खबर लहरिया चित्रकूट आदिवासी हैं जंगलों की जान

आदिवासी हैं जंगलों की जान

विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष:

भारत में एक आदिवासी अपना जीवन किस तरह व्यतीत करता है यह तो हम अपनी ख़बरों के माध्यम से आपको समय-समय पर दिखाते रहे हैं। आज़ादी की लगभग 75 साल भी आदिवासी समाज हमारे देश में विकास की सीढ़ी नहीं चढ़ पाया है। लेकिन आखिर ऐसा क्यों है? जब सरकार बड़े शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए अपनी पूरी जद्दोजहद कर रही है तो फिर देश के पिछड़े इलाकों में बसे इन आदिवासी परिवारों के बारे कोई क्यों नहीं सोच रहा है?

हर साल 9 अगस्त को दुनिया भर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है जिसका उद्देश्य है लोगों को आदिवासी संस्कृति, इन लोगों के रहन-सहन के तरीके से रूबरू कराना और हाँ! आदिवासियों को उनक हक़ दिलवाने के लिए जागरूकता फैलाना।

कहते है कि विश्व के 195 देशों में से 90 देश ऐसे हैं जहां पर आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। जिनकी संख्या लगभग 37 करोड़ है और हर देश में उनकी अपनी भाषा है। इसी तरह बुंदेलखंड के भी कई क्षेत्रों में आदिवासी परिवार रहते हैं, बांदा, चित्रकूट, पन्ना, छतरपुर के इलाकों में यह परिवार जंगलों के किनारे रहते हैं और जंगल से जड़ीबूटी बीनकर, लकड़ी काटकर यह अपना गुज़ारा करते हैं। पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर इन लोगों तक सरकारी योजनाएं पहुँचती ही नहीं हैं। तो क्या हम इस आदिवासी दिवस के अवसर पर यह उम्मीद लगा सकते हैं कि इन लोगों की स्थिति में कुछ सुधार होगा?

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साल 2021 के मार्च के महीने में चित्रकूट के पास बरगढ़ घाटी कई दिनों तक आग की लपटों से दहकती रही और इसी आग में देहका आदिवासी परिवारों का रोज़गार। इस आग ने जंगल को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और जीव-जंतुओं के साथ नष्ट हुए जड़ी-बूटियों के पेड़-पौधे। इन लोगों का रोज़गार छिनने के बाद अबतक सरकार ने इनको कोई दूसरा रोज़गार दिलवाने का इंतज़ाम नहीं किया है।

चित्रकूट के पाठा क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं कोरोना काल से पहले लोकल ट्रेनों में सफर करके जंगलों में अपने रोज़गार ढूंढती थीं और घर चलाती हैं। लेकिन फिर आ गई महामारी जिसमें कुछ महीनों तो तक सभी ट्रेनें बंद ही रहीं और जब ट्रेनें चलना शुरू हुईं तो लोकल ट्रेन में सफर करने के लिए भी प्रशासन ने नए नियम बना दिए, जैसे टिकट होना अनिवार्य कर दिया, आधार कार्ड दिखाना ज़रूरी कर दिया, यहाँ तक कि किराया भी बढ़ा दिया। ऐसे में सबसे ज़्यादा मुश्किल हुई इन आदिवासी परिवारों को जिनके लिए पैसे की किल्लत के कारण रोज़ाना ट्रेन में सफर कर पाना मुश्किल हो गया और परिणाम स्वरूप रोज़गार की तलाश में अब ये लोग मीलों का सफर पैदल ही तय करते हैं।

उधर एमपी ज़िले के टीकमगढ़ के गाँव सापौन में भी एक आदिवासी बस्ती है जिसमें तक़रीबन 25-30 परिवार रहते हैं, लेकिन दुःख की बात तो यह है कि इस पूरी बस्ती में केवल 3-4 आवास ही बने हुए हैं। और बाकी सब लोग पन्नी डालकर या मिट्टी के घरों में रह रहे हैं। क्या अपने आलिशान घरों में जीवन बिता रहे अधिकारी इन परिवारों की पीड़ा समझ पाएंगे?

देश के हर नागरिक की पहचान का सबूत कहे जाने वाले आधार कार्ड के बारे में तो हम सभी जानते हैं, आधार कार्ड होने के लाभ, उसके द्वारा मिलने वाली सुविधाएं आज हम सबके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी हैं लेकिन क्या आपको पता है कि पन्ना ज़िले के गाँव बालूपुर और राजपुर में लगभग 200 आदिवासी ऐसे हैं जिनके आधार कार्ड ही नहीं बने हैं। इन लोगों ने कई बार विभाग के चक्कर लगाए और आधार कार्ड बनवाने की कोशिश की लेकिन फिर भी हाँथ निराशा ही लगी।

तो देखा आपने कैसे हमारे देश के आदिवासी समाज की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी मूलभूत अधिकारों के लिए जीवन से जंग लड़ रही है। सरकार ने आदिवासी दिवस तो हर साल मनाया और उनके विकास के वादे भी किये लेकिन सच्चाई तो हमारे सामने है। क्या कभी यह परिवार अपने अधिकारों को जान पाएंगे? या सिर्फ कागजों में ही आदिवासी दिवस मनाने से उनके पेट भर जाएगा ?

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