हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारू पीकर घर आते,
मैंने देखा था
माँ की आँखों में डर से भरी उदासी
जब बिना बात के, मां को पीटते
तब तक, जब तक माँ बेहोश न हो जाती
मार खाकर भी माँ पापा के पैर दबाती
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
मैंने थाली में दाल की जगह आंसू को लेते देखा
पापा के दारु पीकर आने पर भी
माँ को उन्हें खाना खिलाते देखा,
पापा की आँखों में नफरत
माँ की आँखों में डर था
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
आधी रात जब पापा अपने दोस्तों को ले आते
और माँ को उठाते
तो माँ भी परेशान होकर सोचती
कि सब छोड़ कहीं भाग जाऊं ,
दर्द में कभी मामा को फोन करती
तो मामा भी कह देते
पति-बच्चों के लिए इतना तो सहना ही पड़ता है।
माँ चुपके-चुपके रोती
हमारी चिंता में आहें भरती
पापा को तो हमारी फ़िक्र तक न सताती,
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
पापा की दारु की लत ऐसी
कि घर का सामान बिक जाता,
माँ चावल में नमक मिलाकर खाती
फटा ब्लॉउज़ और साड़ी पहनती
माँ के इंकार करने पर
पापा का चिढ़ जाना
माँ को बालों से घसीटना
मेरा डर से करीब न जा पाना
बचपन में लाचारी का होना,
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
माँ का बचपन
बिन माँ के बीता
यह सोच माँ हमें
कभी छोड़ के न गयी।
समाज के ताने सुने
घुट-घुट के जीया
माँ को हमेशा कहा गया
औरत के लिए पति भगवान है
माँ आज पापा के खिलाफ उठना तो चाहती हैं
पर समाज की बेड़ियाँ
आज भी उन्हें घेरे हुए हैं
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
अब नहीं लिखी जाती
बीते बचपन की बातें
आंसू के कागज़, रेत सी बातें।
हर वो शाम खौफ़नाक थी
जब पापा दारु पीकर घर आते।
कवयित्री – संध्या
( यह कहानी छत्तीसगढ़ से गायत्री द्वारा खबर लहरिया के लिए रिपोर्ट की गयी है।)
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