खबर लहरिया Blog UP / Chitrakoot News : रजाई–गद्दे की घटती परंपरा, बदलते दौर में मिटती यादें और महिलाओं का घटता रोजगार

UP / Chitrakoot News : रजाई–गद्दे की घटती परंपरा, बदलते दौर में मिटती यादें और महिलाओं का घटता रोजगार

एक समय था जब सर्दियां आने से महीनों पहले ही गांवों में घर-घर रजाई–गद्दे तैयार करने की हलचल शुरू हो जाती थी। जैसे ही मौसम में हल्की ठंडक महसूस होती, घरों के आंगन में रूई रजाई गद्दों की तैयारी शूरू हो जाती थी। लोग पुरानी रूई को पहले की धूप दिखाते सुखाते फिर घरों में ही थोड़ा पिटते। घरों के आंगन में धूनकने की आवाज़ गूंजने लगती थीं। बच्चों को यह आवाज़ त्योहार जैसी लगती जैसे सर्दियां नहीं, कोई बड़ा पर्व आ रहा हो। बड़े-बुजुर्ग जानते थे कि अब सर्दियों की तैयारियाँ करनी है। 

रजाई की तस्वीर (फोटो साभार : नाज़नी रिज़वी)

रिपोर्टर – नाज़नी रिज़वी, लेखन – सुचित्रा 

यह तैयारी केवल मौसम के लिए नहीं होती थी बल्कि मेहमानों के स्वागत सामाजिक मेलजोल और अपनेपन की मानवता से भरी होती थी। सदियों पुरानी परंपरा सबको दिलों को जोड़ती थी जो कि आज खत्म हो रही है। गांवों में शादियों और किसी भी बड़े कार्यक्रम के समय टेंट हाउस का चलन बहुत कम था। पूरा गांव मिलकर एक-दूसरे की मदद से व्यवस्था करता था। कहीं से चारपाई आती, कहीं से रजाई, कहीं से मोटे गद्दे और बड़े से बड़े कार्यक्रम आसानी से निपट जाते थे। 

रातभर जागकर महिलाएँ रजाइयाँ के कवर सिलतीं और घर के बुजुर्ग बताते थे कि किसके घर कितने मेहमान आने वाले हैं और उन्हें कितनों की व्यवस्था करनी है। रजाई–गद्दे केवल बिस्तर नहीं थे वे परिवार, प्यार और सामुदायिक सहयोग के प्रतीक थे।

रुई का ढेर (फोटो साभार : नाज़नी रिज़वी)

रूई की गर्माहट और महिलाओं का रोजगार

रूई से भरी रजाई–गद्दे की खासियत ही अलग थी। वे जितने भारी होते उतना ही सर्दियों में शरीर को गर्माहट देते थे लेकिन इनकी तैयारी में गांव कस्बों की महिलाओं की मेहनत और रोजगार सबसे अहम हिस्सा होता था – रूई धुनना,  कवर सिलना, रजाई में बराबर-बराबर रूई भरना, डिजाइनदार धागे भरना। इन सबमें कई दिनों की मेहनत लगती थी। ग्रामीण कस्बों, शहरों में यह काम महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण रोजगार का साधन था। साल भर महिलाएं इन्तज़ार करती थी। कहने को यह मौसमी काम था पर इससे कई घरों का खर्च चलता था।

रजाई की सिलाई करती महिला (फोटो साभार: नाज़नी रिज़वी)

बदलते समय ने छिना महिलाओं का रोजगार 

धीरे-धीरे समय ने करवट ली और लोगों की जरूरतें बदलने लगीं। आज बाजार में तरह-तरह के हल्के कंबल, गद्दे, रजाई कवर सेट रेडीमेड मिल जाते हैं। लोगों का कहना है

ये हल्के होते हैं जल्दी धुल जाते हैं, ले जाने-लाने में आसान हैं। शहरों में तो रजाई की जगह पहले ही कंबल ने ले ली थी, अब गावों में भी यह परंपरा तेज़ी से खोती जा रही है। परिणाम स्वरूप रूई की खपत लगातार घट रही है और महिला कारीगरों के हाथों का हुनर धीरे-धीरे बंद हो रहा है। कई ग्रामीण क्षेत्र अभी भी रजाई–गद्दे का इस्तेमाल करते हैं खासकर किसान जो खेतों में सोते हैं। उनके लिए रूई के मोटे गद्दे आरामदायक होते हैं और सर्दी से बचाते हैं। महिलाओं का कहना है कि यह चलन भी धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है क्योंकि नई पीढ़ी हल्के, रंग-बिरंगे और स्टाइलिश कंबलों को ज्यादा पसंद करती है। 

कर्वी के धतुरा चौराहा में 35 साल से रजाई तागने का काम कर रहीं सुंता बताती हैं कि जब उन्होंने यह काम शूरू किया था तब उन्हें दो रूपये रजाई ताग़ने और डेढ़ रूपये गद्दा ताग़ने के मिलते थे फिर भी खर्च निकल आता। दिनभर में चार-पांच से घंटे दो लोग मिलकर ताग़ लेते थे। अब अस्सी रूपये है फिर भी नहीं हो पाता मुश्किल से एक रजाई मिली दो लोगों ने मिलकर धागे भरे, 40-40 रूपये हुए। मंहगाई इतनी ज्यादा है सब्जी भी एक टाइम की 40 रूपए में नहीं होती है। सुंता के साथ ही एक ही रजाई में धागे भरे रहे मुन्ना ने बताया “अब लोग फैशन में हैंलोग रजाई अब पसंद नहीं करते। सबके घर बड़ी-बड़ी कपड़े धोने की मशीन है। कंबल वो लेते हैं, रूई की गर्माहट कंबल में कहाँ है। फिर भी लोग कंबल पसंद करने लगे हैंरूई तो वो नहीं भर सकते उसे मशीन तक ही लेकर आना पड़ेगा। ये भी एक कारण है गांव तक कंबल पहुंच गये हैं फिर भी किसान अभी रजाई भरवाते हैं। उन्हें रजाई की अहमियत पता है जो गर्मी रूई में है वो कंबल में नहीं। थोड़ा बहुत जो काम हमें मिल रहा है वो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की वजह से बचा है वरना रजाई गद्दे का चलन तो खत्म ही हो रहा है।”

रजाई सिलाई का काम करते मुन्ना और सुंता (फोटो साभार : नाज़नी रिजवी)

शन्नो बताती हैं “डबल बेड की रजाई के 220 रूपये और सिंगल के 100 रूपये मिलते हैं। एक एक रजाई के लिए दिनभर इन्तज़ार करना पड़ता है। रजाई ताग़ने के लिए एक रूई धूनकने वाली मशीन चाहिए होती है। मालिक के पास पांच से सात लोग बैठे रहते हैं। इतनी रजाई कभी कभी आती भी नहीं हैं इसलिए कई बार तो काम भी नहीं मिलता। फिर भी लोग बैठे रहते हैं शायद काम मिले। हमारा रोजगार कंबल ने ले लिया। नया दौर है लोग नई-नई चीजें पसंद करते हैं। हो सकता है फिर वो दौर आए घर-घर रजाई होंगी। रूई की खपत भी कम हो गई हजारों में अब रूई ही नहीं दिखती। अलग-अलग क्वालिटी की रूई होती थी। अब छोटे – छोटे बोरे में थोड़ी सी रूई रखी रहती है। हमारे साथ बहुत लोगों का रोजगार कम हुआ है रूई बेचने वालों, मशीन वालों का सबका रोजगार छीन गया। फैशन ही ऐसा क्या है हम बात कर रहे हैं रजाई की लेकिन हम खुद अपने घर में कंबल ओढ़ रहे हैं।”

रजाई का गुजरता दौर हमसे हमारी पुरानी घरेलू संस्कृति छीन रहा है। सामुदायिक सहयोग का जो भाव होता वो खत्म हो रहा है। रूई धुनाई और रजाई-कला का पारंपरिक रोजगार जा रहा है। महिलाओं का रोजगार गया, घर की अपनी बनायी चीज़ों में रहने वाला अपनापन वो प्यार लगाव वो जा रहा है। 

आज भले ही कंबल बाजार में छा रहे हो पर रजाई की वह गर्माहट जो दादी-नानी के हाथों से बनकर उनका प्यार और भरोसे के साथ मिलता था वह किसी भी कंबल में नहीं मिल सकती। 

रूई धुनकने वाली मशीन मालिक के यूसुफ ने बताया “मैं पहले सब्जी बेचने का काम करता था। 4 साल से मैं यह काम करने लगा। मुझे लगा कि काम अच्छा चलेगा क्योंकि बाजारों में काफी भीड़ हुआ करती थी। रजाई गद्दे की धुनाई, तगाई के लिए शूरू के 2 साल तो काम अच्छा चला लेकिन 2 साल से कंबल कितने भरमार है। बाजार में जगह-जगह रोड के किनारे कचहरी के आसपास, तहसील के आसपास, हर जगह कंबल लगे हैं और बहुत ज्यादा महंगे भी नहीं है। लोग झंझट से बचने के लिए सीधे कंबल ही खरीद लेते हैं। लोगों को अच्छा भी लग रहा है। देखने में सुंदर, आकर्षित चलो कम्बल ले लेते हैं। लोगों का रोजगार इन 3 महीने रजाई गद्दों के जरिए चलता था वह अभी 70% खत्म हो चुका है क्योंकि वहां पर रजाई गद्दे की जगह कम्बल ने ले ली है

क्यों इस परंपरा को बचाना जरूरी है

यह सिर्फ इस्तेमाल करने की चीजें नहीं थी। यह हुनर था यह महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाती है और उनका रोजगार देती है। यह भारतीय संस्कृति की दर्शाती हैं उन्हें सहेजती है।

रजाई–गद्दे की परंपरा आज भले ही तेजी से मिट रही हो लेकिन इसे बचाए रखने के लिए कोशिशें जरूरी हैं!

अगर हम चाहें तो इस परंपरा को किसी तरह बचा सकते हैं। बदलते दौर में पुरानी पंरपरागत रजाई को अपने घर में जगह देकर। शायद यही कदम आने वाली पीढ़ियों को बताएगा कि कभी सर्दियां सिर्फ मौसम नहीं बल्कि एक कला और अपनापन का पर्व होती थीं। 

 

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