दलितों का वोट दलित नेता को ही जाता है और दलित वोटर का झुकाव भी उनके प्रति होता है। ऐसा माना जाता है क्योंकि उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति जग जाहिर है। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया और यह वोट बैंक अब बंट चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से यह तस्वीर कुछ बदली बदली सी लगती है। फिर भी चुनाव आते ही दलित वोट बैंक पर सबकी नजर टिक जाती है और राजनीतिक दलों का ये प्रयाश रहता है कि दलित वोट बैंक उनके खाते में आ जाए। अब फिर से उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव है। बुंदेलखंड के चित्रकूट और बांदा जिलों का पाठा इलाका जहां पर ज्यादातर आदिवासी और दलितों की आबादी बसती है वहां से हमने रिपोर्टिंग की। आइये फिर सुनते हैं कि यहां के लोगों का क्या कहना है।
गांव डोडा माफी निवासी संतोष बताते हैं कि एक समय था जब हमारे लोग बीएसपी सरकार को ही वोट देते थे लेकिन अब लोग अपने अपने आधार से नेता चुनते हैं। वह लोग जंगल वासी हैं उनको सरकारी योजनाओं का बसा कुचा माल बचता है तो वही आता है। गरीबों को जिधर मोड़ दिया है उधर को चले गए मतलब उसी को वोट दिया जाता है। बड़े अमीर लोग पार्टियों के बारे में सोचते हैं।
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सुबला और रजनिया कहती हैं कि मायावती की सरकार बहुत अच्छी थी। महिला ही महिला को उठाती हैं और उठा सकती हैं। वह खुद प्रचार के लिए जाती हैं इस बार भी बसपा की सरकार को वह चाहती हैं कि बन जाएं। वह खुद वोट तो करती हैं और लोगों को करवाती भी हैं। पहले सब कोई बीएसपी पार्टी को ही वोट करता था। अब मन का मौजी है क्योंकि अब लोगों के बीच संगठन नहीं रहा गया।
मुन्ना लाल दिनकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय स्वराज पैंथर कहते हैं कि दलित समाज का वोट बंट चुका है और इस चुनाव में अभी गुप्त है। अन्य समाज का वोट बैंक ओपन है लेकिन दलित वोट अभी चुपचाप है। आगे वह तैयारी कर रहे हैं कि वह अपने समाज को एक विकल्प देंगे। दलित वोट उनके साथ आवें और उनका साथ दे और दलितों के हित का काम करेंगे। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर इतना मजबूत कर दिया जाएगा कि उनको कोई हेय दृष्टि से नहीं देखेगा। इसीलिए यह वोट बैंक बिखरा हुआ है।
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