गांवो-कस्बों से बहने वाली छोटी नदियां अब खुद की प्यास भी नहीं बुझा पातीं। न थाम पातीं हैं दामन आते-जाते राही और मुसाफिरों का। न दे पातीं हैं उनकी थकान को आराम। नहीं कर पातीं कुछ भी क्योंकि वह बच ही नहीं पाई। हो गईं मृत..... लुप्त न जाने ज़मी की धरातल में कहाँ कि लौटेंगी भी या नहीं, कौन जाने?
जिसकी प्यास बुझाने को प्रकृति से उपजी,उसी मानव ने सुखा दी उसकी धारा। कभी नदियों में खनन करने लगा तो कभी विकास ने नाम पर पेड़ों को काट बनाये चेक डैम एक्सप्रेसवे। इंसान ने न सिर्फ लुप्त की धारा बल्कि चुप कर दिया कल-कल करती आवाज़ों को जिसकी धुन को आलिंगन में भरते थे प्रकृति से उपजित हर एक प्राणी।
बुंदेलखंड के बांदा जिले से बहने वाली गढ़वा और गवयन जैसी छोटी नदियों की भी यही कहानी है। वो भी खो चुकी हैं अपना अस्तित्व और अपनी पहचान।
जब बहा करती थीं तो मौज में मिल जाती थी केन जैसी बड़ी नदियों के साथ जो आज खुद कभी-भी अपनी पहचान खो सकती हैं। अब इनके नाम सिर्फ याद में है लेकिन अब ये नदियां अटखेलियों के साथ बहती हुई दिखाई नहीं देती।
फोटो - गीता देवी व शिवदेवी
जिस रास्तों से नदियों ने दम तोड़ खुद को खोया, वो धरातल भी उसके मेल के बिना बंजर हो चुके हैं। छोड़ चुके हैं अपनी पपड़ियां और हो गए हैं जीवनहीन। इनकी दरारों में खाली है न जाने कितनी ही जगहें लेकिन यहां उन्हें भरने कोई नहीं आता जो दे जाए उसे जीवन का संकेत।
कभी इन्हीं पहाड़ों के बीच से निकलती थीं अपने बहाव को मोड़ते हुए छोटी-छोटी नदियां। जहां मन चाहे वहीं निकल पड़ती थी। प्रकृति व मौसम में दुनिया में चल रहे विकास के झूठे कामों ने इतना बदलाव किया कि बाढ़ और सूखे की खबरें हर दिन आने लगीं। कभी मानसून की बारिश में इतनी अनियंत्रित होकर बहने लगती कि सबको खुद में समेट लेती तो कभी मानसून खत्म होने के साथ-साथ खुद को ही खो बैठती।
सिमौनी गांव के रद्दास के लिए आज से 10 पहले गढ़वा नदी गर्मियों में भी नहीं सूखती थी। बारहो महीने नदी गुनगुनाती रहती थी। कभी किसी के लिए उनके दैनिक कामों के लिए पानी देती तो कभी मीत/दोस्त की तरह शादी-विवाह में संगी बन जाती। सौंप देती अपना सब कुछ। किसान बैलगाड़ियों पर कई टंकी पानी बांध ले जाते अपने साथ पर अब न वो नदी है और न उसका साथ। पेड़ों की कटाई और खनन में नदियों के स्त्रोत पूरी तरह बंद हो गए।
त्रिवेणी गांव में गवयन नदी यहां रहने वालों के लिए इटवा,लोहार से होकर त्रिवेणी मोहन पुरवा और गोयरा के पास से निकलते हुए केन नदी में मिल जाती थी। बारिश होती थी तो चार महीने नदी से रास्ता पार करना मुश्किल हो जाता था। अब नदी सूखी पड़ी रहती है। नदी में एक बूँद पानी तक दिखाई नहीं देता। ये बता रहे हैं तस्वीर में दिखाई दे रहे यह ग्रामीण।
छोटे कस्बों-गांवो से बहने वाली छोटी नदियां अब नहीं रहीं। अब इसे कितना भी देखना चाहो, दूर से या पास से, अब वो अपने बनाये रास्तों में भी न दिखाई देंगी। उनके रास्ते अब ऐसे ही इस तस्वीर की तरह है....सुनसान। यहां अब किसी के कल-कल की आवाज़ नहीं आती। शायद वो फिर चली गई प्रकृति में कहीं कि अब वो शायद फिर लौट न पाए बनने को किसी का मीत, किसी की दोस्त और किसी की सब कुछ या कुछ भी नहीं!