वो पनघट पे जमघट, वो सखियों की बातें
वो सोने के दिन और चांदी सी रातें
वो सावन की रिमझिम, वो बागों के झूले
वो गर्मी का मौसम, हवा के बगूले
वो गुडि़या के मेले, हज़ारों झमेले
कभी हैं अकेले, कभी हैं दुकेले,
मुझे गांव अपना बहुत याद आता।
है लगता की जैसे वो था एक सपना
ना मैं गाँव का था, ना गाँव था अपना
शहर की नहीं जि़्ांदगी मुझको भाति
मुझे गाँव की याद बेहद सताती
मुझे गांव अपना बहुत याद आता।
-राजीव कृष्णा सक्सेना