वक़्फ़ बोर्ड संशोधन विधेयक 2025 जिसे कम शब्दों में ‘उम्मीद’ नाम दिया गया है। वर्तमान समय में केवल एक कानूनी मसौदा नहीं रह गया है। यह एक व्यापक बहस का विषय बन गया है जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकार, सामाजिक न्याय और राजनीति की, गहराई से परख की जा रही है। मतलब कि ये अब बड़ी बहस बन गई है जहां बात सिर्फ धर्म की नहीं बल्कि मुसलमानों के हक, इंसाफ और सियासत की चालबाज़ी तक जा पहुंची है।
सरकार की मंशा बताई जा रही है कि इस कानून के ज़रिए वक़्फ़ संपत्तियों का प्रबंधन अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनेगा परंतु विधेयक का जो प्रारूप सामने आया है उसने एक बड़े समुदाय के मन में असमंजस और असुरक्षा की भावना भर दी है, खासकर मुस्लिम समुदाय में, जिनकी धार्मिक और सामाजिक पहचान इन संपत्तियों से जुड़ी हुई है।
आइए बहुत कम शब्दों में समझते हैं कि वक़्फ़ क्या है? वक़्फ़ इस्लामी परंपरा में एक परोपकारी संकल्प है जिसके अंतर्गत कोई मुसलमान अपनी संपत्ति को सामाजिक कार्यों के लिए दान कर देता है। यह संपत्ति फिर न बेची जा सकती है और न ही खरीदी जा सकती है। भारत में इसकी कानूनी संरचना ‘वक़्फ़ अधिनियम 1995’ के अंतर्गत स्थापित है जो वक़्फ़ बोर्ड को इसके प्रबंधन का जिम्मेदार बनाता है।
संशोधन विधेयक में वक़्फ़ बोर्ड को संपत्तियों को वक़्फ़ घोषित करने के लिए व्यापक अधिकार दिए गए हैं। चिंता इस बात की है कि यदि किसी की निजी ज़मीन को वक़्फ़ घोषित कर दिया गया तो प्रभावित व्यक्ति कोर्ट नहीं जा सकेगा जब तक बोर्ड अनुमति न दे। यह व्यवस्था न केवल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है बल्कि निजी संपत्ति के अधिकार पर भी ठेस पहुंचाता है।
16 और 17 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई ने इस बहस को और तेज़ कर दिया। याचिकाकर्ताओं ने सवाल उठाया कि क्या किसी बोर्ड को बिना सीमा तय किए, बिना नोटिस और बिना सार्वजनिक सुनवाई के किसी की ज़मीन पर अधिकार जताने की छूट दी जा सकती है?
यह सवाल केवल मुस्लिम समुदाय की संपत्तियों तक सीमित नहीं है। यदि यह विधेयक लागू होता है तो अन्य समुदायों की ज़मीनें भी इस प्रक्रिया का संभावित शिकार बन सकती हैं। यह निस्संदेह हर नागरिक के लिए चिंता का विषय है।
यह भी उचित प्रश्न है कि इस तरह की सख्ती केवल वक़्फ़ बोर्ड तक ही क्यों सीमित है? देश में मंदिर ट्रस्ट, चर्च मिशन, गुरुद्वारा प्रबंधक समितियां और अन्य धार्मिक संस्थाएं भी हैं जिनके पास भी व्यापक भूमि संपत्तियां हैं। क्या कभी उनके मामलों में ऐसा सरकारी दखल हुआ है? यदि नहीं तो यह भेदभाव क्यों?
यदि सरकार समानता के सिद्धांत पर काम कर रही है तो यह समानता केवल वक़्फ़ तक सीमित क्यों होनी चाहिए? हर जाति-मजहब के लोगों को अपनी आस्था मानने और अपने मंदिर-मस्जिद चलाने का हक बराबरी से मिलना चाहिए।
हिसार में एक भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 14 अप्रैल को दिए गए बयान जिसमें उन्होंने कहा कि यदि वक़्फ़ ज़मीनों का सही उपयोग होता तो मुस्लिम युवाओं को ‘साइकिल के पंचर’ नहीं जोड़ने पड़ते। इस बयान ने वक्फ़ विवाद को और गहरा कर दिया है। ऐसे बयान समस्या के समाधान की ओर नहीं बल्कि एक वर्ग के भीतर और गहरी हताशा और अविश्वास पैदा करते हैं।
यह सच है कि वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और ईमानदारी की ज़रूरत है लेकिन इसके लिए एकतरफा शक्तियाँ देना, न्यायिक विकल्पों को सीमित करना और किसी समुदाय को कठघरे में खड़ा करना समाधान नहीं हो सकता।
यदि सरकार इस विधेयक को वास्तव में एक सुधार के दस्तावेज़ के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है तो उसमें कुछ बुनियादी सुधार जरूरी हैं:
- वक़्फ़ घोषित करने से पहले स्पष्ट सीमांकन मतलब जमीन की सीमा तय करे बिना, सार्वजनिक नोटिस और सुनवाई अनिवार्य हो।
- हर नागरिक को अदालत में अपील का सीधा अधिकार हो।
- वक़्फ़ बोर्ड में निष्पक्ष और विविध प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए।
- सभी संपत्तियों की जानकारी, नक्शा, आमदनी, किरायेदारों की सूची सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध हो।
- सबसे महत्वपूर्ण, यह नियम सभी धार्मिक ट्रस्टों पर समान रूप से लागू हों।
यह केवल एक कानून नहीं बल्कि देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आत्मा की परीक्षा है। यह देखना होगा कि सरकार वाकई सुधार चाहती है या भूमि और सत्ता के नए समीकरण गढ़ रही है।
हर संपत्ति से बड़ा होता है समाज का भरोसा। यदि सरकार इस भरोसे को ठेस पहुंचाएगी तो न केवल एक समुदाय बल्कि लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी।
इसलिए इस विधेयक पर अंतिम निर्णय लेने से पहले ज़रूरत है संवेदनशीलता, संतुलन और सभी पक्षों की भागीदारी की। यह ज़मीन की नहीं, भरोसे की लड़ाई है और इस भरोसे की रक्षा लोकतंत्र का कर्तव्य है।
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