खबर लहरिया Blog ग्रामीण महिला पत्रकार की पुरानी यादों का पिटारा

ग्रामीण महिला पत्रकार की पुरानी यादों का पिटारा

मैं उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले के एक छोटे से गांव से हूँ। आप मेरा नाम सोच रहें होगें पर नाम मैं आप पर छोड़ देती हूँ। आप मुझे मनचाहा नाम दे सकते है। मैं आज पत्रकार हूं ग्रामीण न्यूज़ चैनल ‘खबर लहरिया’ में। मैं पत्रकार यानि रिपोर्टर कैसे बनी और और एक रिपोर्टर के रूप में कैसे यहां तक पहुंची आप जानना चाहेंगे तो चलिए आपको मेरे जीवन से जुड़े कुछ हिस्सों को आपके साथ साझा करती हूँ।

yaadon ka pitara, a story from the vision of a rural women journalist

                                                                                 यादों के पिटारे की सांकेतिक फोटो जो इसी परिदृश्य से कहीं शुरू होती है

मैं आज भी जब उन पुरानी यादों को याद करती हूँ तो मुझे ये नई ही लगती है। मैं किसान परिवार से हूँ। मैं अपनी मम्मी के साथ मजदूरी पर किसी और गांव के खेत में कटाई के लिए जाती थी और मम्मी की मदद किया करती। भले आज मैं गांव में कटाई नहीं कर रही हूं क्योंकि आज मैं पत्रकार हूँ लेकिन पुरानी यादें हमेशा याद आ जाती है। आज भी जब मैं गांव में फसल काटने वाले मजदूरों को देखती हूं तो मैं उन दिनों को याद करने लगती हूँ जब मैं भी यही किया करती थी।

एक बार की बात है फरवरी में अंत के दिनों में मेरी मम्मी ने कहा, “हमें भी बाहर कटाई (फसल काटने) करने के लिए जाना है।”

मेरे दादा – हां, जरूर जाना होगा क्योंकि हमारे यहां चना नहीं है और ना ही अलसी होती है। अगर तुम चली जाओगी मां-बेटी तो तेल के लिए अलसी (फसल), लाही (धान, बाजरे आदि के भूने हुए दाने) और सतुआ (पिसा हुआ चना) खाने के लिए हो जाएगा।

मेरी मम्मी – हम कभी गए नहीं है, पता नहीं कटाई कर पाएंगे या नहीं।

पड़ोस के दादाजी -अरे! चलो हम तो है, कोई दिक्कत नहीं है। अपने घर जैसा रहने के लिए घर मिला है।

फिर मेरी मम्मी तैयारी करने लगती है। बहुत सारा नमक पत्थर के सिलबट्टा से पीस लेती है उसके बाद चना, मिर्च हल्दी का पूरा मसाला बनाती हैं और पैक कर लेती हैं।

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दूसरे ही दिन हमने बर्तन और खाना बनाने का सामान और कुछ कपडे पैक कर लिए हम अपने गांव से मां- बेटी निकल जाते हैं कटाई करने के लिए। अपने गांव से लगभग 50 किलोमीटर दूर अपने गांव से दूसरे गांव।

पहली बार में पता नहीं था कि कितने बजे खेतों में काम करना है और कितने बजे नहाना-धोना है। जब हम और हमारे गांव के 15 मजदूर भी कटाई के लिए मानवरा गांव जाते हैं जोकि यूपी जिले के बॉर्डर से सटा हुआ गांव छतरपुर है। जब गांव पहुंचे तो देखा कि सिर्फ हम माँ- बेटी नहीं है। मेरे सामने गांव के लगभग 40-50 लोग मौजूद थे। जैसे अकसर होता हैं हम जब किसी के गांव जाते हैं तो गांव के कुछ लोगों का जमवाड़ा हमारे सामने दिखाई देता हैं। लोगों के जिज्ञासा भरे हाव-भाव दिखते हैं। गांव वालों के मन में भी सैकड़ों सवाल होते हैं नए व्यक्ति को लेकर जब कोई पहली बार गांव में आता है।

गांव में कटिया (फसल काटने वाले) आते हैं कटाई करने उन्हें देख मुझे अपनी याद आती है। मैं भी ऐसा ही अपने मम्मी के साथ कटाई करती थी। मैं सुबह 4:00 बजे तालाब से नहा कर आती थी और खाना बनवाती थी। मम्मी के साथ मिलकर खाना जल्दी बनकर तैयार हो जाता था। खाना खाकर लगभग 3 किलोमीटर चलकर खेतों में मसूर, मटर, चना, अलसी, लाही की कटाई करने लगते थे।

पत्रकार बनने से जीवन में आया बदलाव बनने से मेरे जीवन में काफी कुछ बदल गया। जैसे मैं जल्दी 6:00 बजे सो के जगती हूँ। खाना बनाती हूँ और खाना खाकर फील्ड रिपोर्टिंग के लिए निकल जाती हूँ। अब हमें खबरें करने की चिंता लगी रहती है और पहले खेतों की कटाई करने की चिंता रहती थी।

बांदा से शुरू हुआ था ‘खबर लहरिया’ की पत्रकार बनने का सफर

2010 में खबर लहरिया ने मुझे पत्रकार बनने का अवसर दिया। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि मैं गांव की लड़की एक पत्रकार भी बन सकती है। मैं जब खबर लहरिया से जुड़ी तो पत्रकारिता की बरकियों को सीखा और आज मैं गांव, जिले में रिपोर्टिंग करती हूं। अभी महोबा के साथ हमीरपुर जिले में भी काम करती हूँ। पहले शुरुआत में कभी सोचा भी नही था की खेतों में काम छूटेगा पर आज नही करती हूं। बैग, हाथ में माइक और आईडी ये सब के साथ निकल पड़ती हूँ खबरों के लिए।

खास बात तो मैं बताना भूल ही जा रही हूं। जब हम दिन भर कटाई करते थे तो दिन भर अच्छी-अच्छी दानेदार फसल छाठ-छाठ कर एक-एक मुट्ठी रखते थे, जहां पर हमें मजदूरी मिलना था। उसको खेतों में गड्ढा करके दबा कर रखते थे। जब शाम 4:00 बजते थे तो किसान आता था और वह पूरी गिनती करता था।

किसान – तुम्हारे कितने पूरी (फसल) हैं।
हम – हमारे सो पूरी (फसल) है।
किसान – आपको पांच पूरी(फसल) मिलनी है।

हम बहुत उत्साहित रहते थे कि जो हमने दिनभर की अच्छी-अच्छी फसल रखी है वही हमें मिलेंगे। अब वही उठाएंगे अपने लिए लेकिन किसान आते हैं। वे कहते हैं कि पांच पूरी (फसल) आपको मिलनी है तो दो पूरी (फसल) अपने मन की अपनी छँटीं हुई लो। तीन पूरी हम जहां की बताएंगे वहां की आपको लेना है। वहीं पर हताश हो जाता है मन और सोचने लगते हैं अगले दिन और छोटी पूरी बनाएंगे। आज हम लोगों की बहुत बड़ी पूरी हो गई है इसीलिए नहीं दे रहे हैं किसान।

अपनी मजदूरी लेते है हमने कटाई की है। फसल उसको जहां पर किसान इकट्ठा करने के लिए बोलता है। हम साड़ी के पटके में या रस्सी में बांध के उसे फसल को इकट्ठा करते हैं। उसके बाद अपनी मजदूरी बांध कर सिर पर रखते हैं। मैं, मेरी मम्मी और जो हमारे साथ साथी गए हुए हैं। सब लोग सर में रखकर खलिहन में रख देते हैं। वहां पर इस तरह से रखते हैं की एक ढल (फसल का एक भी हिस्सा) अगर कोई निकाल ले तो पता चल जाए कि हमारी कटाई किसी ने ले ली है ऐसे रखते थे।

कटाई करते हुए हमें 8:00 बज जाते हैं। रात में पानी लाते हैं। पानी लाकर फिर मिट्टी के चूल्हा पर खाना पकाते हैं और खाना पीना करके जमीन में सो जाते हैं। सुबह होने पर फिर खाना बनाते हैं और खाना बनाकर फिर कटाई के लिए निकल जाते हैं।

मेरी मम्मी – अगर घर बैठे रहते तो 10 किलो चना कहां से मिल जाता। ऐसा करो 1 किलो चना तुम ले लो। दुकान में पेठा खा लो।

हम जाते और पेठा खा लेते चना बेचकर।

आज मुझे ऐसा लगता है जो बच्चे-लड़कियां अपने गांव से बाहर गांव जाती होगी। उनको भी इसी तरह से लगता होगा जैसे मुझे आज लगता है।

यही सब अचानक बचपन की यादें आ रही है जो आज भी मैं भूल नहीं पाई हूँ। यह मेरी जीवन की संघर्ष भरी कहानी है। आज मैं काम करूं या ना करूं लेकिन यादें खत्म नहीं होती जो बीता हुआ पल है वो हमेशा मेरे साथ रहेगा।

 

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