खबर लहरिया Blog साड़ी पहनी हुई ग्रामीण महिला भी पत्रकार है – World Press Freedom Day

साड़ी पहनी हुई ग्रामीण महिला भी पत्रकार है – World Press Freedom Day

अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्‍वतंत्रता दिवस : खबर लहरिया एक ग्रामीण महिला पत्रकार की कहानी आपके साथ सांझा कर रही है जिसमें महिला पत्रकारों से जुड़ी विचारधारा, संघर्ष और चुनौतियों की बात की गयी है।


रिपोर्ट व लेखन – संध्या 

अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्‍वतंत्रता दिवस हर साल 3 मई को मनाया जाता है और पत्रकारों की आज़ादी की बात करता है। इसी कड़ी में खबर लहरिया एक ग्रामीण महिला पत्रकार की कहानी आपके साथ सांझा कर रही है जिसमें महिला पत्रकारों से जुड़ी विचारधारा, संघर्ष और चुनौतियों की बात की गयी है।

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साड़ी पहनी ग्रामीण महिला पत्रकार होना कैसा होता है

एक महिला, एक साड़ी पहनी महिला पत्रकार नहीं हो सकती। प्रशासन में और गाँव स्तर पर लोग महिला पत्रकार को देखकर कहते,‘महिला होकर पत्रकार है। एक तो साड़ी में आ रही है।’ इतना सुनकर सुशीला कहती, ‘अंदर से कभी-कभी अजीब लगता था कि अरे! लोग मान ही नहीं रहें हैं।’

लेकिन सुशीला जैसी आज कई महिला पत्रकारों ने इस विचारधारा को तोड़ा है कि पत्रकारिता कोई वेश-भूषा नहीं होती। किसी ने साड़ी पहनी हो, वो महिला हो या दलित हो या फिर किसी ग्रामीण क्षेत्र से आती हो, वह सभी पत्रकार हैं जिसके लिए उन्हें समाज की मंज़ूरी की ज़रुरत नहीं है।

सुशीला पिछले 10 सालों से खबर लहरिया में रिपोर्टर हैं। वह अपने जिले वाराणसी (यूपी)से रिपोर्टिंग करती हैं।

आगे कहतीं, “प्रशासन यह भी कहता कि अरे! आप लोग तो बड़ी अच्छी-अच्छी खबरें ढूंढ़ लेते होंगे। आप लोगों को कोई पहचानता नहीं होगा। आप लोगों को सोचता होगा कि आम जनता है।”

शुरुआत में हमेशा से एक महिला पत्रकार होने के नाते सुशीला को यह सुनना पड़ता। महिला पत्रकार होने की चुनौतियों के साथ-साथ वह लोगों के रूढ़िवादी विचारधाराओं से भी लड़ रही थीं जो यह कह रही थीं कि एक महिला, एक साड़ी पहनी महिला पत्रकार नहीं हो सकती। वह भी सिर्फ इसलिए क्यूंकि वह आम जनता से अलग नहीं दिख रही। क्या आम लोगों से अलग दिखना किसी को पत्रकार बनाता है?

सुशीला से बात करने के दौरान मुझे ऐसा लगा कि सबकी तरह दिखना, अलग दिखने से ज़्यादा बेहतर था क्यूंकि यह बात तो जग ज़ाहिर है कि जो खुद से मेल खाता है व्यक्ति उसी से बात करता है। पत्रकारिता में अगर आप सामने वाले से जुड़ ही नहीं पा रहे तो उनकी समस्याओं को बेहतर तौर पर समझ कर कैसे पेश कर पाएंगे? आम होना कला है जो सबको नहीं आती।

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पहचान बनाने के जज़्बे ने दिया पत्रकारिता का रास्ता

सुशीला बतातीं, ‘बचपन से मेरा सपना था कि मैं बाहर घूमूं। प्रशासन के बीच रहूं। मैं एक ऐसा काम ढूंढ़ रहीं थी कि मैं प्रशासन के बीच रहूं। मुझे अपनी एक पहचान बनानी थी कि लोग मुझे भी जानें।’

14 साल की उम्र में सुशीला की शादी हो गयी। उस समय वह सातवीं क्लास में पढ़ रहीं थीं। वह यह सोचतीं कि अगर वह भी थोड़ा और पढ़ लेतीं तो दूसरों की तरह वह भी अलग-अलग जगहों पर जाती। शादी के बाद सुशीला के तीन बच्चे हुए लेकिन वह अपने सपने को नहीं भूली थी।

ससुराल वालों और पति के सहयोग से सुशीला ने ससुराल में रहते हुए अपने इंटर और बी.ए की पढ़ाई पूरी की।

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पत्रकारिता की तरफ पहला कदम

साल 2012 में उन्हें गांव के किसी समूह के ज़रिये खबर लहरिया के बारे में पता चला। वहां इंटरव्यू दिया। यह डर भी लग रहा था कि पता नहीं उन्हें कोई सेलेक्ट करेगा या नहीं। सेलेक्ट होने की ख़ुशी आज भी सुशीला की बातों में झलक रही थी। कहतीं, “मैं बाहर जाउंगी तो गांव और शहर देखूंगी। पहले मुझे पुलिस प्रशासन से बहुत डर लगता था। मैं दूर से ही देखकर पीछे हट जाती थी। अब मुझे डर नहीं लगता। अब मैं सोचती हूँ कि मैं उन लोगों के बीच रहूं।”

यह उनका जज़्बा ही था जिसनें उन्हें पत्रकारिता का क्षेत्र चुनने और डर पर काबू पाने की हिम्मत दी।

पत्रकारिता में नहीं है आज़ादी

प्रेस की आज़ादी को लेकर सुशीला कहतीं, “पत्रकारिता में अभी उस तरह आज़ादी नहीं मिली। मुझे ऐसा महसूस होता है। ऐसा इसलिए क्यूंकि कभी-कभी जब में गांव से खबर करके आती हूँ तो मुझे फोन आ जाता है, मैडम! यह खबर मत लगाइएगा। आप भी फिल्ड में रहती हैं।”

मानों यह कहकर उन्हें एक तरह से धमकाया जा रहा हो कि अगर खबर आगे गयी तो उनके साथ कुछ भी हो सकता है।

आगे कहा, एक बार जब जनसभा में प्रधानमंत्री आये थे तो वह उनकी फोटो खींच कर रही थी। वहां प्रशासन उन्हें फोटो खींचने के लिए भी मना कर रही थी। जब तक प्रधानमंत्री नहीं गए तब तक उनके साथ सभी पत्रकारों को बंद करके रखा गया तो क्या इसे प्रेस की आज़ादी कहा जा सकता है?

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परिवार का साथ

सुशीला को पत्रकारिता में कदम रखने और आगे बढ़ने में परिवार के साथ उनके पति का सबसे ज़्यादा सहयोग मिला। उनकी सास थोड़ी सख़्त थीं। वह चाहती थीं कि वह बाहर न जाए। अगर वह सुबह ही निकल जायेगी तो घर का काम कौन करेगा।

कभी रिपोर्टिंगे के दौरान उन्हें देरी हो जाती और अगर आस-पास के लोग कुछ कहते भी तो इसके जवाब में वह कहतीं, ‘ मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’ इन सब चीज़ों के साथ सुशीला आगे बढ़ती रही।

चुनौती

जब भी वह फील्ड पर निकलती हैं तो कई बार स्टोरी से जुड़े मामले पर बात करने के लिए प्रधान नहीं मिलते। कहतीं, “तीन से चार चक्कर लगाने पड़ते हैं। जब प्रधान से बात हो जाती है तो ख़ुशी मिलती है कि हाँ अब मेरी खबर पूरी हो जायेगी।”

प्रिंट के समय में वह अखबरों को लोगों के घर -घर पहुंचाकर आती थीं। जब सब डिजिटल हो गया और लोग सुशीला पहचानने लगे तो लोग कई बार फोन करके पूछते भी कि मैडम! मेरी खबर नहीं लगी। लगा दीजिये।

2014 में जब वाराणसी जिले में रिपोर्टिंग बंद की गयी तो सुशीला को भी कुछ देर के लिए पत्रकारिता छोड़नी पड़ी। जब 2018 में खबर लहरिया ने फिर से वाराणसी में आगमन किया तो सुशीला भी तुरंत पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बार फिर से उतर आयीं।

परिवार और काम

सुशीला को सबसे ज़्यादा करंट यानि तत्काल खबरें करना बहुत अच्छा लगता है। रिपोर्टिंग के लिए जाना हो तो सुबह 3 : 30 या 4 बजे उठना। घर का सारा काम समेटना और फिर उसके बाद फील्ड के लिए निकलना। अब फील्ड से घर कब लौटना है इसका कोई समय नहीं होता। कभी 7 तो कभी रात के 9 बज जाते हैं। घर वालों को पता है कि काम है इसलिए वह कुछ नहीं कहते।

अब सुशीला को सब पहचानते हैं। अब वह पुलिस को देखकर अपने कदम पीछे नहीं करती। अब वह हर गाँव और शहर में रिपोर्टिंग करके अपने सपने को जी रहीं हैं। वह महिला पत्रकार से जुड़ी सभी रूढ़िवादी विचारधारों को तोड़ते हुए पत्रकारिता कर रही हैं।

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