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इस हफ्ते, पढ़ें निवेदिता झा की खबर। निवेदिता बिहार राज्य की राजधानी पटना में कई सालों से रिपोर्टिंग कर रही हैं।
पटना, बिहार। बिहार में विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों के बीच हलचल बढ़ गई है। चुनावी प्रचार शुरू हो गया है।
राज्य और राजधानी पटना नीतीश के पोस्टरों और होर्डिंग से भर गई है। वहीं भाजपा के हाईफाई चुनावी रथ भी जहां तहां घूम रहे हैं। भाषणों और बयानबाजि़्ायों की भरमार है।
बिहार के मुख्यमंत्री उन राजनेताओं में से हैं जो नए-नए प्रयोग करते रहे हैं। वे अपने दुश्मनों से भी सीखते हैं। इस बार उन्होंने नरेंद्र मोदी के लोकसभा प्रचार अभियान से सीख ली है। इतना ही नहीं लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान की बागडोर संभालने वाले प्रशांत कुमार की टीम को उन्होंने चुनाव प्रचार का जि़्ाम्मा सौंपा है। शायद इसीलिए नीतीश का प्रचार करते पोस्टरों और उनके अभियान में लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रचार की झलक मिलती है।
‘बहुत हुआ जुमलों का वार एक बार फिर नीतीश कुमार, बिहार में बहार है नीतीश कुमार है।’ जैसे पोस्टर लगे हुए हैं। नरेंद्र मोदी ने गरीब देश में कैसे अमीरी से चुनाव लड़ा जा सकता है – यह दिखाया और चुनाव पर करोड़ों खर्च किए। अब नीतीश कुमार गरीब बिहार में यह प्रयोग कर रहे हैं। पर सवाल है कि बिहार के लोग क्या चाहते हैं?
बिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी से जूझ रहा है। लोग रोज़गार की खोज में पलायन कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार से बाहर जाकर काम करने वाले मज़दूरों की तादाद में हर साल बढ़ोतरी हो रही है। 2001 की जनगणना के अनुसार बिहार में सत्रह लाख मज़्ादूरों का पलायन हुआ। 2008 तक इसकी संख्या बढ़कर साठ लाख हो गई। बिहार उन पांच राज्यों में से है, जहां सबसे ज़्यादा मज़दूरों का पलायन होता है। मनरेगा जैसी योजना की असफलता ने उन्हें फिर से पलायन के लिए मजबूर किया है।
दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक दलों को यह गरीबी नज़र नहीं आती। उन्हें समझ नहीं आता कि नेताओं के फोटो लगे और छल्लेदार बातें और वादे करते पोस्टरों से ज़्यादा ज़रूरी जनता की जि़न्दगी को बेहतर बनाना है।