खबर लहरिया औरतें काम पर लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

साभार: आई एम डी बी

विवादित फिल्म होने का एक फायदा जो फिल्मों को होता है, वो है प्रचार के खर्च से छुट्टी। ऐसा ही हुआ कुछ इस फिल्म के साथ छोटे बजट की इस फिल्म को अच्छे दर्शक मिल गए। सच पूछो तो सिनेमाघरों में आए आधे से ज्यादा लोग फिल्म के विवादित होने की वजह ढूंढ रहे थे। सेंसर बोर्ड के मुख्या प्रहलाद निहलानी जैसी आंखे और समझ शायद सबके पास नहीं है। खैर, फिल्म को देखकर आए लोगों ने अपनी-अपनी राय दी। इन ही रायों से हम भी इस फिल्म के महिला सषक्तिकरण को समझने की कोशिश करेंगे। विवादित फिल्म होने का एक फायदा जो फिल्मों को होता है, वो है प्रचार के खर्च से छुट्टी। ऐसा ही हुआ कुछ इस फिल्म के साथ छोटे बजट की इस फिल्म को अच्छे दर्शक मिल गए। सच पूछो तो सिनेमाघरों में आए आधे से ज्यादा लोग फिल्म के विवादित होने की वजह ढूंढ रहे थे। सेंसर बोर्ड के मुख्या प्रहलाद निहलानी जैसी आंखे और समझ शायद सबके पास नहीं है। खैर, फिल्म को देखकर आए लोगों ने अपनी-अपनी राय दी। इन ही रायों से हम भी इस फिल्म के महिला सषक्तिकरण को समझने की कोशिश करेंगे।  25 साल की अशीमा कहती हैं कि फिल्म में चार अलग-अलग उम्र की महिलाओं दिखाकर हर उम्र की परेशानियों को दिखाया गया है। कैसे हर उम्र में महिलाएं अपनी इच्छाओं दबाती हैं और जब जाहिर करती हैं, तो उनका अंत फिल्म के अंत जैसा होता हैं। जब उन्हें पता चला हैं कि जो वे चलती हैं, वो उन्हें सपनों में ही मिल सकता हैं।  वहीं 19 साल की संध्या फिल्म देखकर आने के बाद कहती हैं कि बुआजी को देखने के बाद हमें लगा कि एक अकेली बुजर्ग महिला में भी सेक्स की फील्गि हो सकती है। ये दिखाना हिंदी फिल्मों में पहली बार था। फिल्म को देखकर लौटे लोग फिल्म के ओपन एडिंग पर भी बात कर रहे हैं। कुछ इसे सही तो कुछ को अजीब लगा। 30 साल की लीला ओपन एडिंग से खुश नहीं हैं, उन्हें लगता हैं कि उन महिलाओं को कुछ तो ठोस फैसला लेना चाहिए था। हम दर्शक फिल्मों से सीखते हैं, पर ओपन एडिंग हमें उस ही हाल में जीने की बात कहती है। पर प्रतिक्षा को लगता हैं कि ओपन एडिंग सही थी क्योंकि आप उसे कुछ भी अंत दे सकने के लिए आजाद हो। उन्हें लगता हैं कि फिल्म के किरदार ऊषाजी, शिरीन, लीला और रिहाना की स्थिति जरुर दुख देने वाली थी। पर वे सभी कभी भी दया की पात्र नहीं बनती। वे लड़ रही हैं अपनी समस्याओं बिना हार माने।  अंत में इस फिल्म के लिए इतना की निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव ने बुआजी के किरदार को दिखाकर सेक्स की भावना को उम्र के बंधनों से मुक्त किया है। वहीं फिल्म में ये भी दिखाया गया हैं कि महिलाओं के पास फैसला लेने का हक भी नहीं हैं, जो सशक्तिकरण की अहम शर्त है। आज भी दबंग बुआजी अपने से छोटे उम्र के लड़के के प्रति आकर्षण को छुपाती हैं। तो तेजतर्रार रिहाना को अपने घर में एक दबी सहमी लड़की बनना ही पड़ता हैं। शिरीन अपने शौहर को कंडोम लगाने को नहीं कह सकती हैं, लीला अपने प्रेमी के शादी के लिए हां के जवाब के इंतेजार में सगाई तक कर लेती है। फिल्म समाज के हर उम्र की महिलाओं से रुबरु करती है। साथ ही ये भी बताती हैं कि बिना रोक-टोक सपने देखो क्योंकि अभी आपके सपनों को हकीकत बनने में समय लगेगा।