खबर लहरिया Blog बाबरी मस्जिद विध्वंश : पत्रकारों पर हुई हिंसा, मिटाया गया सबूत, जानें पत्रकारों का अनुभव

बाबरी मस्जिद विध्वंश : पत्रकारों पर हुई हिंसा, मिटाया गया सबूत, जानें पत्रकारों का अनुभव

बाबरी मस्जिद विध्वंश की रिपोर्टिंग के दौरान कई पत्रकारों पर हमले किये गए। उनके कैमरों को तोड़ दिया गया। उन्हें कमरे में बंद कर दिया गया।

                                                     साभार – गूगल

6 दिसंबर 1992, बाबरी मस्जिद विध्वंश जिसे आज 29 साल बीत चुके हैं। इतने साल गुज़र जाने के बाद भी धार्मिक हिंसा के तौर पर ही इस दिन को याद किया जाता है। हालाँकि कोर्ट ने इस मामले में किसी भी तरह की धार्मिक हिंसा होने की बात को साफ़ तौर पर खारिज़ किया। इस दिन, इस घटना को अदालत व इससे जुड़े लोगों ने कई तरह से देखा और समझा। इन सबके साथ यहां सबसे बड़ी भूमिका मिडिया कर्मचारियों की भी रही। अयोध्या में हुए इस विध्वंश का गवाह कई पत्रकार रहें जिन्होंने ज़मीन पर रहकर इस घटना को करीब से देखा। घटना की रिपोर्टिंग की, उसे अपने फ़ोन और कैमरों में कैद किया ताकि ये सब इतिहास में हुए इस घटना की आगे भी जवाबदेही दे सकें।

जहां इतना विध्वंश हो रहा हो, वहां पत्रकारों ने किस तरह से रिपोर्टिंग की होगी? उन्हें किस तरह की प्रताड़नाओं को सहना पड़ा होगा? उनका संघर्ष और उनकी मानसिक स्थिति कैसी रही होगी? कुछ गिने-चुने लोग ही होंगे जिनके मन में ये सवाल उठे होंगे। आज हम कुछ ऐसे ही मिडिया कर्मियों के बारे में बताने जा रहें हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंश के दौरान रिपोर्टिंग की।

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एक मुस्लिम महिला पत्रकार होना और रिपोर्टिंग का अनुभव-

साजेदा मोमिन – जब बाबरी मस्जिद में विध्वंस हुआ था, इस समय मोमिन यूपी में स्थित द टेलीग्राफ ( लखनऊ) में संवादाता थीं। न्यूज़ लौंडरी की 4 जनवरी 2019 की रिपोर्ट में मोमिन ने कहा, ” अगर में 1992 में वापिस जाती हूँ तो अयोध्या में जो माहौल था, वह बहुत ही भयावह था…. संघ परिवार के कार्यकर्ता जो वहां मस्जिद को ध्वस्त करने के लिए थे, हम सभी पत्रकारों को इकठ्ठा किया और हमें विवादित स्थल से दूर ले गए। हमें एक मंदिर की छत पर ले जाया गया जो बाबरी मस्जिद के बगल में था। अगर आप इसे पत्रकारिता की दृष्टि से देखना चाहें तो हमारे पास सब देखने का शानदार स्थान था – हमने विध्वंश होते हुए देखा।”

मोमिन याद करते हुए कहती हैं – अपनी मुस्लिन होने की पहचान और रक्षा के लिए मोमिन ने खुद को सुजाता मेनोन की तरह संदर्भित किया। वह कहती हैं,” उस दिन अयोध्या में शायद मैं अकेली मुस्लिम महिला पत्रकार थी… कारसेवकों से मेरी पहचान छुपाने के लिए मेरे दोस्त मुझे गैर-मुस्लिम नाम से बुलाते। उन्होंने यह महसूस किया कि अन्य लोगों की तुलना में वह ज़्यादा असुरक्षित थीं।” रिपोर्ट में लिखा गया, पत्रकारों पर कारसेवकों द्वारा हमलों के बावजूद भी उन्हें अपनी बिरादरी का संरक्षण प्राप्त था।

“6 दिसंबर को, मेरे फोटोग्राफर, आलोक मित्रा सहित टीवी क्रू, कैमरामैन और फोटोग्राफरों पर हमला किया गया था। उनका कैमरा रील छीन लिया गया, उन पर हमला किया गया और उन्हें चोट लगी थी। उसका हार और बटुआ चोरी कर लिया गया: इस तरह के छोटे-मोटे अपराध भी हुए थे।”

उन्होंने आगे कहा, बाबरी मस्जिद विध्वंश की रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल था। वह कुछ भी रिकॉर्ड न कर पाएं इसलिए पत्रकारों से उनका कैमरा छीन लिया गया। पेन निकालकर नोट्स तक बनाने की इज़ाज़त नहीं थी। वह कुछ भी रिकॉर्ड करने नहीं देना चाहते थे। यहां तक की उनके बैगों की भी तलाशी ली गयी। बहुत से पत्रकार निष्पक्ष थे। उन्होंने किसी का पक्ष नहीं लिया। उन्होंने जो देखा उसे रिपोर्ट किया। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि सच लिखते वक़्त अगर उन पर हमला हो जाए।

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सबूत न हो इसलिए नहीं लेने दी गयी फोटो – पत्रकार

लेखक और स्वतंत्र पत्रकार अनिल यादव ने कहा, ”मीडिया ने पूरी तरह से प्रोफेशनल तरीके से काम किया इसलिए 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में मौजूद पत्रकारों पर RSS के लोगों ने बड़ी योजना और क्रूरता से हमला किया। RSS को डर था कि मस्जिद को गिराने में शामिल उसके स्वयंसेवकों और नेताओं को मीडिया द्वारा लिए गए फोटो और अन्य सबूतों के ज़रिये से दोषी ठहराया जा सकता है।” वहीं कई हिंदी चैनल ऐसे भी थे जिसने सब को तोड़-मोड़ कर दिखाया। वह दिखाया जो हुआ ही नहीं था।

बीजेपी ने बनाया बड़ा मुद्दा – पत्रकार

वर्ल्ड एशिया पैसिफिक की 8 नवंबर 2019 की रिपोर्ट के अनुसार…… बीबीसी के पूर्व प्रोड्यूसर क़ुर्बान अली ने 6 दिसंबर 1992 को हुई घटना को इतिहास के पन्नों में सबसे बड़े मोड़ की तरह बताया। अली कहते हैं, हर जगह ये अफवाह फैलाई जा रही थी कि मस्जिद को बस थोड़ा बहुत नुकसान हुआ। हज़ारो कार्यकर्ता विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी के कहने पर मंदिर में इकठ्ठा हो गए थे। इस दौरान बीजेपी के नेता एल.के आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी भी मौजूद थे जिन्होंने बाद में केंद्रीय मंत्रियों का पद ले लिया।

11:30 बजे से कारसेवकों ने मस्जिद को तोड़ना शुरू कर दिया। भीड़ पत्रकारों को मार रही थी, उनके कैमरों और टेप रेकॉर्डरों को तोड़ा जा रहा था। सेंट्रल फोर्स को अयोध्या में घुसने की इज़ाज़त नहीं थी। वह उनके साथ थे। अयोध्या तक पहुचंने के लिए उन्होंने दूसरा रास्ता लिया। कुछ लोगों ने उन्हें और उनके साथी मार्क टुल्ली को पकड़ लिया। उन्हें धमकाया गया और कमरे में बंद कर दिया। उन्हें मार दिया गया होता लेकिन किसी ने सुझाव दिया कि मस्जिद के ध्वस्त होने के बाद देखा जाएगा कि उनके साथ क्या किया जाता है। इसके बाद उन्हें सीनियर नेता के पास लेकर जाया गया जहां से उन्हें छोड़ दिया गया। वह किसी तरह से फैज़ाबाद पहुंचे जो अयोध्या से सिर्फ 10 किलोमीटर की दूरी पर है पर उस दिन यह रास्ता उनके लिए मीलों दूर लग रहा था।

एक सीनियर पत्रकार, जिसने राम मंदिर आंदोलन को कवर किया था… कहते हैं, यह कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं था। उन्होंने कहा, ‘भाजपा ने 1989 में इसे राजनीतिक आंदोलन और चुनावी मुद्दा बनाया। इससे पहले यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं था।’

पत्रकारों द्वारा दिए गए सबूतों को अदालत ने ठुकराया

कई पत्रकार जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंश को रिकॉर्ड किया, उसके वीडियोज़ और फोटोज को अदालत में सबूत के तौर पर दिए। अदालत ने कहा, विश्व हिंदु संगठन की रिकॉर्डिंग को संपादित किया गया है।

अदालत ने आगे कहा कि इनमें से किसी भी वीडियो कैसेट और फुटेज को सील नहीं किया गया था और न ही उन्हें यह निर्धारित करने के लिए फोरेंसिक प्रयोगशालाओं में भेजा गया था कि उनके साथ छेड़छाड़ की गई है या नहीं।

सीबीआई ने अक्टूबर 1990 से मई 1993 तक प्रेस कांफ्रेंस, जनसभा आदि के दौरान अखबारों की खबरों पर भरोसा कर आरोपियों द्वारा दिए गए बयानों के जरिए साजिश को साबित करने की भी कोशिश की थी। न्यायाधीश यादव ने कहा, ये समाचार पत्र रिपोर्ट “सुने सबूत” की श्रेणी में आते हैं और अन्य मजबूत सबूतों के समर्थन के बाद ही उन पर भरोसा किया जा सकता है। अगर ऐसा है तो बनाये गयी वीडियोज़ की फॉरेंसिक जांच क्यों नहीं की गयी? क्या अदालत अपने इस बयान से यह कहना चाह रही है कि मिडिया के रिपोर्ट्स पर भरोसा नहीं किया जा सकता? जबकि सत्यापता साबित करने के लिए किसी भी तरह की जाँच तक नहीं की गयी थी।

बहुत ढूंढने के बाद भी मुझे कहीं भी उन पत्रकारों के बारे में पता नहीं चला जिन्हें रिपोर्टिंग के दौरान मार दिया गया। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्यूंकि अभी तक हमने जिन भी पत्रकारों के बारे में आपको बताया, हर किसी पर हिंसा की गयी थी, उन्हें मारा गया था। इतने बड़े विवाद में राजनीतिक पार्टियां भी खुद को मिडिया की नज़रों से बचा रही थी। किसी रिपोर्ट में, बयान में इन पत्रकारों का ज़िक्र तक नहीं हुआ जिन्होंने दस्तावेज़ों और सच इकठ्ठा करने के लिए अपने जान की भी परवाह नहीं की। कई सालों बाद कुछ मिडिया संस्थानों ने उन पत्रकारों के अनुभव की कहानी छापी जिसे सच और इतिहास के तौर पर दर्ज़ तक नहीं किया जिन्होंने इतिहास को दर्ज़ करने का काम किया।

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