लेकिन उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के जसरा ब्लॉक के कंजासा गांव के कुछ साहसी महिलाओं ने इस सोच को बदल दिया है। उन्होंने सिर्फ नाव नहीं चलाई बल्कि उस पर बैठी सामाजिक सोच को भी हिला दिया है
जहां नदी है वहां नाव है और जहां नाव है वहां लगभग लोग पुरुष हैं। यह वाक्य समाज में गहराई से बैठा दिखाई पड़ता है। सदियों से ऐसा माना जाता रहा है कि नाव चलाना पुरुषों का काम है और ये काम कठिन, जोखिम भरा और ताक़त वाला होता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के जसरा ब्लॉक के कंजासा गांव के कुछ साहसी महिलाओं ने इस सोच को बदल दिया है। उन्होंने सिर्फ नाव नहीं चलाई बल्कि उस पर बैठी सामाजिक सोच को भी हिला दिया है। इन महिलाओं की कहानी कई स्तरों पर प्रेरित करती है। यह कहानी है हिम्मत की, बदलाव की और अपने दम पर दुनिया को देखने की।
महिलाएं नाव नहीं चला सकती का ताना
उत्तर प्रदेश की इन ग्रामीण महिलाओं ने जब पहली बार नाव की पतवार हाथ में ली तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये बदलाव की लहर बन जाएगी। आमतौर पर नाविक का पेशा पुरुषों के लिए ही माना जाता रहा है। खासकर गांवों में जहां आज भी रूढ़िवादी सोच जड़ें जमाए बैठी है। संगीता जो एक नाविक हैं वे कहती हैं कि “हमें किसी ने नाव नहीं सिखाया। हम खुद से अपने भाई को और बाकी लोगों को देख-देख कर सीखा है। जब शादी हुई और ससुराल आए तो सब बंद हो गया। फिर आर्थिक तंगी का ज़्यादा सामना करना पड़ा तो फिर नाव चलाना शुरू किया।” संगीता आगे बतलाती हैं कि “शुरुआत में हमारा मज़ाक़ बनया जाता था कि महिलाएं नाव नहीं चला सकती हैं लेकिन अब लोग देख कर बोलते हैं कि देखों महिलाएं नाव चला रही हैं तो गर्व महसूस होता है।
संगीता की दिनचर्या
बच्चों के पालन-पोषण के लिए संगीता ने नाव से सवारी ढोकर रोजी-रोटी चलाई। एक बार में 10-12 सवारियां बैठाकर वह प्रतिदिन 200-300 रुपये कमा लेती थीं। बाढ़, बारिश और मुश्किल हालात में भी संगीता ने नाव चलाई और यमुना को पार किया। हाल ही में कौशांबी में अपनी मां के निधन पर भी उन्होंने नाव से ही यात्रा की।
संगीता सुबह 4 बजे उठकर घर का काम बच्चों को स्कूल भेजने के बाद नाव चलाने जाती थीं और शाम को लौटकर फिर घर संभालती थीं। उनकी कहानी दिखाती है कि महिलाएं किसी भी मायने में पुरुषों से कम नहीं हैं। समाज उन्हें कमजोर कहे या कागजों पर हक न दे लेकिन हिम्मत और मेहनत से वह परिवार और समाज दोनों का सहारा बनती हैं।
नाव की पतवार अब महिलाओं के हाथ में
लेकिन इन महिलाओं ने कड़ी मेहनत, साहस और आत्मविश्वास से इस सोच को पीछे छोड़ दिया। पहले गांव के लोग ताज्जुब से देखते थे फिर ताने देते थे और धीरे-धीरे वही लोग आज इन महिलाओं की इज्ज़त से बात करते हैं। संगीता अकेली नहीं उस गांव में जो नाव चलाती हैं उनके साथ सब और भी महिलाएं नाव चला कर कुछ पैसे जुटाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। संगीता बताती है कि हम पहले खेतों में मजदूरी करते थे लेकिन नाव चलाने से हमारी आमदनी थोड़ी सी बढ़ गई तो अब हमें घर चलाने के लिए नाव से ही मदद मिल जाती है।
नाव की पतवार अब महिलाओं के हाथ में
उत्तर प्रदेश की इन ग्रामीण महिलाओं ने जब पहली बार नाव की पतवार हाथ में ली तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये बदलाव की लहर बन जाएगी। आमतौर पर नाविक का पेशा पुरुषों के लिए ही माना जाता रहा है खासकर गांवों में जहां आज भी रूढ़िवादी सोच जड़ें जमाए बैठी है।
लेकिन इन महिलाओं ने कड़ी मेहनत, साहस और आत्मविश्वास से इस सोच को पीछे छोड़ दिया। पहले गांव के लोग ताज्जुब से देखते थे फिर ताने देते थे और धीरे-धीरे वही लोग आज इन महिलाओं की इज्ज़त से बात करते हैं। संगीता के साथ बैठी एक और महिला कहती हैं कि “अब लड़कियां कहती हैं हम भी नाव चलाएंगे। पहले नाव पर लड़कियां बैठती थीं अब चलाती हैं।” नाव चलाना सिर्फ एक काम नहीं था, यह उन महिलाओं के लिए सम्मान और आत्मनिर्भरता की पहचान बन गया। पहले ये महिलाएं सिर्फ घर के कामों तक सीमित थीं। चूल्हा-चौका, बच्चों की देखभाल और खेतों में मजदूरी। लेकिन नाव चलाना उन्हें बाहर की दुनिया से जोड़ता है नए लोगों से बातचीत करने का मौका देता है।
कुंभ मेले में भी चलाई नावें, एक ऐतिहासिक पल
इन महिलाओं के आत्मविश्वास की सबसे बड़ी परीक्षा उत्तर प्रदेश के कुंभ मेले में हुई जहां लाखों श्रद्धालु आते हैं और नावों से गंगा पार करते हैं। यहां भी आमतौर पर पुरुष नाविक ही रहते हैं लेकिन इस बार इन महिला नाविकों को भी जिम्मेदारी दी गई।
उन्होंने श्रद्धालुओं को सुरक्षित नदी पार करवाई, मार्ग बताया, और अपने व्यवहार से यह साबित कर दिया कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं।
घरवालों का साथ बना हौसला
संगीता बतलाती हैं कि शुरुआत में घरवालों को भी संदेह था कि लोग क्या कहेंगे? बेटी नदी में जाएगी? लेकिन जब परिवार ने देखा कि महिलाएं जिम्मेदारी से काम कर रही हैं आमदनी हो रही है और समाज में इज्जत भी मिल रही है तो समर्थन मिलने लगा। आज कई महिलाएं अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च खुद उठा रही हैं अपनी नाव की मरम्मत करवा रही हैं और अपना घर चला रही हैं। बिना किसी पर निर्भर हुए।
समाज की सोच से टकराना आसान नहीं था
इस बदलाव की राह बिल्कुल आसान नहीं रही। जब उन्होंने शुरुआत की तो पुरुष नाविकों ने विरोध किया उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की और यहां तक कि ग्राहकों को बैठने से भी रोका गया।
कई बार ताने सुनने पड़े “औरत होकर नाव चलाओगी?”, “घर का काम छोड़ो पहले!” लेकिन इन महिलाओं ने इन बातों को अपनी ताकत बना लिया। उन्होंने ठान लिया था कि अब पीछे नहीं हटना है।
और क्या कहती हैं महिलाएं
वीडियो में कई महिला नाविकों ने बताया कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे नाव चला पाएंगी। लेकिन आज जब वे खुद पतवार थामती हैं तो उन्हें गर्व महसूस होता है। एक महिला बताती हैं कि “पहले लगता था ये काम मुश्किल है लेकिन अब लगता है कि मुश्किल वही होता है जो हम कोशिश नहीं करते।” दूसरी कहती हैं “लोग कहते थे लड़की हो ये काम मत करो। लेकिन मैंने कहा मैं लड़की हूं इसीलिए करुंगी।”
इस परिवर्तन में कुछ सामाजिक संस्थाओं और स्थानीय सरकारी प्रयासों की भी भूमिका रही, जिन्होंने इन महिलाओं को प्रशिक्षण, सुरक्षा उपायों की जानकारी और नाव खरीदने में सहायता दी। यह कहानी सिर्फ नाव की नहीं है यह कहानी है उस बदलाव की लहर की जो समाज की गहराई में बैठी असमानता को धीरे-धीरे बहाकर ले जा रही है। महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं सेना, विज्ञान, खेल, और अब नदी की लहरों पर भी उनकी पतवार चल रही है। जहां कभी सिर्फ पुरुष दिखते थे आज वहां “नदी की महिलाएं” भी दिखाई देती हैं पूरे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास के साथ।
नाव की पतवार हाथ में लेना सिर्फ एक कदम था आगे इन महिलाओं की मंजिल बहुत लंबी है। लेकिन उन्होंने जो पहल की है वह कई और महिलाओं के लिए रास्ता बन चुकी है। आज जरूरत है कि ऐसे बदलावों को सिर्फ सराहें नहीं बल्कि समर्थन भी दें। क्योंकि जब महिलाएं आगे बढ़ती हैं तो समाज भी आगे बढ़ता है।
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