गांव के अंतिम छोर में रहने वाली राम श्री कहती हैं “हम वोट नहीं डालते तो जबरस्ती वोट डलवाते हैं। कहते हैं जीते तो पट्टा देंगे। कभी अपनी समस्या लेकर जाओ भी तो कहते हैं दूसरे शहर गए हैं वो तो बड़े नेता हैं।
भारत देश में अलग- अलग धर्म, जाति और वर्ग के लोग रहते हैं। प्रकृति से जुड़ा आदिवासी समुदाय, जो सदियों से प्रकृति की धरोहर बचाते आए हैं। जल, जंगल, जमीन की मांग को लेकर आदिवासी समुदाय संघर्ष करता रहा है रहे हैं। इतिहास में भी आदिवासी जो कभी अपने घर ज़मीन के खुद मालिक थे उन्होंने भी अपने निजी साधन जल, जंगल ज़मीन के लिए लड़ाई लड़ी। जंगल से ही तो उनका जीवन है और सही मायने में असली रक्षक वे लोग ही हैं। आदिवासी समुदाय से निकला इतिहास का बड़ा नाम जिन्हें बिरसा मुंडा के नाम से भी लोग जानते हैं। उन्होंने जमीन से जुड़े मुद्दों को और आदिवासी के अधिकारों के लिए आंदोलन किया। सरकारी व्यवस्था और शोषण के ख़िलाफ़ आदिवासियों का अपना एक अलग इतिहास है।
कभी जंगल में आदीवासियों का राज हुआ करता था। वर्तमान में आदिवासी समुदाय अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए कभी प्रधान, तो कभी कलेक्टर के पास चक्कर काटता रहता है इसके लिए आंदोलन भी करते हैं। पर उनकी कोई नहीं सुनता। जंगलों को विकास के नाम पर उनके घर छीन लिए जाते हैं और बदले में उन्हें कुछ नहीं दिया जाता। जो सदियों से अपनी पीढ़ियों के बचाये हुए जंगलों को सुरक्षित रखे हुए हैं वे कैसे अपने घरों को कटता, उजड़ता और मट्टी में मिलने दे सकते हैं।
“मेरा सदियों पुराना दर्द
नहीं दिखता
मेरा सदियों पुराना ज़ख़्म
नहीं दिखता
सदियों से दूसरों द्वारा
लूटते-खसोटते वक़्त
मेरी देह पर गड़ गए
ज़हरीले नाख़ूनों के दाग़!
उन्हें तो दिखते हैं
सिर्फ़ मेरी ज़मीन, जंगल
और
मेरे हाथों के हथियार।”
– जसिंता केरकेट्टा
देश के किसी भी प्रदेश में देखा जाए तो जिस तरह से आदीवासी रहते हैं। अपनी मूलभूत सुविधाओं से वंचित, जहां जिस बस्ती में आदीवासी होंगे वहां न पानी की सुविधा होती है ,न घर अच्छे होते हैं, रास्ते नहीं होते। ज्यादातर आदीवासी जंगलों के रास्ते से गुज़रते हैं। बच्चों की शिक्षा के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है।
जमीन खोने का डर आदिवासी समुदाय पर हमेशा बना रहता है। कहा जाता है जंगल पर आदीवासियों का अधिकार है लेकिन ज़मीन के लिए आदिवासी समुदाय भटकता ही रहता है। ऐसे ही डर में जी रहें हैं उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के आदिवासी लोग। जहां ब्लॉक बबीना के बबीना रूरल के नई बस्ती के लगभग 70 आदीवासी परिवार रहते हैं। जमीन की मांग को लेकर सदियों से उम्मीद बांधे हुए हैं कि जहां वे रहते हुए आए हैं वो जमीन उनके नाम से लिखी जाए। क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होगा तो यहां से उन्हें जाने की ये प्रक्रिया हमेशा बनी रहेगी, कभी खत्म नहीं होगी और ये जंगल, जमीन और आदिवासी हमारा अस्तित्व एक दिन खत्म हो जाएगा।
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जमीन का पट्टा देने का झूठा आश्वासन
झांसी के गांव के नई बस्ती में रहने वाली 65 वर्षीय सुक्कन कहती है, “हम 45 साल से यहां रह रहे हैं। कोई भी प्रधान बनता है तो वो यहां से हटाने की बात करता है ! हमने यहां ही रह कर यहां के ही पते से विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में वोटिंग करते आए हैं। प्रधानी के चुनाव में भी वोट करते आ रहे हैं। प्रधान जब वोट लेने आते हैं उस समय तो कहते हैं पट्टा हो जाएगा बस जिता दो। जितने के बाद भला फिर कोई कभी नेता आया है। प्रधान तो जीत कर धमकी देते हैं जगह ख़ाली कराने की। हमारे पास न खेती है, न कहीं दुसरी जमीन। कहां जाएंगे हम?”
प्रधान की बात
बबीना रूरल के प्रधान दीनदयाल का कहना है “जमीन से हटाने को नहीं कहा जा रहा है। मैं खुद चाहता हूं कि उन लोगों को पट्टा मिले। कब तक ऐसे ही रहेंगे? मैं तो कोशिश ही करता हूं। इन्हें अधिकार मिले, आदीवासी हैं, खेती भी नहीं है उन लोगों के पास। मुझसे पहले जो प्रधान रहें होंगे। उन्होंने जो भी कहा हो मैंने तीन साल में कभी धमकी नहीं दी। न उन्हें हटाने की बात कही है। इतना कहा है जितनी जगह में आप लोग रह रहें हैं उतने में ही रहें और जमीन न बेचें क्योंकि अब यह रोड किनारे का गांव हो गया है। बड़ी जाति के लोग इनको बहला फुसलाकर कर थोड़ा बहुत पैसा देकर कब्जा कर रहें हैं। इन लोगों को नीचे ढाल में भेज देते हैं खुद रोड़ के किनारे बसे रहें हैं। इसलिए समझाया जरूर है मैंने की ऐसे करोगे तो खुद भी बेघर हो जाओगे बाकी रही पट्टे की बात तो मैं खुद चाहता हूं की इनके नाम पट्टे हो जाएं और ये लोग भी अच्छे से रह सके।
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चाहत सिर्फ जमीन के पट्टे की
आगे सुक्कन बताती हैं, “अधिकारी कोई आते हैं तो कहते हैं आपका जो घर बनाने में सामान लगा है वो ले जाओ लेकिन यहां से जगह खाली करो। जब घर ही नहीं होगा तो सामान का करेंगें क्या? उसे रखेंगे कहाँ? हम बस इतना चाहते हैं हमें यहां का पट्टा दिया जाए , जिससे हम सूकून से रह सके। हम वोट नहीं करेंगे पहले पट्टा मिलेगा हमें तभी वोट करेंगे।
जंगलों को कर रही है विकास के हवाले
हरीदास आदीवासी ने बताया कि “हम मनकुआ में रहते थे। 1972 में कैंट बन गया और वो जगह छावनी में चली गई। हमें वहां से उस समय 400 रूपये देकर हटा दिया गया। तब उस समय हम कहां जाते हम यहां आ गए। घना जंगल था, डर लगता था। कोई किसी को मार कर भी डाल दें तो पता नहीं चलता था। हमने जंगल साफ किया यहां रहने लगे। उस समय यहां से हाइवे नहीं था। अब तो टोल बन गया, हाइवे निकल गया है तो लगता है हम रोड किनारे रह रहे हैं। पहले जंगल ही जंगल था। चार किलोमीटर दूर से बड़ा मनकूआ से पानी सर पर रख कर लाते थे। उस समय लगभग 15 परिवार आए थे और आज 70 परिवार हो गये हैं।
हमने इतनी मेहनत की अब अच्छा लगने लगा लेकिन जो भी प्रधान बनता है उसकी नजर हमारे घरों पर रहती है। हम लोग जमीन कहां से खरीदेंगे। मजदूरी करते हैं तब घर में खाना पकता है। एक की मजदूरी में अच्छे से खर्च भी नहीं हो पाता। इस बार हमारे नाम इसी जमीन का पट्टा होगा तभी हम वोट करेंगे
जबरदस्ती डलवाते हैं वोट
गांव के अंतिम छोर में रहने वाली राम श्री कहती हैं “हम वोट नहीं डालते तो जबरस्ती वोट डलवाते हैं। कहते हैं जीते तो पट्टा देंगे। कभी अपनी समस्या लेकर जाओ भी तो कहते हैं दूसरे शहर गए हैं वो तो बड़े नेता हैं। हमारे गांव के प्रधान सचिव तक तो हमारी सुनते नहीं, न मिलते हैं। वो तक कभी झांसी तो कभी ललितपुर जाते रहते हैं उनके पास ही समय नहीं है। जब हमारी जमीन नहीं है हमसे छीनना चाहते हैं तो पांच ही तक सही यहां स्कूल, समुदाय शौचालय, क्यों बनाए गए और सप्लाई के पानी की पाइपलाइन क्यों यहां तक पहुंचाई?”
आदिवासी समुदाय के संघर्ष की कहानी जो सदियों से चली आ रही है और अब भी जारी है। वे जंगल से जुड़े रहे, उन्होंने जंगल को आज तक बचाये रखने की कोशिश की पर फिर भी विकास के नाम पर अब जंगलों की संख्या कम होती जा रही है। वोट के नाम पर बस आदिवासियों को सरकार अपने हित के लिए इस्तेमाल करती आई है।
इस खबर की रिपोर्टिंग नाज़नी रिज़वी द्वारा की गई है।
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