खबर लहरिया राजनीति जनगणना में गांवों की चिंताजनक तस्वीर

जनगणना में गांवों की चिंताजनक तस्वीर

नई दिल्ली। जनगणना रिपोर्ट में गांवों की बेहद चिंताजनक तस्वीर सामने आई है। 3 जुलाई को जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश की आबादी के कुल तिहत्तर प्रतिशत घर गांवों में हैं। इनमें से चैहत्तर प्रतिशत लोग पांच हज़ार से भी कम मासिक आय में गुज़ारा कर रहे हैं। इक्यावन प्रतिशत घरों के लोग शारीरिक श्रम यानी मज़दूरी करते हैं। तीस प्रतिशत खेती करते हैं। करीब साढ़े बत्तीस प्रतिशत ग्रामीण आबादी के पास नियमित कमाइ करने वाला व्यक्ति नहीं है। केवल पांच प्रतिशत लोग सरकारी वेतन उठाते हैं जबकि करीब चार प्रतिशत लोग निजी नौकरी करते हैं। केवल करीब अट्ठारह प्रतिशत अनुसूचित और साढ़े दस प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोगों के पास अपने घर हैं।

जनगणना के आंकड़े 2011-2013 के बीच के हैं। इन आंकड़ों के आधार पर जाति के आधार पर गरीबों का आकलन कर उन्हें सुविधा एवं सरकारी सेवाएं दी जाएंगी। जनगणना में देश के करीब साढ़े चैबीस करोड़ घरों को लिया गया था। इनमें से करीब अट्ठारह प्रतिशत घर ग्रामीण इलाके के हैं।

वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि रिपोर्ट का नाम सामाजिक, आर्थिक जाति आधारित जनगणना है लेकिन इसमें जाति आधारित आंकड़े नहीं हैं। जब यह जनगणना शुरू हुई थी तभी से इस पर विवाद था कि अगर जाति आधारित जनगणना हुई तो आरक्षण की मांग बढ़ सकती है। दूसरे जाति आधारित आंकड़े सुरक्षा के लिहाज़ से भी खतरनाक हो सकते हैं।

विशेषज्ञों ने उठाए सवाल
पूर्व योजना आयोग आयुक्त एन.सी. सक्सेना ने रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि एक तिहाई गरीब आबादी को इस जनगणना में शामिल ही नहीं किया गया है। सक्सेना ने गरीबी के मानक तय करने में अहम भूमिका निभाई थी। गांव स्तर में सर्वे करने के बाद इस रिपोर्ट पर खुली बहस नहीं की गई। भोजन के अधिकार के लिए काम कर रहे बिराज पटनायक ने कहा कि सर्वे के तरीकों में भी कई कमियां हैं। पटनायक ने यह भी कहा कि काम के लिए पलायन करने वाले लोगों के बारे में इस रिपोर्ट में कोई जानकारी नहीं है। 2002 में पलायन गरीबी का एक मानक था। सक्सेना ने बताया कि मौजूदा जनगणना में कहा गया है कि करीब सत्रह प्रतिशत ग्रामीण घर गरीबी में रह रहे हैं जबकि मौजूदा समय में बीस प्रतिशत लोगों को अंत्योदय योजना के तहत लाभ मिल रहा है। तो क्या यह सारे लोग गरीब नहीं हैं?