबह की रोशनी में नहाया बहुत ही सुंदर लग रहा था।
हमने देखा की किस तरह से सुबह उठकर महिलाएं अपना काम करती हैं पुरुष अपना काम करते हैं और बहुत से पुरुष मनोरंजन के तौर पर तास खेलते भी नजर आये। यह खूबसूरत नजारा सुबह के टाइम देखने में बहुत आनंद आता था। यह नजारा हम अपने जिले में रहकर नहीं देख पाते थे। हमें अपने घर के काम कि दिनचर्या देखना, अपने बच्चों को देखना, उनके लिए खाना बनाना इन्हीं सब कामों में दस बज जाता था। उसके बाद फ़ील्ड निकलने पर सुबह के नज़ारे नहीं देखने को मिलते थे क्योंकि 10 बजे के बाद लोग नास्ता पानी के लिए घर को वापसी करते हैं। दोपहर में आराम करने के बाद फिर शाम को खेतों के लिए निकलते थे।
गाँव की तस्वीर तो देखते ही बन रही थी बचपना ऐसी चीजों के बीच बीता है लेकिन आज पता नहीं क्यों यह सब बहुत ही खुबसूरत लग रहा था। खूबसूरती ऐसी दिख रही थी मानों हम पहली बार देख रहे हो। कोई गोबर डाल रहा है,
तो कोई पानी भर रहा है, कोई रस्सी समेट रहा है, कोई दरवाजे पर बैठे मंजन कर रहा है, कोई कोई ठंड के कारण मुंह बांधे खड़ा हुआ है, तो कोई आग ताप रहा है, कोई चारा डाल रहा है और महिलाएं काम के साथ-साथ एक दूसरे से मिल जाती है। खड़े होकर दरबार भी कर रही हैं तो वहीं पुरुष धूप भी ले रहे हैं कोई एक दूसरे से हाथ मिला रहा है तो वहीं पर कोई खेतों में टहल कर अपनी फसलों को निहार रहा है। किसी के बच्चे दरवाजों पर खड़े खेलते नजर आ रहे हैं, कहीं दरवाजे पर भीड़ लगाए खड़े कुछ देख रहे हैं। यह सब देखकर बहुत ही अच्छा लग रहा था।
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एक सवाल भी मन में उमड़ रहा था कि आखिरकार जहां पर शहरों में लोग 9:00 बजे सोकर जागते हैं वहीं ग्रामीण स्तर पर लोग सुबह 4:00 बजे से ही अपने काम की दिनचर्या शुरू कर देते हैं और यह काम उनका रात 10:00 बजे से पहले नहीं खत्म होता।
खासकर महिलाएं जिन को सुबह जग के सारे काम होते हैं। कैसे कर पाते होंगे इतना काम। घर का झाड़ू-पोछा करना पानी भरना जानवरों का चारा सानी गोबर, धोनी फिर खाना बनाना खेतों में जाना तो यह सारी दिनचर्या किस तरह से लोग मेहनत करते हैं। महिलाएं घर का काम निपटा कर रोजगार के लिए आ जाती हैं और सुबह से फल के ठेल सजा रही है बच्चे स्कूल जा रहे है। यह हमने एमपी में फील्ड के दौरान बखूबी देखा।
यह सिर्फ एमपी बस की बात नहीं है दिनचर्या तो हर जगह यही होती है खासकर सुबह की लेकिन मैंने वहां पर एक जो सबसे बड़ी खासियत देखी कि वहां पर ज्यादातर महिला पुरुषों में बराबरी का दर्जा है, काम बराबर कर रहे हैं।
अगर मैं बांदा की बात करूं तो वहां ज्यादातर महिलाएं काम करते हुए ज्यादा दिखती हैं। पुरुष कहीं ताश खेल रहे हैं तो कहीं आराम से बैठकर हुक्का फूंक रहे हैं। खैर मैं ये तुलना नहीं कर रही हूँ वो एक कहावत है न जैसा देश वैसा भेष। पर मुझे वहां के लोगों के बातचीत करने का तजुर्बा और स्वभाव बहुत अच्छा लगा। मैं गाड़ी में बैठे सोच रही हूँ कि लोगों को अपने कल्चर और संस्कृति को जानने समझने के लिए भ्रमण करते रहना चाहिए। मैं जो तस्वीरों में नहीं कैद कर पाई वह हमने अपनी आँखों में कैद कर लिया और मन ही मन मुस्कुरा उठी। यह सोचते हुए कि ऐसा देश है मेरा….
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