खबर लहरिया Blog जातीय असमानताएं करती हैं ईंट-भट्ठों में पलायन को मज़बूर 

जातीय असमानताएं करती हैं ईंट-भट्ठों में पलायन को मज़बूर 

ईंट-भट्ठा मज़दूरों की एक बड़ी आबादी, दलित समुदाय से आती है। ऐतिहासिक रूप से वह हमेशा हाशिये पर रहे हैं। वह हमेशा भूमि के स्वामित्व व अधिकारों से वंचित रहे हैं।

uttar pradesh, problems faced by the workers of the brick kilns and their journey

 

“मैं एक ऐसी ज़िंदगी चाहती हूँ जहां मुझे काम के लिए पलायन न करना पड़े”- ममता ने कहा जो बहादुरगढ़ के एक ईंट-भट्ठे में काम करती हैं। उनकी भाभी शोभा भी ऐसा ही महसूस करती हैं। जामनगर की भूमिहीन श्रमिका शोभा, जीवित रहने के लिए, उनके द्वारा ली गई चुनौतियों के बारे में बताती हैं जिसमें ईंट-भट्ठे के अंदर ही बच्चे को जन्म देना शामिल है। मुद्दे की गंभीरता पर ज़ोर देते हुए वह कहती हैं, “मेरा पूरा परिवार भट्ठा की ओर पलायन करता है, मेरे बच्चे भी साथ में पलायन करते है। “

बुंदेलखंड, मध्य भारत में शामिल एक ऐसा ऐतिहासिक क्षेत्र है, जिसके हिस्से दो राज्यों – उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में स्थित हैं। कई सालों से अब यह क्षेत्र गंभीर बेरोज़गारी की वजह से अपने निवासियों, विशेषकर युवाओं का बड़े पैमाने पर प्रवासन देख रहा है। 

डेविड मोसे द्वारा 2018 में की गई रिसर्च जिसका टाइटल है ‘जाति और विकास: भेदभाव और लाभ की संरचना पर समकालीन परिप्रेक्ष्य’ (Caste and development: Contemporary perspectives on a structure of discrimination and advantage), बताता है कि कैसे हाशिये पर रहने वाली जातियों के सदस्यों को अमूमन नौकरियों और अवसरों से किस तरह से बाहर रखा जाता है। इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि हाशिये पर रहने वाले ज़्यादातर जातियों के सदस्य केवल कम वेतन वाली व शारीरिक श्रम वाली नौकरियां ही पा पाते हैं। 

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में प्रकाशित एक लेख, जिसे शमिन्द्रा नाथ रॉय और ईशा कुंदुरी ने लिखा है, जोकि ईंट-भट्ठा श्रमिकों के संदर्भ में भारत में वृत्ताकार प्रवासन की जांच करता है। आर्टिकल से पता चलता है कि 

ईंट-भट्ठों में कुल प्रवासियों में से लगभग आधे (47%) अनुसूचित जाति (एससी) से हैं। आर्टिकल से निकले निष्कर्षों का समर्थन करते हुए, खबर लहरिया की एडिटर-इन-चीफ़ कविता बुन्देलखण्डी कहती हैं, “एक समय था जब पूरी दलित बस्तियाँ गाँवों से खाली हो जाती थीं, क्योंकि वहाँ रहने वाले लोग काम की तलाश ईंट-भट्ठों में पलायन कर जाते थे।”

ये ईंट-भट्ठे सितंबर-अक्टूबर से जलना शुरू हो जाते हैं व मई तक गर्मियों के महीनों में लगातार बिना रुके इनमें काम होता रहता है, बस मानसून के मौसम में काम की ये कड़ी कुछ समय के लिए टूटती है। भट्ठों में पारिवारिक इकाइयों के आधार पर रखे गए मज़दूर जिनमें श्रमिकों सहित बच्चें भी शामिल होते हैं, उन्हें पूर्व (अग्रिम) भुगतान किया जाता है। इसके बाद उन्हें भट्ठे में तब तक काम करना पड़ता है, जब तक उनका क़र्ज़ नहीं उतर जाता। मज़दूर कोशिश करते है कि क़र्ज़ उतारने के साथ-साथ उनके कुछ पैसे भी बच जाये। 

गांवों में आय का कोई और साधन न होने की वजह से वह क़र्ज़ लेने को मज़बूर रहते हैं। एक बार जब भट्ठे को जला दिया जाता है तो मौसम के खत्म होने तक उसे हमेशा ईंधन व ईंटें मिलती रहती हैं। इस गहन श्रम वाली प्रक्रिया में श्रमिकों द्वारा ईंटों को आकार में ढालना, उन्हें भट्ठे तक ले जाना, परत चढ़ाना और भट्ठे में ईंधन डालना शामिल है व यह सब कार्य उन्हें हाथों से ही करना पड़ता है। 

इन ईंटों के उत्पादन के पीछे यह दलित परिवारों से आने वाले मज़दूर शामिल हैं – शोभा, ममता, आरती, अनिल और रामहित। ये उन कहानियों के बारे में बताते हैं जो सामूहिक अनुभव को प्रतिबिंबित करती है: बेहतर सुविधाओं के वादे, टूटे सपने, स्वास्थ्य जोखिम और बढ़ती अनिश्चितता। इनकी कहानियां ईंट-भट्ठा उद्योग की उन कठोर वास्तविकताओं को उजागर करती हैं, जहां मज़दूर अपने बच्चों के साथ मुश्किल परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। वह भी कम वेतन, पानी, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के साथ। 

ये भी पढ़ें – ईंट-भट्ठे में मज़दूरों के साथ हो रहा था शोषण, प्रशासन ने कार्यवाही कर मज़दूरों को पहुंचाया घर

पलायन व बेरोज़गारी 

युवा अनिल जिनकी उम्र सिर्फ 24 वर्ष हैं, उन्होंने अपना लगभग आधा जीवन ईंट-भट्ठों पर काम करते हुए बिताया है। “मैं पढ़ना चाहता था,” अफसोस भरी भावना के साथ कहते हैं, “लेकिन हमारी वित्तीय स्थिति ख़राब थी, मेरे पिता ही कमाने वाले थे इसलिए मैं तीसरी/चौथी कक्षा से आगे नहीं पढ़ सका।”2-बीघा ज़मीन का मालिक होने व खेती के सपने रखने के बावजूद अनिल का जीवन नाटकीय रूप से ईंट-भट्ठों की तरफ मुड़ गया। वह ज़मीन, जिसे उसके परिवार के भरण-पोषण का आधार कहा जा रहा था, वह 12 लोगों के पेटों को नहीं भर सकती थी।  “हमारी ज़मीन का छोटा-सा टुकड़ा कभी भी पर्याप्त नहीं हो सकता। आजीविका के अन्य तरीकों का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।”

ईंट-भट्ठा कोई विकल्प नहीं है; मज़बूरी है। आगे कहते हैं, “जब भट्टियां बंद होती हैं, तो कभी-कभी मैं काम पर जाने के लिए जल्दी उठता हूं, कभी-कभी जब कोई काम नहीं होता तो देर से उठता हूं। भट्ठे पर काम करने के बाद अब मैं आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हूं, लेकिन यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता है।”

“ईंट-भट्ठे पर काम करने के बीच अगर मुझे अपने गांव की याद आती है तो मैं अकेले ही वहां चला जाता हूं। जब मैं अपने गांव वापस जाता हूं, तो खेती जैसे छोटे-मोटे काम करता हूं। मैं उन लोगों को भी जानता हूं जो मेरे साथ उन 10-15 दिन काम करते हैं। जब मैं भट्ठे पर वापस आता हूं, तो बाकी सब कुछ भूल जाता हूं,” धीरे से कहते हुए। 

“मुझे नहीं लगता कि जो हमारी वास्तविकता है उसके अलावा कोई अन्य प्रणाली मुमकिन है। वैकल्पिक वास्तविकता के बारे में सोचने का क्या मतलब है?” वह कहता है।

ये भी पढ़ें – जलवायु की मार से यूपी के ईंट भट्टे प्रभावित – उद्योग को सुधार की ज़रूरत

भूमिहीनता और शिक्षा 

अनिल की कहानी आधुनिक बुंदेलखंड में कृषि से जुड़े सपनों व अस्तित्व की कठिन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच जीवन के संघर्ष के बारे में बताती है। 

यह संघर्ष चौकनपुरवा और बांदा के रामहित के साथ मेल खाता है, जिसमें अगली पीढ़ी की आकांक्षाएं भी शामिल हैं। बेहद ही दृढ़-निश्चय के साथ पिता के रूप में रामहित अपने बेटे के उज्ज्वल भविष्य का सपना देखते हैं और वह यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि उनके बेटे को अच्छी शिक्षा मिले। “मैं उसके साथ इस दर्दनाक चक्रव्यूह को खत्म करना चाहता हूं,” भावुकता के साथ सांझा करते हुए बताया। 

रामहित का बेटा बदौसा के स्वर्गीय कामता प्रसाद शास्त्री कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहा है। खेती के लिए ज़मीन न होने व परिवार के देखबाल की ज़िम्मेदारी होने की वजह से उसे भट्ठे की तरफ रुख करना पड़ा। रामहित जैसे कई माता-पिता की आकांक्षाएं आने वाली पीढ़ी पर टिकी हुई हैं, जो शिक्षा के ज़रिये इस चक्र को तोड़ने की उम्मीद कर रहे हैं। 

लेकिन भूमिहीनता सिर्फ एक आर्थिक समस्या नहीं है; यह जटिल रूप से जाति से भी जुड़ी हुई है। ईंट-भट्ठा मज़दूरों की एक बड़ी आबादी, दलित समुदाय से आती है। ऐतिहासिक रूप से वह हमेशा हाशिये पर रहे हैं। वह हमेशा भूमि के स्वामित्व व अधिकारों से वंचित रहे हैं। रामहित का कहना है कि अगर उनके परिवार के पास अपनी ज़मीन होती तो वह हर साल काम के लिए पलायन करने की स्थिति में नहीं होते। व्यवसाय के नज़रिये से उनका पहला चयन हमेशा कृषि ही रहेगा। “ईंट-भट्ठे में काम करने वाले बहुत से लोग जैसे ही अक्टूबर आता है, काम छोड़ देते हैं। लेकिन व्यक्तिगत रूप से हम जनवरी तक अपने गांवो में रहना पसंद करते हैं क्योंकि अक्टूबर और नवंबर के महीने में हमें खेतों में उगाई गई चावल की फसल काटने का मौका मिलता है।”

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्तमान में ईंट-भट्ठों में कार्य करने वाले 70% प्रवासी श्रमिक पहले कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) रिपोर्ट के 38वें दौर (1983) में बताया गया है कि 77% ग्रामीण परिवार अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में इस निर्भरता में गिरावट देखी गई है। 2018-19 की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ 50% ग्रामीण परिवार ही कृषि पर निर्भर हैं।

रामहित का परिवार अक्सर ‘बटाई’ वाली खेती करता आया है। हालांकि, बटाईदार प्रणाली के अपने कुछ नुकसान भी है। कुछ पिछड़ी जाति से संबंधित किसानों का मानना है कि बटाईदार खेती अक्सर उन्हें सवर्ण जाति के किसानों का (जो ज़मीन के मालिक़ होते है) गुलाम बना देती है। 

रामहित का अनुभव एक व्यापक प्रणाली के दृष्टिकोण को दर्शाता है। सरकार ने, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण कर्मचारी गारंटी अधिनियम रोजगार और सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत, ग्रमीणों को जॉब कार्ड आवंटित किये हैं जिन्होंने स्थानीय ग्राम पंचायत के तहत पंजीकरण किया था। कार्ड से तात्पर्य लोगों को साल में 100 दिन रोजगार उपलब्ध कराने से है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसे लागू करने में सबसे ज़्यादा समस्याएं आ रही हैं। 

“मनरेगा कार्ड 100 दिनों के काम का वादा करता है, लेकिन साल के बाकी दिनों का क्या?” रामहित ज़ोर देते हुए पूछते हैं। ईंट-भट्ठे की मुश्किल प्रकृति होने के बावजूद भी आठ महीने तक का ये पक्का काम उन्हें कहीं न कहीं अस्थिर दुनिया में स्थिरता का एहसास दिलाता है। 

भट्ठे में ज़िन्दगी 

काम शुरू होने से पहले ही श्रमिकों को पानी, बिजली और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं के वादे किये जाते हैं। लेकिन ममता और आरती जैसे कई लोगों के लिए ये वादे अधूरे रह गए हैं। ममता,बहादुरगढ़ के एक ईंट-भट्ठे की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी याद करते हुए बताती हैं, “एक दिन ऐसा था जब हम सभी, हमारे सभी बच्चे और सभी मजदूर ईंट-भट्ठे के अंदर फंस गए थे।” आगे कहा,“हमारी सारी झुग्गियां गिर गईं। कुछ मजदूरों के पैर भी ज़ख्मी हो गए। वह मेरी ज़िंदगी का सबसे कठिन दिन था। ईंट-भट्ठे के मालिक को कोई चिंता नहीं थी। अगर हमने अपनी चिंता व्यक्त करते तो वह हमें बिना वेतन के निकालने की धमकी देता था,” सांझा करते हुए बताया। 

“जब ईंट-भट्ठा मालिक हमें भर्ती करता था, तो वह कहता था कि आपको बिजली, पीने का पानी और उपयोग योग्य शौचालय जैसी सभी प्रकार की सुविधाएं मिलेंगी,” ममता ने कहा। “लेकिन हमें पीने के लिए पानी तक नहीं मिलता। आप आराम से प्यासे रह सकते हैं क्योंकि आपको पानी इतनी आसानी से नहीं मिलेगा। आपके पास पीने या नहाने के पानी तक की पहुंच नहीं होती।”

लगभग सब कुछ ईंट-भट्ठा मालिक और ठेकेदार की बातों पर निर्भर है। अक्सर, इस पेशे का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा वेतन होता है। ममता ने कहा, “हमारी मजदूरी प्रणाली 500 रुपये प्रति दिन थी। अगर मैं बहुत ज़्यादा शिकायत करती हूं, तो मेरे भुगतान में 10-15 दिन की देरी हो जाती है।” भवानीपुर की 30 वर्षीय आरती, ममता के दर्द को समझती हैं। कहती हैं, “कभी-कभी हमें राशन का भोजन मिलता है। लेकिन सरकार की ओर से कोई आधिकारिक जांच नहीं होती है।” वह बुनियादी सुविधाओं में कमी व दूरी, इसके साथ-साथ उचित स्वास्थ्य से जुड़े झूठे वादों पर अफ़सोस जताते हुए, इन बातो को सांझा करती हैं। 

दूसरों से हटकर, अनिल, अलग-अलग भट्ठों में उनके द्वारा किये गए अनुभवों को रेखांकित करते हुए, वादा की गई सुविधाओं के प्राप्त होने के बारे में बताते हैं,“मैं करीब 10 साल से काम कर रहा हूं। मैं राजस्थान, प्रतापगढ़, मिर्ज़ापुर और ऐसे अन्य क्षेत्रों में गया हूँ। मैं ‘पथेड़ा’ के रूप में काम करता हूँ। मैं अपने परिवार के साथ जाता हूँ। हमें पानी, बिजली और शौचालय जैसी सभी प्रकार की सुविधाएं मिलती हैं। अगर हम बीमार हो जाते हैं, तो हम पास के इलाके में डॉक्टरों की तलाश करते हैं। हमारे पास एक राशन कार्ड है, वह हमारे माता-पिता का है”। 

रामहित, जो कई सालों से ईंट-भट्ठों की ओर पलायन कर रहे हैं, वह प्रणाली के इर्द-गिर्द काम करने और अपने अधिकारों के लिए खड़े होने का अपना तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार महिलाओं की सुरक्षा के लिए भट्ठा परिसर के अंदर शौचालय की मांग की थी। “मैंने लोगों को इकट्ठा किया और यह सुनिश्चित किया कि भट्ठा मालिक हमारी बात सुने।”

इन सभी कठिनाइयों के बीच रामहित को भट्ठा क्षेत्र में त्योहारों के दौरान सामुदायिक बंधन से कहीं न कहीं सुकून मिलता है। जब होली या ईद जैसे त्योहारों का समय होता है, तो भट्ठा मालिकों द्वारा मज़दूरों को समय से पहले कुछ पैसे देने का रिवाज़ होता है ताकि वे अन्य जगह व अपरिचित जगह पर भी त्योहारों का आनंद ले पाएं। रामहित को यह अच्छे से याद है कि वह अपने परिवार के साथ कितने मेलों में गए हैं। कहते हैं, “त्योहारों के दौरान, हम मंदिरों में जाते हैं, जिससे सौहार्द की भावना बढ़ती है।” ये प्रथाएं मजदूरों को अपने घरों की तरह ही परिचित और सुरक्षित महसूस कराती हैं।

सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं में बदलाव की ज़रूरत 

हम ममता, रामहित, अनिल, शोभा और आरती जैसे व्यक्तियों का बेहतर तौर पर कैसे समर्थन कर सकते हैं, जिनकी कहानियाँ जाति और श्रम शोषण की जटिलताओं से जुड़ी हुई हैं? आजीविका की तलाश में घर से मीलों दूर पलायन करने वाले इन दलित श्रमिकों की सुरक्षा के लिए ईंट भट्ठा उद्योग में क्या नियम स्थापित किए जा सकते हैं? और जब वे परिचित क्षेत्रों से दूर हों तो ऐसी क्या चीज़ें की जा सकती हैं जिससे उन्हें अपनेपन का एहसास हो? 

खबर लहरिया की गीता देवी उन कारणों  को उजागर करती हैं जो कई लोगों को ईंट-भट्ठों की तरफ धकेलने का काम करते हैं। चीज़ों को ध्यानपूर्वक समझने के बाद वह कहती हैं, ”बुंदेलखंड में सीमित विकल्प हैं।” आगे कहा, “दलित समुदायों के लिए, भूमिहीनता सिर्फ आर्थिक स्थिति के बारे में नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक जाति असमानताओं की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार, कृषि, सामाजिक-आर्थिक और जलवायु संबंधी बाधाओं के साथ सिर्फ एक भ्रम वाला सपना बनकर रह जाती है।”

गीता का गहन चिंतन इस जटिल मुद्दे की परतों को खोलता है। वह पूछती हैं, “पिछले कुछ दशकों में ईंट-भट्ठों की ओर पलायन में बढ़ोतरी देखी गई है, जिसमें ज़्यादातर पिछड़ी जातियों से हैं। दलितों के साथ-साथ, रोजगार के अवसरों में कमी की वजह से ओबीसी समुदायों के कई लोगों को भी भट्ठों की ओर पलायन करते हुए देखेंगे।” 

वह कहती हैं, “ईंट-भट्ठे, अपनी चुनौतियों के बावजूद भी कम से कम लंबी अवधि के रोज़गार का वादा करते हैं। हालांकि, यह अधिकारों, सम्मान और अक्सर अवैतनिक मजदूरी की कीमत पर आता है।” अपने नज़रिये से, वह न सिर्फ आलोचना करती है, बल्कि जाति को सबसे आगे रखते हुए इन सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की जल्द से जल्द दोबारा जांच की मांग करती हैं। 

अनिल, रामहित, ममता, शोभा, आरती और गीता की कहानियों के ज़रिये से ही बुन्देलखण्ड की कथा आकार लेती है। जैसे-जैसे कृषि जीविका के लिए कम अपनाने वाला स्रोत बनती जा रही है, और कारख़ानो की अनुपस्थिति अभी भी एक मुद्दा  हैं, वहां ईंट-भट्ठेअनिवार्य व ऐसे विकल्प के रूप में सामने आ रहे हैं जिसके अलावा लोग और कुछ चयनित नहीं कर सकतें।  कृषि प्रधान क्षेत्र से ईंट-भट्ठों पर निर्भर अर्थव्यवस्था में यह परिवर्तन क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है।

 

यह कहानी बुनियाद के अंतर्गत आने वाली मीडिया शृंखला का हिस्सा है, जहाँ हम उत्तर प्रदेश के ईंट-भट्ठा उद्योग में, न्यायोचित बदलाव से जुड़े सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सम्बंधित कहानियों को लेकर आएंगे।

बुनियाद अभियान का केन्द्रीय विषय भारत के सबसे प्राचीनतम उद्योग “ईंट भट्ठा उद्योग” में नवीनतम, स्वच्छ एवं पर्यावरण अनुकूल तकनीकी को प्रोत्साहित करना है। साथ ही इस उद्योग में परस्पर रूप से सम्मिलित सभी मानव संसाधनों का न्यायपूर्ण कल्याण सुनिश्चित करना है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य ईंट भट्ठा मालिकों, मजदूरों, संगठनों, तकनीकी विशेषज्ञों एवं सरकार के नीति निर्माताओं के साथ मिल कर उद्योग के लिए ऐसी स्वच्छ तकनीक की तलाश करना है, जो पर्यावरण प्रदूषण को कम कर सके और उद्योग से जुड़े सभी लोगों और समुदायों को लाभ दे सके। इस अभियान में क्लाइमेट एजेंडा, 100% उत्तर प्रदेश नेटवर्क और चम्बल मीडिया जुड़े हैं।

लेखिकाहमीदा सैयदट्रांसलेशनसंध्या 

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke