मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, सागर, सतना, जबलपुर, छतरपर, निवाड़ी और अन्य कई जिलों में बीड़ी बनाने का काम बड़े स्तर पर होता है। इस व्यवसाय में काम करने वालों में बड़ी संख्या में महिलाएं हैं। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में 49.82 पंजीकृत बीड़ी श्रमिक है जिनमें से 36.25 लाख महिलाएं हैं। वहीं इससे अलग बड़ी संख्या में बिना किसी रजिस्ट्रेशन के महिलाएं बीड़ी व्यवसाय से जुड़ी हुई हैं।
यह रिपोर्ट खबर लहरिया रूरल मीडिया फेलो पूजा राठी, फेमिनिज़्म इन इंडिया से व खबर लहरिया से नाज़नी रिज़वी द्वारा किया गया है।
“पैर में सर-सराहट होती थी मैंने नज़रअंदाज कर दिया और काम में लगी रही फिर एक दिन अचानक बहुत तेज पसीना आया और बेहोश हो गई उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं है कैसे डॉक्टर के यहां गए और कैसे इलाज हुआ।” यह आपबीती है 52 वर्षीय कुसुम देवी की। वह बीड़ी बनाने का काम करती हैं और दिन में लगभग 8-9 घंटे बैठे रहती हैं। लगातार लंबे समय से बैठने के कारण नसों में परेशानी के कारण दो साल पहले उनके शरीर के आधे हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था। लंबे इलाज के बाद आज वह ठीक है लेकिन वह फिर से अपने उसी काम पर लौट आई है जिस वजह से उनकी सेहत खराब हुई थी।
मध्यप्रदेश के निवाड़ी जिले के पृथ्वीपुर की रहने वाली कुसुम ऐसी अकेली महिला नहीं है। दरअसल मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, सागर, सतना, जबलपुर, छतरपर, निवाड़ी और अन्य कई जिलों में बीड़ी बनाने का काम बड़े स्तर पर होता है। इस व्यवसाय में काम करने वालों में बड़ी संख्या में महिलाएं हैं। जो घरों में रहकर घरेलू काम करने के साथ-साथ बीड़ी श्रमिक की पहचान भी रखती हैं। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में 49.82 पंजीकृत बीड़ी श्रमिक है जिनमें से 36.25 लाख महिलाएं हैं। वहीं इससे अलग बड़ी संख्या में बिना किसी रजिस्ट्रेशन के महिलाएं बीड़ी व्यवसाय से जुड़ी हुई हैं।
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“बीड़ी बनाने से मुझे कोई लाभ नहीं मिला है”
कुसुम देवी धीमी-आवाज़ में बात करते हुए बताती बताती है, “तब से बीड़ी बनाने का काम करने लगी हूं कोई लाभ नहीं मिला है। आज से 20-25 साल पहले एक कार्ड बना था तब तो इसके कई फायदे बताए गए थे लेकिन मुझे कोई लाभ नहीं मिला है। पति मजदूरी करते थे तो मैंने घर पर रहकर काम करना शुरू कर दिया। उम्र इसमें निकल गई, अब शरीर में नसों की बीमारी भी लग गई है लेकिन यही एक काम आता है तो यही कर रही हूं।”
बीड़ी श्रमिक कार्ड क्या है?
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़ बीड़ी और सिगार वर्कर्स (कंडीशन ऑफ इम्पलॉयमेंट) ऐक्ट, 1966 श्रमिकों की सेवा की शर्तों को विनियमित करता है। कानून के मुताबिक़ बीड़ी श्रमिकों को पहचान पत्र जारी करने की जिम्मेदारी बीड़ी क्षेत्र के नियोक्ताओं की है लेकिन नियोक्ता इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं करते है। इससे अलग श्रम मंत्रालय के तहत श्रम कल्याण संगठन, कल्याण आयोग के माध्यम से बीड़ी श्रमिकों के कार्ड जारी करता है। केंद्र सरकार ने बीड़ी वर्कर्स वेलफेयर फंड एक्ट 1976 के अनुसार सभी बीड़ी श्रमिक की पहचान और उसके अधिकारों के लिए योजनाएं लागू की थी।
भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के तहत बीड़ी कामगार कल्याण संगठन के द्वारा जारी इन कार्ड का उद्देश्य बीड़ी श्रमिकों की पहचान करना है। बीड़ी श्रमिकों की बीड़ी औषधालय एवं चिकित्सकों में निःशुल्क चिकित्सा, क्षय रोग यानी टीबी और कैंसर से ग्रसित बीड़ी श्रमिकों को उपचार व्यय तथा मासिक निर्वाह भत्ते। प्रसूति लाभ, चश्मा हेतु सहायता, परिवार कल्याण लाभ अपनाने पर आर्थिक लाभ। बीड़ी श्रमिकों के लिए सामूहिक बीमा योजना जैसे अनेक लाभों का अधिकार देता है।
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले के कारी गाँव के भी बहुत से घरों में महिलाएं बीड़ी बनाने का काम कर रही हैं। जिन बीड़ी वर्कर्स के साथ हमने बातचीत की उनके मुताबिक़ गाँव में लगभग 40-50 घरों की महिलाएं बीड़ी बनाने के काम में लगी हुई हैं। स्कूल जाने वाली छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाएं तक यहां घर के आंगन या चबूतरे पर बीड़ी बनाती आसानी से दिख जाती हैं।
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“तंबाकू की गंध से सिर घूमता है”
कारी गाँव की रहने वाली शमीना को भी याद नहीं है कि वह किस उम्र से बीड़ी बना रही है। निम्न आय वाले परिवार से ताल्लुक रखने वाली शमीना के अलावा घर में उनकी बेटी भी उनके साथ बीड़ी बनाने का काम करती है। वह कहती है कि इस गाँव में अधिकतर घरों में महिलाएं घर पर रहकर यही काम कर रही हैं। मेहनत बहुत है लेकिन कुछ न होने में कुछ मिल रहा है इस वजह से काम में लगे रहते हैं। अपने घर के बाहर चबूतरे पर दिसंबर में निकली हल्की धूप में बनी हुई बीड़ी के बंडल बनाती शमीना कहती है, “बहुत आसान काम नहीं है गरीबी है तो काम करना भी ज़रूरी है। यहां गाँव में रहकर बीड़ी बनाने का विकल्प बचता है तो इस काम को कर रहे हैं। अगर यहां पर कोई और काम का विकल्प होता तो मैं तो कब से इस काम को बंद कर देती। हमारे इस काम से घर में बहुत सहारा लगता है।”
वह आगे कहती है, “रोज की पांच सौ बीड़ी बना ले तब जाकर महीने का दो-तीन हजार रूपया पड़ता है। ये तो हम जानते हैं तंबाकू कुछ फायदे वाली चीज़ नहीं है। हम कभी तंबाकू, गुटका कुछ भी खाना नहीं जानते हैं लेकिन इस काम में लगे हुए है। तंबाकू की गंध से सिर दुखता है, जी मिचलाता है। लगातार बैठे रहने से गैस बनती है, जोड़ों में दर्द रहने लगा है। कमर झुक गई है। डर भी लगता है कि कई तंबाकू से कुछ हो न जाए लेकिन फिर कोई और ज़रिया नहीं दिखता तो इसी काम में लग जाती हूं।”
“कैंसर का इलाज खुद कराया कभी बीड़ी श्रमिक की पहचान नहीं मिली”
गाँव में ही रहने वाली फहमीदा एक ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर हैं। वह कहती है कि तब से होश संभाली है यही काम कर रहे हैं। बीड़ी बनाकर ही बच्चें पाले है, बच्चियों की शादी की है पूरी उम्र इसी में गुज़ार दी है। बीड़ी बनाने के बारे में बताते हुए कहती है, “हमने चवन्नी-अठ्ठनी से काम करना शुरू किया था, आँखें खराब कर ली है लेकिन कही कुछ लाभ नहीं मिला है। कैंसर का इलाज भी बच्चों ने कराया है। लोगों से सुना है कि बीड़ी बनाने वाले श्रमिकों को बहुत लाभ मिलता है, मकान मिलता है, बीमा होता है पर हमें एक भी लाभ नहीं मिला है। बीड़ी बनाकर हमारा शरीर खराब हो गया है, पूरी उम्र इसमें लगा दी है।”
टीकमगढ़ जिले के कारी गाँव में बीड़ी बनाने का काम करने वाली लगभग 20 महिलाओं से हमने बातचीत की हैं और उनमें से किसी का भी बीड़ी श्रमिक कार्ड नहीं बना हुआ है। गाँव में 80 साल की बुजुर्ग महिलाएं भी बीड़ी बनाने का काम करती हैं लेकिन आज तक उन्हें बीड़ी श्रमिक होने तक की कोई आधिकारिक पहचान नहीं मिली है किसी योजना का लाभ तो बहुत दूर की बात है। गाँव में अधिकतर बीड़ी बनाने वाली महिलाओं को मालूम है कि बीड़ी बनाने वालों के लिए कार्ड बनते है और योजनाएं हैं लेकिन उनतक इन महिलाओं की कोई पहुंच नहीं हैं।
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“गाँव की दुल्हन है इसलिए ज्यादा बोल नहीं सकते”
इस पर कारी गाँव ही बीड़ी श्रमिक रूबीना कहती है, “ठेकेदार अपनी मनमानी करता है। तंबाकू उसका है लेकिन मेहनत तो हमारी है। हम इस गाँव की दुल्हन है तो ज्यादा बोल भी नहीं पाते हैं। ये हमारा काम है और परिवार के मर्दों का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। औरतें काम कर रही हैं, ना कोई यूनियन है और नही हमारे से कोई नेतागिरी आती है इसलिए चुपचाप मन मारते हुए काम में लगे रहते हैं। बात यह भी है अगर हम काम करना छोड़ देगें तो वे किसी और से कम दामों में काम करा लेते है तो हम बस इस वजह से बिना किसी उम्मीद के काम में लगे रहते हैं। ”
रूबीना आगे कहती है, “सुबह से शाम तक घर के काम और बीड़ी बनाने में 13-14 घंटे बीत जाते हैं। बीड़ी बनाकर घर में दो पैसा तो आ जाता है लेकिन सेहत का बहुत नुकसान होता है। मेरे सिर के आधे हिस्से में लगातार दर्द रहने लगा है। हाथों की उंगलियों में गांठे पड़ गई है। पिछले साल जब बहुत ज्यादा परेशानी रहने लगी तो फिर कई महीने लगातार दर्द की दवाई खाकर काम किया। बीच में कुछ दिन काम भी छोड़ दिया था उसके बाद फिर से बीड़ी बनानी शुरू कर दी। हम बहुत मेहनत करते हैं लेकिन हमारी मेहनत के हिसाब से हमें मजदूरी नहीं मिलती है। कई बार बहुत कुछ सुना है कि बहुत सारे बीड़ी वर्कर्स हैं लेकिन उनके लिए कोई सरकार कुछ करे कितना अच्छा होगा।”
टीकमगढ़ विधानसभा से नवर्निवाचित विधायक यादवेंद्र सिंह से इस विषय पर बात की तो उनका कहना है, “लंबे समय से हमारी राज्य में सरकार नहीं रही है। यहां टीकमगढ़ के बीड़ी श्रमिकों के लिए वैसे सागर में चिकित्सक सुविधाएं है। बीड़ी श्रमिकों के कल्याण के लिए बहुत सी योजनाएं भी है। उन्हें पक्का घर मिल सकें इसके लिए जगह है लेकिन हमेशा इनके आवेदन कागज बनकर ही रह जाते है। अब यह मामला संज्ञान में आया है तो हम अपनी विधानसभा में आने वाले ऐसे श्रमिकों के बारे में सोचेंगे। गाँव में महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके कार्ड के लिए आगे बात करके जल्दी ही इस पर कुछ ठोस कदम उठाएंगे।”
“मजबूरी में यह भी एक लत लग गई है”
निवाड़ी जिले के पृथ्वीपुर ब्लॉक की रेखा देवी कोरी समुदाय से तालुल्क रखती हैं। वह अपनी शादी के बाद से ही बीड़ी बना रही हैं। घर में उनकी सास खरगी कोरी भी यही काम करती हैं। दोनों मिलकर दिन की लगभग 1000-1200 बीड़ी बना लेती है। फिर महीने की कमाई पांच-छह हजार बैठती है। साथ ही उन्होंने घर में प्रोविजन स्टोर भी खोल रखा है जिसे दोनों सास-बहू मिलकर चलाती है। रेखा देवी कहती है, “घर चलाना है तो कुछ तो काम करना ही था तो बीड़ी बनाने से ही शुरुआत कर दी थी। मजबूरी में यह भी एक लत लग गई है कि दो पैसा आ जाता है। तंबाकू की गंध बहुत बुरी तरह सिर में चढ़ती है। गर्मियों में सिर में दर्द, जी मिचलना बहुत होता है।”
आगे रेखा देवी कहती है हम अपनी उम्र लगातार बीड़ी बनाने में खपाते जा रहे हैं। अपना ख्याल रखने का भी वक्त नहीं मिलता है। घर का काम खत्म करते ही बीड़ी के काम में लग जाते है हालांकि कही कुछ बेहतर हो जाए इसकी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती है। ठेकेदार हमारे साथ बेमानी करता है। खराब माल बताकर बीड़ी छांट देता है लेकिन छांटी हुई बीड़ियां भी ठेकेदार ले लेता है और कोई पैसा नहीं देता है। हमसे 1300 बीड़ी लेता है लेकिन पैसा हजार का मिलता है। ठेकेदार की हर तरह से मनमानी चलती है कुछ कहते है तो बोलता है कि काम नहीं करना है तो मत करो लेकिन ज्यादा बात मत बनाओ। फिर हम बस चुप रहकर लगे रहते हैं और सभी के साथ यह समस्या है।”
बैठने-उठने में तकलीफ, नज़र कम होना, शरीर में दर्द, सांस फूलना जैसी अनेक समस्याओं का सामना करते हुए महिलाएं बीड़ी श्रमिक अपने काम में लगी रहती हैं। उनके स्वास्थ्य पर उनके काम के असर से वे परिचित है लेकिन विकल्प का अभाव उन्हें इससे आगे सोचने नहीं देता है। इतना ही नहीं उनमें टीबी जांच कराने को लेकर एक डर भी रहता है। पृथ्वीपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्वास्थ्य सेवाओं और इलाज के दौरान क्या वहां पर इस बात के बारे में जांच करते है कि मरीज बीड़ी बनाने से जुड़ा जैसा कोई काम करता है या नहीं तो अस्पताल में ड्यूटी पर तैनात नर्गिंस स्टॉफ ने बताया कि हम इलाज के दौरान इस तरह की किसी पहचान के बारे में कोई जांच नहीं करते हैं। गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी या गर्भावस्था के दौरान भी हम जिस तरह सबका इलाज करते हैं उसी तरह काम करते हैं। यहां पर वैसे अस्पताल में किसी गायनेकोलॉजिस्ट की तैनाती नहीं है नार्मल डिलीवरी का काम होता है और वह उस वक्त ड्यूटी पर होने वाला नर्सिंग स्टॉफ ही करता है।
बीड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाली महिलाएं बहुत ही कड़ी शारीरिक मेहनत से काम करती आ रही हैं लेकिन बदले में उन्हें कम मजदूरी मिलती है, स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच नहीं हैं। सरकार द्वारा जारी कार्ड कई तरह के लाभ देने का वादा करता है लेकिन बीड़ी बांधने का काम करने वाली हर महिला के पास न तो कार्ड है और न कल्याणकारी योजनाओं तक उनकी पहुंच है।
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स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर केवल खाली इमारत
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ और निवाड़ी जिले काम करने वाली महिला श्रमिकों के पास बड़ी संख्या में एक तरफ तो उनकी पहचान के लिए कार्ड नहीं बने हुए है दूसरी तरफ जिन लोगों के पास कार्ड है भी तो स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए बना बीड़ी औषधालय निकट नहीं है या फिर उसमें सालों से डॉक्टर तक नहीं है। निवाड़ी जिले के पृथ्वीपुर ब्लॉक में स्थित बीड़ी श्रमिक अस्पताल तो है लेकिन वहां सुविधाओं के नाम पर केवल एक किराये की इमारत है।
पृथ्वीपुर में स्थित बीड़ी श्रमिक अस्पताल में ही सुविधाओं का इतना अभाव है कि वहां सालों से कोई मेडिकल ऑफिसर नियुक्त नहीं किया गया है। वहां डीसीए के पद पर नियुक्त बद्री प्रसाद यादव ने बातचीत के दौरान बताया कि यह अस्पताल रोज खुलता है लेकिन तीन दिन हमारी ड्यूटी दतिया में रहती है और तीन दिन यहां पृथ्वीपुर ब्लॉक में रहती है। इस समय हमारे यहां पर स्टॉफ नहीं है। हमारी छह महीने पहले यहांं पोस्टिंग हुई है तब से यहां कोई मेडिकल ऑफिसर नहीं है। अस्पताल में स्टॉफ नहीं है इस वजह से इस अस्पताल में कोई नहीं आता है।
अस्पताल में किस तरह के बीमारियों का इलाज होता है इस सवाल का जवाब देते हुए बद्री प्रसाद कहते है, “यहां पर सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार, टीबी का इलाज मुख्यतौर पर होता है। यहां पर कोई सुविधा नहीं है तो लोग स्वास्थ्य विभाग में ही चले जाते हैं। सालों से यहां डॉक्टर की पोस्टिंग नहीं है तो यहां पर आंखों की सुविधा के लिए भी कोई कैंप नहीं लग रहा है।” अस्पताल में अन्य सुविधाओं के बारे में बोलते हुए वह कहते है, “यह एक प्राइवेट भवन लिया गया है, किराया इसका दिया जाता है लेकिन अब मालिक इसको खाली करवा रहे है तो अब दूसरी जगह शिफ्ट होने की प्रक्रिया भी चल रही है। जैसे ही हेड ऑफिस जबलपुर से आदेश आएगा उसके बाद प्रकिया आगे बढ़ेगी। अभी फिलहाल मकान मालिक ने बिजली का कनेक्शन भी काट दिया है। इस प्रक्रिया में लिखा-पढ़ी चल रही है।”
बीड़ी श्रमिक औषधालय की खस्ता हालात, डॉक्टर की कमी की बात सामने आने पर पृथ्वीपुर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के टी.बी. यूनिट में सीनियर ट्रीटमेंट सुपरवाइजर के पद पर तैनात अनादि पांडे ने बातचीत के दौरान बताया कि बीड़ी श्रमिकों के लिए वैसे यह एरिया फिट नहीं है लेकिन जो लोग जांच के लिए आते होंगे तो वे नहीं लिखवाते कि बीड़ी बनाने का काम करते हैं। हमारे यहां हर महीने जांच में 15 से 20 मरीज होते हैं।
अस्पताल में जांच के लिए आने वाले क्या हर व्यक्ति का बैकग्राउंड चैक किया जाता है कि वह क्या काम करता है इसके बारे में अनादि पांडे कहते है, “लैब में ही कायदे में यह जानकारी जुटानी चाहिए। हमारे पास तो मरीज नॉटिफाई होकर आता है और जब इलाज करते है तो काउंसलिंग करते समय हम हर बैकग्राउंड पर नज़र रखते हैं लेकिन यहां शुरुआत में ऐसी काउंसलिंग नहीं होती है।” क्या केवल तंबाकू के सेवन करे बगैर उसके संपर्क में रहने से ही स्वास्थ्य पर असर पड़ता है इस पर पांडे कहते है, “हां बिल्कुल इसका सीधा असर स्वास्थ्य पर पड़ता है। अगर हम देखे तो सबसे ज्यादा टी.बी. का इन्फेक्शन इन्हीं लोगों पर होता है और यह हमने देखा भी है कि हमारे यहां वॉर्ड-5 में बीड़ी बनाने का काम बहुत होता है और शराब भी बनाई जाती है और इस वॉर्ड में सबसे ज्यादा मरीज मिलते हैं। जो लोग काम करते हैं अगर वे सेवन भी न करते हो लेकिन उनमें से भी लोग संक्रमित होते हैं।”
बीड़ी श्रमिकों के स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं को लेकर क्या रवैया है वह जन- प्रतिनिधि, सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर अलग-अलग स्वास्थ्य कर्मचारियों के बयानों से साफ होता है। तमाम परेशानियों का सामना करते हुए बीड़ी व्यवसाय से जुड़े मजदूरों के परिदृश्य से चीज़ें देखने तक को नहीं मिलती है। आजीविका के अन्य साधनों तक पहुंच की कमी, ठेकेदारों की मनमानी के बावजूद हजारों-लाखों बीड़ी श्रमिक न मन होते हुए भी इस व्यवसाय में काम करने के लिए मजबूर हैं।
स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ एम्स जोधपुर की बीड़ी ट्रेड आधारित रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2021-22 के आंकड़ों के मुताबिक़ मध्यप्रदेश में कुल रजिस्ट्रर्ड बीड़ी श्रमिक 4,40,556 हैं। बीड़ी उद्योग के श्रमिकों के लिए न्यूनतम दैनिक मजदूरी 350.96 से 486.92 रूपये तक है। सरकार हो या उद्योग किसी को इन महिला बीड़ी मजदूरों की कोई परवाह नज़र नहीं आती हैं। घर की चारदीवारों में रहकर काम करने वाली इन महिला मजदूरों के पास न तो पहचान है और ना ही वाजिब मेहनताना बावजूद इसके मध्यप्रदेश की ये महिला बीड़ी मजदूर मेहनत करने से पीछे नहीं हटती हैं। सेहत की परवाह न कर गरीब क्षेत्र और हाशिये के समुदाय से आने वाली ये महिलाएं कहती है, “यह तिनके का सहारा मुश्किल जीवन में काम आता है।”
खबर लहरिया रूरल मीडिया फेलो पूजा राठी व
खबर लहरिया की रिपोर्टर नाज़नी रिज़वी की तस्वीर।
चंबल मीडिया द्वारा प्रस्तुत चंबल मीडिया रूरल रिपोर्टिंग
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