चित्रकूट: सिर चढ़कर बड़बोली धर्मनगरी में बंधुवा मजदूरी का दंश कायम है। जो एक पीढ़ी से अगली पीढ़ियों तक एलआईसी के नारे “जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद” भी ट्रांसफर होती रहती है। ऐसे ही एक अनुसूचित जाति के परिवार से रिपोर्टिंग के दौरान मुलाकात हुई जो करीब तीस सालों से बंधुवा मज़दूरी से उबर नहीं पा रहा है और अब बच्चे भी इसी के शिकार हो गए। आइए सुनिए उनकी कहानी।
कुछ लोग कह सकते हैं कि ऐसे बहुत लोग हैं जो बंधुवा मजदूर हैं। हां आपकी बातों से मैं सहमत हूं बहुत लोग होंगे जो अक्सर आपके आसपास, पड़ोस, रिश्तेदार बंधुवा मजदूरी करते हैं। इसको चाहे आप मजबूरी कहें या पैसे की जरूरत के साथ रोजगार के अवसर की कमी। आप पूछने के पूरे हकदार हैं कि मैंने फिर उनके बारे में रिपोर्टिंग करना जरूरी क्यों समझा। क्योंकि उस परिवार की कहानी ने मुझे रिपोर्टिंग करने के लिए मजबूर कर दिया।
बंधुवा मजदूर की आपबीती
कर्वी ब्लाक का एक गांव निवासी पचपन वर्षीय मजदूर नाम और पता छुपाने की शर्त पर बताया कि वह पत्नी के मायके में रहता है। आज से लगभग पैंतीस साल पहले वह यहां रहने लगा। पत्नी की गंभीर बीमारी से हमेशा तबियत खराब रहती थी। दो बेटियों और तीन बेटों का पालन पोषण की जिम्मेदारी खुद उसके सिर पर आ गई। गांव में कोई रोजगार नहीं था और परदेश भी कैसे जाए बच्चों की देखभाल कौन करता। उसने प्रधान से मदद मांगी, प्रधान समाज में उच्च मानी जानी वाली जाति से था और वर्तमान में भी है। अब क्या था प्रधान को एक और बंधुवा मजदूर मिल रहा था। मानो सोने में सुहागा मिल गया हो। वह मजदूर घर से लेकर खेत और पशुओं को चारा भूसा गोबर सब करने लगा। जब मजदूर पैसा मांगता तो थोड़ा बहुत देकर टाल देता। मजदूर को भी पैसे की जरूरत थी। सोचता चलो इतना ही सही। कभी तो हिसाब होगा ही।
मजबूरी और सीधेपन का फायदा उठाया
बच्चे बड़े हो रहे थे। वह भी हाथ बंटाने लगे तब भी उतना पैसा ही न मिलता कि परिवार का पालन और पत्नी का इलाज़ हो सके। पैसे और फिर इलाज के अभाव में पत्नी की मौत हो गई। वह प्रधान के यहां मुर्गियों की भी देखरेख करने लगा जो कि पशुपालन के तहत पल रही थीं। साथ ही गौशाला में भी काम किया लेकिन कभी हिसाब नहीं हुआ कि मजदूरी का कुल कितना पैसा होता है। कभी उसने हिसाब भी नहीं किया और तो और प्रधान ने उसके नाम का भी खूब फायदा उठाया। उसके नाम आवास, शौचालय, मनरेगा का पैसा निकाला पर कभी उसके हाथ नहीं लगा। जब मैंने ये पूंछ लिया कि वह अपना हिसाब क्यों नहीं मांगते। उन्होंने कहा कि उनको नहीं चाहिए। ऊपर वाला सारा हिसाब करेगा। ये बात कहते हुए उनके चेहरे और आंखों से साफ-साफ संतोष और डर झलक रहा था।
मजदूर के घर को बाहर से देखकर ही अंदाज़ा लग गया कि वह किस परिस्थिति से गुजर रहे हैं। बाहर से झोपड़ी, मिट्टी से बने दो कमरा और एक ईंट से बना कमरा जिसकी दीवाल में हाथ रखते ही बालू झड़ रही थी। इधर उधर बिखरे कपड़े और चूल्हे के पास थोड़ा थोड़ा रखा मिर्च मसाला, आटा गरीबी को बयां कर रहा था। बगल में रखे बर्तन खाली थे। टूटी चारपाई और उस पर मैले कुचैले फटे पुराने बिस्तर के कपड़े एक कोने मानो चिल्ला-चिल्ला कर अपनी गरीबी को कोस रहे हों। मतलब साफ पता चल रहा था कि वह कितनी गरीबी और परिस्थितियों से गुजर रहे हैं।
जब नाबालिग कर गए पलायन
मज़दूर के लड़कों में से दूसरे और तीसरे बेटों ने बताया कि वह बचपन में ही परदेश चले गए थे। पढ़ाई के नाम कक्षा पांचवीं तक ही पढ़े हैं। घर की स्थिति सुधारने के लिए वह कमाने के लिए चले गए। ईंट भट्ठे में जलाई का काम करने लगे। बच्चों के लिए यह बहुत ही कठिन काम था। जलाई मतलब ईंट को पकाने के लिए ईंधन डालना। जान के लिए खतरे ही खतरे लेकिन मरता क्या न करता। एक लड़के की छोटी जॉब भी लगी लेकिन लॉक-डाउन के कारण वह भी चली गई। करीब चार महीने पहले फिर से गए ईंट भठ्ठे में काम करने के लिए। तब से ईंट भट्ठे में लगातार काम किया लेकिन पैसा नहीं मिला। वहां भी बंधुवा मज़दूर बन गए। बहुत मुश्किल से संस्था और प्रशासन की मदद से घर वापस आ पाए हैं।
गांव से परदेश तक बंधुवा मजदूरी की जड़े मजबूत
इस मजदूर और उसके बेटों के साथ भी तो यही हुआ है। कहने का मतलब बंधुवा मजदूरी मेहनत का पैसा न मिलने पर दिख ही जाती है। यह बात और है कि यह विडंबना मज़दूरों के ऊपर ही देखी गई है। मजदूरी या नौकरी के सबसे निचले स्तर पर इसका रूप देखने को मिल ही जाता है। क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का “मिशन रोजगार अभियान” इनके लिए भी कुछ करेगा? जिनको ध्यान में रखकर किसी भी योजना या अभियान की पात्रता सूची बनती है वही लोग पात्रता सूची से बाहर जाते हैं, क्यों? बंधुवा मज़दूरी से कब निजात मिलेगी। सरकारें भी कभी इस मुद्दे पर ज्यादा बात नहीं करती हैं।