जुलाई के महीने में अमेरिका और यूरोप के कई देश में तापमान 30 से 40 डिग्री तक पहुंच गया जबकि इन देशों में इतनी तेज़ गर्मी कभी पड़ती ही नहीं। जहां लोग मौसम की इस मनमानी से हैरान थे वहीं वैज्ञानिक इसे आने वाले सालों के लिए खतरे का संकेत मान रहे हैं ।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ’ग्लोबल वार्मिंग’ का हिस्सा है – यानी धरती का बढ़ता हुआ तापमान जिससे कई जगह मौसम की तीव्रता देखने को मिलती है। कहीं भीषण गरमी पड़ रही है तो कहीं बाढ़, समुद्र में पानी बढ़ रहा है और कहीं ज्वालामुखी फट रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का एक कारण है धरती के आर्कटिक इलाके में हो रहे बदलाव। आर्कटिक धरती का सबसे उत्तरी इलाका है। बर्फ की मोटी परत से ढका हुआ यह इलाका पूरी धरती का तापमान नियंत्रित करता है। यह सूरज की तेज़ और भीषण गर्मी को सोक लेता है जिससे धरती का तापमान हमारे रहने लायक बना रहता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से आर्कटिक में बर्फ की मोटी चट्टानें पिघलने लगी हैं। इसकी वजह से समुद्र में पानी का स्तर बढ़ रहा है और धरती करीब दो डिग्री गर्म हुई है।
आर्कटिक को बचाने के लिए अगर सभी देश ठोस कदम नहीं उठाते हैं तो आने वाले सालों में धरती रहने लायक नहीं रहेगी। जहां विकसित देशों को बहुत कुछ करने की ज़रूरत है वहीं हम भी जिस रफ्तार से जंगलों को काटकर बिल्डिंग और फैक्ट्री खड़ी कर रहे हैं, उस पर रोक लगानी होगी। पानी और बिजली बचानी होगी। मनुष्य की तरक्की में प्रकृति को साथ लेकर नहीं चले तो प्रकृति साथ छोड़ देगी।
क्यों बदल रहा है धरती का मौसम?
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