साल 2011 से पहले वह एक ऐसी सोनी सोरी थीं जो एक टीचर के रूप में जानी जाती थीं। उसके बाद से जो सोनी सोरी है वह एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जानी जाती है। वह दंतेवाड़ा जिले के कोकोण्डा ब्लाक के नवीन संयुक्त आश्रम की अधिक्षिका थी। बच्चे और मैं बहुत खुश थी। साल 2010 में 15 अगस्त के दिन जब नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में सड़क निर्माण में लगी एस्सार कंपनी की गाड़ियों को आग के हवाले किया तब कहा गया कि इस नक्सली वारदात में सोनी सोरी की भूमिका भी संदिग्ध है और इन वारदातों के कुछ समय बाद कांग्रेस के एक स्थानीय नेता पर हमला हुआ जिसमें उनके बेटे घायल हुए तब शक के आधार पर सोनी सोरी और उनके भतीजे लिंगाराम कोड़ोपी को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ महीने बाद उनके पति को भी माओवादी समर्थक कहकर गिरफ्तार कर लिया गया था।
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सोनी सोरी का जन्म 15 अप्रैल 1975 में छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा के एक छोटे से गांव बड़े बेड़मा के आदिवासी परिवार में हुआ था। माता का नाम जोगी सोरी और पिता मुंडाराम सोरी हैं। सोनी सोरी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई। अपनी आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्थान की मदद से बारहवीं तक की शिक्षा हासिल करने में वह कामयाब रहीं।
आदिवासी परिवार में शिक्षा के प्रति जागरूकता और प्राथमिकता कम होती है ऐसा माना जाता है लेकिन उन्होने उच्च स्तर की शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूरी होने के बाद सोनी सोरी प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका के तौर पर वह ग्रामीण इलाके में पढ़ाने लगीं। ग्रामीण बच्चे अपने बीच एक आदिवासी शिक्षिका को पाकर बहुत खुश थे और इनसे काफ़ी ज़्यादा जुड़ाव महसूस करते थे। यह इलाका नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र में आता है। जब साल 2007–08 में गर्मी की छुट्टियों में सीआरपीएफ के जवान स्कूलों में ठहरने लगे तो उस दौरान बस्तर में स्कूल को नक्सलियों द्वारा ध्वस्त किया जा रहा था। वह आसपास के सभी शिक्षकों को जनसभा में बुलाकर सीआरपीएफ बटालियन का विरोध करने को कहते थे। जब पहली बार नक्सलियों से उनकी जनसभा में बात हुई तब उन्होंने नक्सलियों से पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं क्योंकि इससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है।
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नक्सलियों ने कुछ देर सोचकर सोनी से कहा कि स्कूल तोड़ने की वजह सीआरपीएफ बटालियन है। लेकिन हम आपका स्कूल नहीं तोड़ेंगे। इस शर्त पर कि आप इस स्कूल में सीआरपीएफ बटालियन को ठहरने नहीं देगी, यदि गलती की गुंजाइश होगी तब सोनी सोरी को जन अदालत में सजा दी जाएगी। सोनी ने लगभग डेढ़ सौ बच्चों के लिए यह शर्त मान ली थी और इनके स्कूल, हॉस्टल को नक्सलियों ने छोड़ दिया। सोनी कहती हैं कि वह नक्सल से अपने विचारों से जीत गई लेकिन सरकार से नहीं जीत पाईं। सरकार उन पर ही शक करने लगी।
सोनी सोरी संघर्षों की जीती-जागती मिसाल हैं। उन पर इतने अत्याचार हुए, उन्हें तोड़ने के लिए पितृसत्तात्मक हथकंडे अपनाए गए लेकिन इन्हीं अत्याचारों को सहते हुए उनमें हिम्मत आई। वह निडरता से अपनी बात कहती हैं। रिहा होने के बाद उन्हें विभिन्न सार्वजनिक मंचों पर अपने साथ हुई हिंसा को लोगों के साथ साझा करने का मौका मिला। उनके साहस को देखते हुए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मानों से नवाज़ा गया और साल 2018 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व के पांच लोगों के साथ सोनी-सोरी को “फ्रंट लाइन डिफेंडर्स अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स ऐट रिस्क” अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। सोनी सोरी का संघर्ष बस्तर में आज भी जारी है।
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बस्तर के गांवों से सैकड़ों किलोमीटर दूर से सोनी के पास जब हिंसा और मानवाधिकार हनन की खबरें पहुंचती हैं तब वह तत्काल अपने घर से दिन हो या रात निकल पड़ती हैं। उन गांवों में पहुंचकर ग्रामीणों को समर्थन देती हैं और इन्हीं की अगुआई में सरकार की गलत नीतियों और दमन को लेकर कई बार विरोध-प्रदर्शन भी किया गया है। सोनी सोरी का मानना है कि वह आज भी इस लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक तरीके से लड़ रही हैं। सरकार पूंजीपतियों के साथ मिलकर आदिवासियों पर जुल्म करती है। जल,जंगल,जमीन उनके हैं और संविधान ने भी इन जंगलों का अधिकार आदिवासियों को ही दिया है।
जब से देश की राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मू बनी है तो यह बात बहुत चर्चे में है। अभी बस्तर के 11 के 11 विधायक आदिवासी हैं तो कुछ भला नहीं हुआ है। फिर भी एक आवाज उठ रही है कि राष्ट्रपति खुद आदिवासी समुदाय से हैं तो आदिवासियों का उद्धार होगा। उनका मानना है कि वह उनसे मिलेंगीं और आदिवासियों के मुद्दों को उनके सामने रखेंगी जब उनमें सुधार होगा या कार्यवाही होगी तभी तो वह कह पाएंगी कि आदिवासी समुदाय की राष्ट्रपति होने से उनके समुदाय का उद्धार हो रहा है।
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