बाँदा जिले के महिला चिकित्सालय में रेडियोलॉजिस्ट न होने की वजह से महिआएं समय से अल्ट्रासाउंड नहीं करवा पा रही हैं।
बाँदा जिले की आबादी लगभग 20 लाख की है। इतनी बड़ी आबादी में सिर्फ तीन सरकारी अस्पतालों में ही अल्ट्रासाउंड की मशीनें हैं। पुरुष अस्पताल और महिला चिकित्सालय में अल्ट्रासाउंड की मशीनें तो हैं पर इन अस्पतालों में रेडियोलॉजिस्ट नहीं है। यही कारण है कि महिलाओं को अल्ट्रासाउंड के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है।
महोबा जिले के रेडियोलॉजिस्ट को पुरुष अस्पताल से जोड़ा गया है। वह सप्ताह में तीन दिन आकर मरीजों का अल्ट्रासाउंड करते हैं। यहीं महिला अस्पताल के मरीजों का भी अल्ट्रासाउंड किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि अस्पताल में बहुत ज़्यादा भीड़ हो जाती है और मरीज़ों का नंबर तीन-चार दिन के बाद ही आ पाता है।
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रेडियोलॉजिस्ट कौन होता है?
आसान भाषा में रेडियोलॉजिस्ट डॉक्टर के बारे में समझा जाए तो यह वह व्यक्ति होता है जो आंतरिक बीमारियों को पहचानते हुए विभिन्न प्रकार की जांचों के माध्यम से किसी भी रोग की सार्थकता को साबित करता हैं। एक रेडियोलॉजिस्ट एक्सरे, सीटी स्कैन, एमआरआई, अल्ट्रासाउंड जैसी जाँचों को पूरा करता है।
रेडियोलॉजिस्ट (Radiologist) के ज़रिये से शरीर के आंतरिक भागों में छुपे हुए रोगों को पहचाना जाता है जिसके माध्यम से लोगों की जान भी बचाई जा सकती है।
अल्ट्रासाउंड कक्ष में लगा रहता है ताला
खबर लहरिया को नरैनी ब्लॉक के सढ़ा गांव में रहने वाले कैलाश ने बताया कि मेडिकल कॉलेज में भी अल्ट्रासाउंड कक्ष है, लेकिन उसमें हमेशा ताला लटकता रहता है। कहने को बांदा एक बहुत बड़ा जिला है जहां कई सीएचसी व पीएचसी केंद्र है। इसके अलावा महिला व पुरुष अस्पताल भी है। इसके साथ ही बेहतर इलाज के लिए जिले में मेडिकल कॉलेज भी बनवाया गया। लोगों को लगा कि अब शायद उन्हें इलाज की बेहतर सुविधाएं मिलेंगी। उन्हें शहरों की तरफ नहीं जाना पड़ेगा। उन्हें अब और भटकना नहीं पड़ेगा लेकिन सब कुछ उलटा ही हुआ। मरीज़ों को मेडिकल कॉलेज बनने के बावजूद अल्ट्रासाउंड के लिए यहां-वहां दौड़ना पड़ रहा है।
पनगरा गाँव के शिव कुमार अपनी पत्नी सुनीता को लेकर जो सात महीने से पेट से हैं, अपनी पत्नी का अल्ट्रासाउंड कराने के लिए मेडिकल कॉलेज पहुंचे पर कमरे में ताला लगा हुआ था। वहीं जब कभी अल्ट्रासाउंड का कमरा खुलता है तभी 20 से 25 मरीज़ हो जाते हैं। डॉक्टरों द्वारा ओपीडी के मरीज़ों को बाहर ही अल्ट्रासाउंड बाहर कराने की सलाह दी जाती है।
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एक ही अस्पताल में होता है पुरुष व महिलाओं का अल्ट्रासाउंड
मिली जानकारी के अनुसार, मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. मुकेश कुमार यादव ने बताया कि उन्होंने शासन से रेडियोलॉजिस्ट की तैनाती की मांग की है। पुरुष अस्पताल में भी तीन दिन अल्ट्रासाउंड की सुविधा है।
आगे बताया कि पैथोलॉजी विभाग के बगल में छोटे से कमरे में अल्ट्रासाउंड मशीन लगी हुई है। लंबे समय से कोई रेडियोलॉजिस्ट नहीं है। अस्थायी व्यवस्था के लिए महोबा के जिला अस्पताल में तैनात डॉ. सुरेश को सप्ताह में तीन दिन के लिए बुलाया जाता है।
वह सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को यहां आकर अल्ट्रासाउंड करते हैं। महिला अस्पताल के मरीजों का भी अल्ट्रासाउंड यहीं होता है। दोनों अस्पतालों के मरीजों के अल्ट्रासाउंड के लिए भीड़ लग जाती है। सुबह 10 बजे के बाद पर्चा लगाने वाले अधिकतर मरीजों को लौटना पड़ता है। यहां एक दिन में तकरीबन 120-130 मरीजों का अल्ट्रासाउंड हो पाता है, जबकि अल्ट्रासाउंड कराने वालों की संख्या लगभग 300 के पार होती है।
स्थायी रेडियोलोजिस्ट न होने से है समस्या
महिला जिला अस्पताल की अधीक्षक डॉ. सुनीता सिंह ने बताया कि रेडियोलॉजिस्ट न होने से गर्भवतियों का अल्ट्रासाउंड पुरुष अस्पताल में सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को होता है। निदेशालय को पत्र भेजकर खाली पदों पर नियुक्ति के लिए मांग की गयी है। जो मरीज़ इन तीन दिनों के आलावा अन्य दिन आते हैं उन्हें बाहर से ही अल्ट्रासाउंड करवाना पड़ता है। अस्पताल में मशीन तो है लेकिन रेडियोलोजिस्ट की नियुक्ति न होने की वजह से ज़्यादा दिक्कतें हैं।
ज़्यादातर मरीज़ यह सोचकर सरकारी अस्पताल में अल्ट्रासाउंड के लिए आते हैं कि कम पैसों में काम हो जाएगा। वरना बाहर तो प्राइवेट अस्पताल में अल्ट्रासाउंड के लिए 700 रूपये तक लग जाते हैं। जब सरकारी अस्पताल में जाकर भी उनका अल्ट्रासाउंड नहीं हो पाता और पैसों की कमी की वजह से वह प्राइवेट अस्पताल भी नहीं जा पाते तो घर लौटने के सिवा उनके पास और कुछ नहीं रह जाता। यह चीज़ उनके स्वास्थ्य पर असर तो डालती ही है इसके साथ ही गरीबी भी उनके हाथ बांध देती है।
ऐसे में स्वास्थ्य विभाग की तरफ से डॉक्टर के पदों को खाली रखना और उसे जल्दी न भरना, मरीज़ों के लिए सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है।
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इस खबर की रिपोर्टिंग गीता देवी द्वारा की गयी है।
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