ग्रामीण स्तर पर महिलायें सैनिटरी पैड से ज़्यादा कपड़ा इस्तेमाल करना बेहतर मानती है। कई महिलाओं इस बात से भी अंजान हैं कि वह पीरियड्स के दौरान कपड़े की जगह सैनिटरी पैड भी इस्तेमाल कर सकती हैं।
महिलाओं की समस्या देश में चाहें वो सरकार हो या नेता, उनके लिए बस उनकी इच्छा और लालसा को पूरा करने के ज़रिये से ज़्यादा और कुछ नहीं है। पूर्व में जब महिलाओं के मासिक धर्म के बारे में बात होती तो उसमें सिर्फ औरतों की फुसफुसाहट सुनाई देती। कई बार तो यह भी नहीं क्यूंकि मासिक धर्म होना लज्जा की बात है और अगर न हो तो उससे भी ज़्यादा शर्मनाक। जब धीरे-धीरे आधुनिक युग की शुरुआत हुई तो महिलाओं ने समाज की बेड़ियों को तोड़, हर लज्जा के बंधन को तोड़ अपनी समस्याओं को सामने रखना शुरू कर दिया। पहले जब मासिक धर्म होता तो महिलायें कपड़ा, बांस आदि चीज़ों का इस्तेमाल करती। लेकिन आज भी यह चीज़ बदली नहीं है।
यूँ तो इस समय महिलाओं के मासिक धर्म के समय स्वछता के लिए सैनिटरी पैड की शुरुआत की गयी। शहरों में महिलाओं ने इसे अपनाना भी दिया शुरू कर दिया। लेकिन यह सिर्फ वही महिलायें थीं जिनके पास साधन की पहुँच और आमदनी थी। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं का क्या? क्या उन्हें मासिक धर्म के दौरान स्वछता की ज़रूरत नहीं है? अगर सैनिटरी पैड की बात की जाये तो ग्रामीण महिलाओं को इस बारें में भी नहीं पता कि आखिर “ये सैनिटरी पैड क्या होता है।” जिन महिलाओं को थोड़ी बहुत जानकारी है,वो सैनिटरी पैड खरीदने में असमर्थ हैं। यूँ तो सरकार ने कहा था कि वह सरकारी स्कूलों में किशोरियों को मुफ्त सैनिटरी पैड वितरण करेगी। लेकिन अब तो कोरोना महामारी की वजह से स्कूल भी बंद है तो उन्हें किस तरह से सैनिटरी पैड दिया जा रहा है या नहीं दिया जा रहा। ऐसे ही कुछ सवालों को लेकर हमने यूपी के कुछ ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल करने वाली चीज़ों को लेकर रिपोर्टिंग की है।
यूपी का जिला चित्रकूट
चित्रकूट जिले के कर्वी ब्लॉक में रहने वाली रामरती की उम्र 24 साल है। उनके तीन बच्चे हैं। जब हमने उनसे पूछा कि वह मासिक धर्म के दौरान क्या इस्तेमाल करती हैं। क्या उन्हें सैनिटरी पैड के बारे में पता है? वह कहती हैं “मुझे इस्तेमाल करना नहीं आता। अगर मुफ्त भी मिलेगा तो भी कपड़ा ही इस्तेमाल करुँगी। बाज़ार से सूती कपड़ा खरीदकर लाती हूँ। उसे ही 24 से 30 बार धोकर एक साल तक इस्तेमाल करती हूँ।” इन्हें किसी भी आंगनवाड़ी महिला या आशा बहू ने यह नहीं बताया कि उन्हें कपड़े का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
35 साल की रामप्यारी का कहना है कि “मुझे पैड से ज़्यादा कपड़ा फायदेमंद लगता है। इसलिए हम कपड़ा ही इस्तेमाल करते हैं। उसे ही धोते हैं। पैड एक बार इस्तेमाल करके फेंकना होता है। हर महीने सूती कपड़ा कहां से लाएंगे। इसलिए चार-पांच महीने इस्तेमाल करती हूँ। बदबू आने लगती है तो फेंक देते हैं।” कपड़े को वह उस जगह छुपाती हैं जहां किसी की नज़र न जाए। खासतौर से घर के पुरुषों की।
महिलाओं से बात करने के बाद हमें सिर्फ एक ही ऐसी लड़की मिली जिसने कहा कि उसे पैड मिलता है। गर्ल्स इंटर कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की ने बताया कि दो साल से स्कूल बंद है। इसलिए पैड नहीं मिला। पहले मिलता था।
आंगनवाड़ी की नफीसा बेगम का कहना है कि उन्हें कई सालों से पैड बांटने को नहीं दिया गया। जिन्हें शुरू में मासिक धर्म होता है। वह कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। वह आगे कहती हैं कि लॉकडाउन के समय लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं है तो वह पैड कहां से लाएंगी।
नफ़ीसा कहती हैं, “हमारे यहां शर्म इतनी है कि लड़कियां बाप-भाई से कैसे कहेंगी कि उन्हें क्या लाना है। अगर ले भी आये तो क्या बताएंगी, क्या हिसाब देंगी। कुछ बता नहीं सकती। इसलिए वह पुराने कपड़े इस्तेमाल करना ही बेहतर मानती हैं।”
ब्लॉक मऊ में जब हमने महिलाओं से बात की तो उनका कहना था कि जब तक संस्था द्वारा प्रचार-प्रसार होता तो पैड मिलता था। जब से लॉकडाउन लगा है तब से सब बंद है। सैनिटरी पैड का एक पैकेट 31 रूपये से शुरू होता है। लोग आखिर खरीदें भी तो कहां से?
गांव की फूला देवी और कलावती का कहना है कि वह मज़बूरी में कपड़ा इस्तेमाल करती हैं। बार-बार कपड़ा उपयोग करने से खुजली भी होती है। छोटे-छोटे दाने भी निकल आते हैं। बीमारी का डर भी बना रहता है। एक पैकेट खरीदते हैं तो उसमें सात से आठ पैड होते हैं। किसी-किसी के पीरियड्स आठ दिन तक चलते हैं। आखिर में कपड़े का ही उपयोग करना पड़ता है। पहले अखिल भारतीय संस्था गाँव में पैड देने का काम करती थी। लेकिन लॉकडाउन की वजह से वह भी बंद हो गया।
गाँव कोलमजरा की आशा बहू सुनीता सोनी का कहना है कि अस्पताल या आंगवाड़ी की तरफ से कहीं से भी गाँव में पैड बांटने को नहीं मिला है। न ही ऐसा कोई नियम है।
यूपी का जिला महोबा
जिला महोबा ब्लॉक जैतपुर गांव लाडपुर की रहने वाली सावित्री ने कभी भी सैनिटरी पैड का इस्तेमाल नहीं किया है। सावित्री का कहना है कि उन्हें पैड के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आगे होती तो शायद वह दुकान या आंगनवाड़ी से खरीदतीं। वह कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। फिर उसे साबुन से धोकर धूप में सुखाने के बाद फिर से उपयोग करती हैं और उसे लगभग पांच महीने तक इस्तेमाल करती हैं।
सावित्री के लिए पैड खरीदना बहुत महंगा है। वह मज़दूरी करती हैं। एक महीने में पैड के लिए 70 से 80 रूपये लगते हैं। इतने रूपये में वह सोचती है कि इतने पैसों से तो घर का खर्च चल सकता है। इसलिए उन्हें कपड़ा इस्तेमाल करना ही बेहतर लगता है।
18 साल की गिरजा ने बताया कि आज तक उसे कभी भी आंगनवाड़ी की तरफ़ से सैनिटरी पैड नहीं मिला। न ही स्कूल की तरफ से कभी भी दिया गया। न ही इसे लेकर कोई जानकारी दी गयी है। फिर उसकी सहेली से उसे बताया कि कपड़ा इस्तेमाल करना हानिकारक हो सकता है। फिर उसने पैड इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। लेकिन लॉकडाउन में सभी दुकाने बंद होने की वजह से वह पैड नहीं खरीद पायी। जो किराने की दुकान खुली होती है, वहां जाने में संकोच होता है। अगर दुकानवाले से पैड मांगते भी है तो वह कहते हैं कि खत्म हो गया है। कई बार घर के काम खत्म करने में ही 11 बज जाते हैं। बाहर जाकर पैड लाने का समय ही नहीं मिलता।
आंगनवाड़ी की मनोरमा का कहना है कि उन्हें दो सालों से सैनिटरी पैड नहीं मिले। जब हमने उनसे गहराई में बात करने की कोशिश की तो उन्होंने बहाना बनाते हुए फ़ोन काट दिया।
अभी तक हमने जितना भी देखा, उसमें आशा कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी महिलाओं की काफी ज़्यादा लापरवाही देखने को मिली। अगर उन तक सरकार की तरफ से सैनिटरी पैड नहीं पहुँच रहा तो उन्होंने इसे लेकर न तो कुछ किया और न ही किसी अधिकारी से बात की। जबकि ग्रामीण स्तर पर इनका मुख्य काम महिलाओं से जुड़ी समस्याओं पर ही ध्यान देना है। लेकिन यहां पर न तो लड़कियों और महिलाओं को सैनिटरी पैड दिया जा रहा है और न ही मासिक धर्म के दौरान बरतनी वाली स्वछता के बारे में महिलाओं को जागरूक करने का काम किया गया है।
दूसरी समस्या यह दिखाई दी कि कई महिलाओं को सैनिटरी पैड के बारे में ही नहीं पता। जिन्हें पता है वह उसे खरीद नहीं पाती, न ही उन्हें पैड इस्तेमाल करना आता है। उनके लिए कपड़ा इस्तेमाल करना सबसे आसान और सस्ता है क्यूंकि वह उसे लम्बे समय तक उपयोग कर सकती हैं। इसमें ज़्यादा पैसे भी खर्च नहीं होते। साथ ही शर्म की वजह से वह अपने पति या भाई से भी पैड लाने को नहीं कह पाती। यह कहना उनके लिए उनके परिवार के अनुसार लज्जा की बात है।
इसके बाद सरकार किस प्रकार से कह सकती है कि यूपी में सभी महिलाओं और किशोरियों तक सैनिटरी पैड पहुंचाया जा रहा है? जबकि ग्रामीण स्तर पर महिलाओं को न तो पैड के बारे में पता है। न ही पीरियड्स के दौरान बरतने वाली सावधानी की उन्हें कोई जानकारी है। यह किस प्रकार की जागरूकता है जो ग्रामीण स्तर तक नहीं पहुँच रही? जहां महिलाएं आज भी अपनी परेशानियों को लेकर खुलकर नहीं कह पातीं।
इस खबर की रिपोर्टिंग नाज़नी रिज़वी, सुनीता देवी और श्यामकली द्वारा की गयी है।
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