गरियाबंद के धनोरा गांव में इसी झाड़-फूंक के कारण एक ही परिवार से तीन बच्चों की मौत हो गई है। डमरूधर नागेश जो मज़दूरी करके अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। मज़दूर पिता परिवार के साथ अपने ससुराल गए हुए थे जहां तीनों बच्चों को एक साथ बुखार आया।
एक बार फिर से अंधविश्वास ने मासूम ज़िंदगियों की कीमत वसूल ली। एक खबर छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले से आई है जहां झाड़-फूंक के दौरान तीन बच्चों की जान चली गई। घटना ने न सिर्फ इलाके में हड़कंप मचा दिया बल्कि यह भी उजागर किया कि स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और जागरूकता का अभाव आज भी लोगों को खतरनाक राह पर ले जा रहा है।
दरअसल गरियाबंद के धनोरा गांव में इसी झाड़-फूंक के कारण एक ही परिवार से तीन बच्चों की मौत हो गई है। डमरूधर नागेश जो मज़दूरी करके अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। मज़दूर पिता परिवार के साथ अपने ससुराल गए हुए थे जहां तीनों बच्चों को एक साथ बुखार आया। अपने बच्चों के बुखार को पहले एक बैगा और फिर एक सामान्य डॉक्टर को दिखाकर ठीक करने की कोशिश करते रहे। जब हालत में सुधार नहीं हुआ तब वह बच्चों को अस्पताल ले जाने के बजाय झाड़-फूंक कराने ले गए। इलाज में देरी और लगातार बिगड़ती तबीयत ने तीनों बच्चों की जान ले ली।
एक ही दिन तीनों बच्चों की मौत
CG Sandesh (छत्तीसगढ़ संदेश) के खबर अनुसार बच्चों की तबीयत बिगड़ने पर बच्चों को बैगा के पास ले जाया गया। 11 नवंबर 2025 को जब आठ साल की अनिता नागेश की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई। परिवार उसे जल्दबाज़ी में अस्पताल ले गया लेकिन वहां पहुँचते-पहुँचते उसकी मौत हो चुकी थी। इसके बाद 13 नवंबर को सात साल के बेटे एकराम को देवभोग ले जाया गया लेकिन रास्ते में ही उसने दम तोड़ दिया। उसी शाम 4 साल के बेटे गोरश्वर नागेश की भी जंगल के बैगा के यहां झाड़-फूंक के दौरान मौत हो गई।
CG Sandesh के अनुसार डॉक्टरों का कहना है कि परिवार को बच्चों की जांच और इलाज के लिए अस्पताल आने को कहा गया था लेकिन वह सही समय पर नहीं पहुंचे। समय पर इलाज न मिल पाने की वजह से तीनों बच्चों की जान नहीं बचाई जा सकी।
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सीएमओ द्वारा दिया गया निर्देश
जानकारी के अनुसार ग्रामीणों और स्वास्थ्यकर्मियों के अनुसार मितानिन और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता लगातार परिवार से कहती रहीं कि बच्चों को तुरंत अस्पताल ले जायें लेकिन परिजन उनकी बात नहीं माने। गांव में एंबुलेंस आने में देरी, अस्पताल दूर होना और डॉक्टरों की अनुपलब्धता जैसी समस्याओं का हवाला भी दिया जा रहा है। घटना सामने आने के बाद ज़िला स्वास्थ्य विभाग में हड़कंप मच गया। सीएमओ ने पूरे मामले की जांच के लिए एक टीम बनाकर दोषियों पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। यह मामला एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में अब भी अंधविश्वास, कमजोर स्वास्थ्य सुविधाएं और जागरूकता की कमी किस तरह जानलेवा साबित हो रही है।
अस्पताल की दूरी, एम्बुलेंस की देरी और डॉक्टरों की अनुपलब्धता बनी समस्या
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट अनुसार अमलीपदर शासकीय अस्पताल के डॉ. रमाकांत ने बताया कि 17 नवंबर को जिस बच्चे की मौत हुई उसे बुखार, सर्दी-खांसी था। सीएमओ ने बच्चों के परिजनों को अस्पताल में आकर जांच कराने के लिए कहा था लेकिन वो नहीं माने। दैनिक भास्कर के रिपोर्ट अनुसार ग्रामीणों के अनुसार अस्पताल की दूरी, एम्बुलेंस की देरी और डॉक्टरों की अनुपलब्धता भी बड़ी समस्या बनी। इस पूरे मामले में गरियाबंद सीएमएचओ एसके नवरत्न ने कहा कि यह घटना गंभीर है और इसकी जांच के आदेश दिए जा रहे हैं।
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झाड़-फूंक पर ज़्यादा भरोसा
राज्य स्तर की जांच टीम भी गांव पहुंची। इस टीम में राज्य टीकाकरण अधिकारी, महामारी विशेषज्ञ और ज़िले के वरिष्ठ डॉक्टर शामिल थे। टीम ने मौके पर पहुंचकर पूरे मामले की विस्तार से जांच शुरू की लेकिन अब तक स्वास्थ्य विभाग को कोई ठोस सबूत नहीं मिला है। जांच टीम ने परिजनों, पड़ोसियों और स्थानीय स्वास्थ्य कर्मचारियों से लगभग तीन घंटे तक पूछताछ की फिर भी बच्चों की मौत का निश्चित कारण सामने नहीं आ सका।
हालांकि सभी बयानों में एक बात साफ दिखाई दी परिवार ने इलाज के बजाय झाड़-फूंक को प्राथमिकता दी और यही लापरवाही बच्चों की जान पर भारी पड़ गई।
बता दें अंधविश्वास के कारण होने वाली मौतें कोई नई बात नहीं हैं। यूपी के हाथरस में डीएल पब्लिक स्कूल के 11 वर्षीय दूसरी कक्षा के छात्र की बलि के नाम पर हत्या कर दी गई। राज्य पुलिस ने जानकारी दी कि कथित स्कूल का नाम रोशन करने और स्कूल के मालिक और परिवार पर आई परेशानियों का समाधान करने के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया।
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इसी तरह छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक महिला द्वारा 18 वर्षीय (मानसिक रूप से कमजोर) बेटी को इलाज के लिए एक तांत्रिक के पास ले जाया जाता है क्योंकि अस्पताल में इलाज कराने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। अंत में झाड़-फूंक और गलत तरीके से इलाज के कारण उस लड़की की मौत हो गई।
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आज डिजिटल युग और विज्ञान की तरक़्क़ी के बावजूद समाज के कई हिस्सों में ऐसे अंधविश्वास गहराई तक जमे हुए हैं। लोग आज भी बीमारी और संकट के समय वैज्ञानिक या अस्पताल में इलाज कराने के बजाय झाड़-फूंक या तांत्रिक उपायों पर भरोसा कर लेते हैं।
यह भी चिंताजनक है कि मीडिया में इस तरह की जो घटनाएं सामने आ जाती हैं वे तो खबर बन जाती हैं लेकिन ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं जो गांव और दूर-दराज इलाक़ों और घरों की चारदीवारी में दब कर रह जाती हैं। इसका एक बड़ा कारण है ग्रामीण और पिछड़े इलाक़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी कमी। अस्पताल दूर हैं, डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते, एंबुलेंस आने में देर होती है। ऐसे में लोग मजबूरी या डर के कारण बैगा, झाड़-फूंक करने वालों या स्थानीय ओझाओं के पास चले जाते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि जहां अस्पताल और डॉक्टर दोनों मौजूद हैं वहां भी ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं? क्या लोग आधुनिक चिकित्सा पर भरोसा खो रहे हैं? या हमारा समाज अंधविश्वास से बाहर निकलने की बजाय पीछे की ओर लौट रहा है?
यह घटना साफ दिखाती है कि समस्या सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाओं की नहीं है समस्या जागरूकता की भी है। जब तक वैज्ञानिक सोच गांव-गांव तक नहीं पहुंचेगी ऐसी दर्दनाक मौतें रुक नहीं पाएँगी।
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