खबर लहरिया Blog ट्रांस व्यक्तियों की कहानी – ‘घर जैसी कोई जगह नहीं’

ट्रांस व्यक्तियों की कहानी – ‘घर जैसी कोई जगह नहीं’

हिंदुस्तान में ट्रांस लोग अपने बड़े होने, रहने, या गुज़रने वाली हर जगह से लगातार अपनी पहचान का समझौता करते हैं, अपने भीतर और बाहर एक घर की तलाश में। 

The Story of Trans Persons - 'No Place Like Home'

बता दें, इस कहानी को पुलिटज़र सेंटर की सहायता मिली है। 

बॉबी अपने कमरे से निकलने में परहेज़ करती हैं। चाहें वो भीनी हवा वाला दिन क्यों ना हो जैसा पिछली जुलाई हमारी मुलाक़ात के दिन था। पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्धमान जिले के एक गाँव के बाहर जब मैं उनके घर के पास पहुँचा तो उन्होंने अपने पड़ोसी को मुझे ले आने के लिए भेजा था।

बॉबी 25 के आस-पास उम्र की ट्रांस महिला हैं। उनके लिए बाहर जाना मतलब एक झूठी पहचान को ओढ़ लेना है। उनका नीली, सीलन-भरी  दीवारों वाला कमरा उस घर का हिस्सा है जिसमें वह अन्य ट्रांस दोस्तों और एक विषमलैंगिक जोड़े के साथ रहती हैं। “मुझे बाहर शोषण से बचने के लिए मर्दों के पहनावे में जाना पड़ता है,” बॉबी ने मुझे बताया।  उन्होंने धारियों वाली टी-शर्ट और सफ़ेद फूलों की कढ़ाई वाली स्कर्ट पहनी थी। उनके बाल भूरे रंगे हुए हैं, जिनकी लंबाई बॉबी के कंधों को ढक लेती है। “लेकिन मैं मर्दाना लिबास में अच्छा नहीं महसूस करती, इसलिए ज़्यादा वक़्त यही रहती हूँ।”

रोज़गार के लिए बॉबी पश्चिम बंगाल और बिहार के गाँवों के मेलों और निजी महफ़िलों में बॉलीवुड और भोजपुरी गानों पर नृत्य करती हैं।

बॉबी जिस गाँव में रहती हैं, उसे मैं अल्सी कहूँगा। यहाँ वह पड़ोस के रानीगंज शहर से तीन साल पहले आईं थीं। रानीगंज में वो एक निम्न-आय वाले मोहल्ले में रहती थीं जहाँ के गुंडे उनके घर में बैठे रहते थे। गाने सुनते हुए ताश खेलते और बॉबी से मीट और शराब  की माँग करते थे। 

“उनका हुक्म तोड़ने से मैं बेहद घबराती थी,” उन्होंने याद किया। “मुझे  वहाँ रहने के लिए उनकी हर बात को मानना पड़ता थाI”

ज़नाना समझा जाने वाला लिबास पहनने पर पड़ोसी और बच्चे अक्सर बॉबी का मज़ाक उड़ाते या उनको बेइज़्ज़त करते थे। (एक ट्रांस इंसान की लैंगिक पहचान या अभिव्यक्ति उनके जन्म के वक़्त तय की गई लैंगिक पहचान से अलग होती है।)

हालाँकि अल्सी के अपने कमरे में बॉबी ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं, फिर भी इसे घर नहीं कह सकतीं। “मुझे बाहर घूमने की आज़ादी चाहिए, अपनी मर्ज़ी के कपड़ों में, बिना किसी के मुझे घूरे या उल्टे-पुल्टे नाम कहे,” उन्होंने कहा, जब मैंने उनसे पूछा कि घर उनके लिए क्या मायने रखता है। “घर का मतलब परिवार और आप के प्रिय-जन भी हैं। लेकिन सोचती हूँ क्या वो सब मुझे कभी मिलेगा?”

हिंदुस्तान में 487,803 ट्रांस लोग हैं, 2011 की जनगणना के मुताबिक़। बहुत से ट्रांस लोगों के लिए सुरक्षित आवास ढूँढना तक़लीफ़-देह अनुभव होता है। ख़ासकर अगर वो आर्थिक अभाव में हैं। कुछ अपने पैदाइशी घर छोड़ देते हैं, कुछ निकाल दिये जाते हैं। कोई पक्का ठिकाना मिलने तक वो सार्वजनिक जगहों जैसे उद्यानों, पुलों के नीचे, या क्वीयर दोस्तों अथवा क्वीयर-सहायक समूहों द्वारा उपलब्ध करवाए अस्थायी आवास में गुज़ारा करते हैं। तो कुछ लोग पारंपरिक हिजड़ा समुदायों में शामिल हो जाते हैं, जो कभी-कभार असुरक्षित जगह बन सकती हैं। (क्वीयर यानि वो सभी लोग जिन की लैंगिक पहचान और अभिव्यक्ति, तथा सामाजिक ख्याल, पारंपरिक बाधक परिभाषाओं से अंतर रखती हैं।) 

जो ट्रांस लोग समृद्ध मोहल्लों में किरायेदारी के लिए सक्षम हैं वो तक कई बार तंग बस्तियों की ओर धकेले जाते हैं — दुरुस्त सार्वजनिक यातायात, बुनियादी स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवाओं, पेय जल, और रोज़गार के साधनों से दूर। यहाँ भी उन्हें कई बार पड़ोसियों, मकान-मालिकों और पुलिस के लगातार शोषण और कड़ी निगरानी में रहना पड़ता है।

“हम लगातार घर बदलने पर मजबूर रहते हैं क्योंकि मकान-मालिक और पड़ोसी हमें आस-पास बसने नहीं देना चाहते। अक्सर हमारी ज़मानती नक़द ज़ब्त हो जाती है, लेकिन उससे भी भारी नुक़सान है हमसे किसी भी तरह की स्थिरता का एहसास छिन जाना,” क्वीयर अधिकार कार्यकर्ता पॉवेल सगोलसेम ने कहा। वह एक आदिवासी ‘ग़ैर- बाइनरी फेमी व्यक्ति’ हैं जो फ़िलहाल दिल्ली में रहते हैं। “जब आप के पास रहने की स्थिर जगह हो, सिर्फ़ तभी आप के मन में चैन और सुकून होगा और आप बाक़ी चीज़ों पर ध्यान दे पाएँगे, जैसे कि काम और रोमानी रिश्ते।” (ग़ैर-बाइनरी लोगों के लैंगिक तजुर्बात और अभिव्यक्ति स्त्री और पुरुष जैसी पारंपरिक लैंगिक पहचानों से परे होते हैं, या फिर उनकी पहचान इन दोनों पहचानों के अंश समेटे हुई होती है।)

सगोलसेम की राय में प्रतिबंधक मध्य-वर्गीय मोहल्लों की बजाय तंग बस्तियाँ ट्रांस लोगों के लिए ज़्यादा उदार होती हैं क्योंकि वहाँ की उथल-पुथल में भी एक आज़ादी-सी शामिल है। 

ट्रांसजेंडर व्‍यक्ति  (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019, ट्रांस लोगों के ख़िलाफ़ भेद-भाव पर रोक लगाते हुए संपत्ति से जुड़े उनके कई अधिकारों के बारे में बताता है, जैसे कि उनके निवास करने, ख़रीदने, किराए पर लेने, या किसी संपत्ति में भोग लेने के अधिकार। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी) और भारत के राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नैको) के 2016 के साझा अध्ययन के मुताबिक़ ट्रांस-जेंडर या उभयलिंगी व्यक्तियों की भारत सरकार से सुविधाओं की मांग में सुरक्षित आवास सर्वोपरि (सबसे ऊपर) हैं। रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाएं, पहचान पत्र, और आर्थिक सुरक्षा जैसी मांगे उसके बाद आती हैं। ट्रांस आदमी, ट्रांस औरतें, इंटरसेक्स भिन्नताओं के लोग, क्वीयर लिंगी लोग, तथा किन्नर, हिजड़ा, अरावणी, और जोगता जैसी समाज-सांस्कृतिक पहचानों वाले व्यक्ति  2019 के ट्रांसजेंडर अधिनियम और भारत की जनगणना में गिने जाते हैं। 

यह कहानी कुछ ट्रांस लोगों के सुरक्षित और किफ़ायती आवास की तलाश के तज़ुर्बे यानि अनुभव को दर्शाती है।

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सुरक्षित रहने के लिए छुपना

अल्सी बॉबी का पैदाइशी गाँव है, जहाँ वह बड़ी हुईं, स्कूल गईं। उन्होंने उत्पीड़न से बचने के लिए तथाकथित मर्दाना लहज़ा अपनाने की बहुत कोशिश की। “मुझे लगातार पीड़ित किया जाता था, जिससे मुझे जीना दुशवार लगने लगा,” उन्होंने मुझे बताया। बॉबी ने कई बार ख़ुदकुशी तक करने की कोशिश की। 

2016 के एक अध्य्यन के मुताबिक़, 31 प्रतिशत ट्रांस लोगों की मौत ख़ुदकुशी से होती है, और 50 फ़ीसद अपनी 20वीं सालगिरह से पहले कम-से-कम एक बार ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके होते हैं।  इस अध्ययन ने जाना कि उत्पीड़न, परिवार और दोस्तों द्वारा ठुकराए जाना, हिंसा, साथी द्वारा प्रपीणन, और सामाजिक भेदभाव ट्रांस लोगों में आत्मघाती व्यवहार (खुद को चोट पहुंचना) उकसाने के कुछ कारण हैं। 

बॉबी जब 15 बरस की थीं तो उनके पिता गुज़र गए और उसके कुछ वक़्त बाद उनकी माँ और भाई-बहन मध्य-भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ जा बसे। तब तक बॉबी स्कूल छोड़ एक कोयला खदान में काम करने लगीं थीं। फिर, उन्हें एक कपड़े सिलाई की दुकान में नौकरी मिल गई। उसी दौरान उनके एक परिचित नृतक ने उनहें एक नृत्य-समूह के प्रदर्शन में जुड़ने का न्यौता दिया, और यूं बॉबी एक पेशेवर नृतक बन गईं।

बॉबी में मुझे बताया कि वो अपनी माँ और भाई के साथ रहना चाहती हैं, बहन के बच्चों को खिलाना चाहती हैं। “लेकिन मैं जो हूँ उस वजह से ये मुमकिन नहीं,” वो बोलीं। छत्तीसगढ़ में बॉबी के रिश्तेदारों  और पड़ोसियों को उनकी ट्रांस पहचान के बारे में नहीं पता है। और वो उन्हें समझाना भी नहीं चाहतीं, ना ये चाहतीं हैं कि वो लोग बॉबी की माँ पर ताने कसें। हाल-फ़िलहाल तक बॉबी की माँ अक्सर उनके यहाँ आया करतीं थीं लेकिन उनकी बढ़ती उम्र के कारण ये दौरे अब घट रहे हैं। मगर बॉबी को इस बात की ख़ुशी है कि वो अपनी माँ और भाई-बहन की सहायता के लिए हर महीने कुछ पैसे भेज पाती हैं।

हम पूरी दोपहर मिठाई, समोसे, और कोला लिए बॉबी की यात्राओं, नृत्य प्रदर्शनों, और ज़िंदगी की बातें करते रहे। मेरे लौटने का वक़्त आया तो बॉबी ने मुझे बस-अड्डे तक छोड़ आने का प्रस्ताव रखा। 

अपने बालों को जूड़े में बांधकर एक टोपी — जिस पर ‘सूपर-मैन’ लिखा था — पहनते हुए बॉबी ने पूछा, “मैं कैसी लग रही हूँ? क्या कोई जान पाएगा?” बॉबी ने अब पूरी बाज़ू वाली सुरमई रंग की टी-शर्ट और जींस-पैंट पहन ली थी। पड़ोसी से उधार लिया हौंडा स्कूटर चालू करते हुए वो बोलीं,“मुझे आफ़तों से बचने के लिए मर्दाना दिखना ज़रूरी है”। गाँव के बाज़ार से गुज़रते वक़्त बॉबी मुझसे पूछती रहीं कि वह पर्याप्त रूप से मर्द लग रहीं हैं या नहीं।

बस-अड्डे के दाएं में लगी चाय की दुकानों को देखते हुए मैंने बॉबी से पूछा अगर वो वहाँ रुक कर चाय पीना चाहेंगी लेकिन वो जल्द-से-जल्द अपने कमरे की हिफ़ाज़त में लौटना चाहती थीं: “[मैं] ज़्यादा देर बाहर नहीं रहना चाहती”। 

जिन जगहों से ट्रांस लोग गुज़रते हैं वो इस शर्त पर सुरक्षित या असुरक्षित बन जाती हैं कि वहाँ कौन आता-जाता है। मिसाल के तौर पर, अपने माँ-बाप और परिवारों के साथ रहने वाले ट्रांस लोगों को अमूमन महमानों से छुपना पड़ता है। 

दिल्ली निवासी ट्रांस आदमी कबीर मान हारमोन-बदलाव-चिकित्सा ले रहे हैं जो इंसान की अंदरूनी लैंगिक पहचान के मुताबिक़ शारीरिक बदलाव को हरकत देती है। मान के चेहरे पर दाढ़ी आने लगी है लेकिन मुहल्ले में निकलते वक़्त मान को मास्क पहनकर उसे छुपाना पड़ता है।

मान के ज़्यादातर रिश्तेदार और पड़ोसी उन के चिकित्सात्मक बदलाव से अपरिचित हैं। इसलिए जब भी वो घर आते हैं, मान बाहर चले जाते हैं। “मुझे अहसास हुआ कि मेरी माँ मुझसे जुड़े उनके सवालों का जवाब नहीं देना चाहतीं, और मैं नहीं चाहता कि माँ या मेरे भाई-बहन मेरी वजह से शर्मसार हों,” मान ने मुझसे कहा। ”क्या मैं इस जगह को घर कह सकता हूँ? मुझ जैसे लोग क्या कहीं भी घर-सा महसूस कर सकते हैं?”

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बेघर होना और पारिवारिक हिंसा 

कभी-कभी ट्रांस व्यक्तियों के पैदाइशी घर उनके लिए ग़ैर-महफ़ूज़ हो जाते हैं। परिवार-जन उनको सताते हैं, घर से निकाल देते हैं या संपत्ति से बेदख़ल कर देते हैं। रोज़, जो एक ट्रांस औरत हैं,16 साल की उम्र में अपने घर से निकाल दी गई थीं। उनके भाई ने घर की मरम्मत के बहाने रोज़ को कहीं और जाकर रहने को कहा था। “उसने सीधा मेरा बस्ता बाँधा और मरम्मत के हो जाने पर लौटने को कहा,” रोज़ ने बताया। साथ ही ये भी कहा के उनके भाई को कोई परवाह नहीं थी कि वो कहाँ जाएंगी। हालांकि रोज़ उस वक़्त प्रत्यक्ष तौर पर ट्रांस औरत नहीं थीं।  वो स्थानिय मेलों में पारंपरिक ज़नाना कपड़ों में अदाकारी करती थीं, जो उनके परिवार को नापसंद था। 

उससे पहले, रोज़ के माँ-बाप ने आर्थिक तंगी का कारण बताकर पांचवी कक्षा के बाद ही उनका स्कूल छुड़वा दिया था। “जैसे ही उन्हें अहसास हुआ कि मैं और बेटों जैसे नहीं हूँ, उन्होंने मेरे बड़े भाई पर अपना सारा ध्यान केंद्रित कर लिया,” रोज़ ने कहा, जो अब 32 वर्षीय हैं। रोज़ उनका असली नाम नहीं है; उन्होंने इस कहानी में अपनी पहचान गुप्त रखने के लिए ये चुना है। 

जब उनके परिवार के घर की मरम्मत हो रही थी, उनकी माँ तथा उनके भाई का परिवार भी साथ में कहीं और रहने चले गए थे, रोज़ को अकेला, बेसहारा छोड़ कर।

16 की उम्र में घर से निकाले जाने पर वो कुछ समय एक सार्वजनिक उद्यान में रहीं, भूखी और सहमी हुई। “मैं डर के मारे रातों को सो नहीं पाती थी। जब कोई पुलिस वाला आता तो मैं झाड़ियों के पीछे चुप जाती थी,” उन्होंने बताया। उनके बॉयफ़्रेंड उनके लिए खाना लाते थे लेकिन रोज़ की तो भूख ही मर चुकी थी। वो हरदम रोया करती थीं। तीन दिन बाद उनकी एक दोस्त ने अपने किराए के मकान की छत पर रोज़ को ठिकाना दिया। एक सह-किराएदार ने उन्हें रसोइया की नौकरी लगवा दी। फिर, अपनी पहली तनख़्वाह से रोज़ किराए पर एक कमरा ले पाईं। 

उनके पुश्तैनी घर का नवीकरण हो जाने पर भी रोज़ को उस पर कोई हक़ नहीं मिला। उनके भाई ने बोला कि पिताजी ने मरने से पहले संपत्ति रोज़ के भाई के नाम कर दी थी। “मैं नहीं जानती थी कि अपने हक़ के लिए कैसे लड़ूं,” रोज़ ने बताया। “मैं बहुत छोटी थी और अपनी पहचान के असमंजस के साथ ज़िंदा रहने का संघर्ष कर रही थी।” 

रोज़ की तरह अलेक्सा भी केवल 17 वर्ष की थीं जब उनके पिता और सौतेली माँ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के उनके घर से अलेक्सा को बाहर कर दिया। अलेक्सा, जिन्होंने इस कहानी में अपनी पहचान गुप्त रखने के लिए ये उपनाम चुना है, एक इंटरसेक्स महिला हैं। (इंटरसेक्स लोगों में गुप्तांग, आंतरिक प्रजनन अंग, या गुणसूत्र पारंपरिक नर और मादा शारीरिक लक्षणों से अलग होते हैं।)

उस से दो साल पहले अलेक्सा की माँ गुज़र गईं थीं और उनके पिता ने दोबारा शादी कर ली थी। अलेक्सा ने बताया के उनकी सौतेली माँ अक्सर उनको मारती-पीटती थी और उनसे ज़बरदस्ती घर का सारा काम करवाती थी। उनको ‘हिजड़ी’ से संबोधित कर वह अपने पति से अलेक्सा को घर से निकालने को कहा करती थी। उनके माँ-बाप को रिश्तेदारों का सुझाव था कि किसी ग़रीब घर में अलेक्सा की शादी करके वो अलेक्सा से छुटकारा पा लें।

अलेक्सा पर अत्याचार तब और भी बढ़ गया जब उन्होंने अपने पिता से कॉलेज के लिए पैसे माँग लिए। “मेरे पिता आग बबूला हो गए, मुझे बहुत मारा और घसीट कर घर से बाहर निकाल दिया,” अलेक्सा ने याद किया। “मेरी सौतेली माँ ने मेरे कपड़े गली में फैंकते हुए कभी वापस न आने को कहा।” देर रात का वक़्त था। एक पड़ोसी ने अलेक्सा को उनके कपड़े रखने के लिए एक बस्ता दिया; एक दोस्त से अलेक्सा को  ₹2000 उधार लेकर उसी रात जयपुर के लिये रवाना हो गईं। वो पहले कभी जयपुर नहीं गई थीं लेकिन अलेक्सा ने ‘गुलाबी शहर’ का लुभावना नाम जयपुर के लिए कभी सुन रखा था, इसलिए वहीं जाने का इरादा किया। और फिर वो उनके माँ-बाप के घर से पर्याप्त दूर भी था। “वो मेरी खुद पर यक़ीन के साथ पहली उड़ान थी,” अलेक्सा ने बताया।

जयपुर में, अजनबियों से पूछ-पाछ कर अलेक्सा डिज़ाइनर बुटीकों वाले एक इलाक़े में पहुँच गईं क्योंकि वो ऐसी जगह काम करना चाहती थीं। वहाँ एक उदार-दिल सब्ज़ी-विक्रेता ने अलेक्सा को बस्ती के अपने घर में शरण दी। उनके परिवार ने अलेक्सा का ख़याल रखा, उनको किराए के लिए कमरा ढूंढवाया, और एक बुटीक में सफ़ाई-कर्मी की नौकरी भी दिलवाई। वक़्त के चलते अलेक्सा उस बुटीक के डिज़ाइनर की सहायक बन गईं और ग्रेजुएट डिग्री वाली (स्नातिका) भी हो गईं। 

LGBTQIA+ अधिकार कार्यकर्ता सूचित करते हैं कि कई बार ट्रांस लोगों के परिवार जन उनके पहचान-पत्र और शैक्षिक प्रमाण-पत्र तक ज़ब्त करके रखते हैं। “हम जाने कितने ट्रांस व्यक्तियों  से परिचित हैं जिनके परिवार वालों ने उनके निजी-पहचान और शिक्षा-प्रमाण पत्र जला दिए ताकि उन्हें घर से भागने से रोक लें और उन पर अपनी मर्ज़ी की लैंगिक पहचान और यौनिकता थोप सकें,” श्रेयोसी रे ने कहा जो कोलकाता-स्थित संस्था ‘साफ़ो फॉर इक्वलिटी’ (जो समलैंगिक और ट्रांस औरत-आदमियों को सहायता देते हैं) में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी हैं। “ये काग़ज़ात ना होना ट्रांस लोगों के सुरक्षित आवास पाने में भी बाधक बनता है।” 

किराये पर घर देने से मनाही 

जब ट्रांस लोग किराये के मकान ढूंढ़ते हैं तो उनके साथ नियमित तौर पर भेदभाव होता है – रे तथा अन्य ट्रांस-अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं। उनसे सामान्य दर से ज़्यादा किराया वसूला जाता है और कई बार कानूनी किरायनामा भी नहीं दिया जाता।

2015 में धनंजय चौहान सहित कुछ ट्रांस महिलाओं को चंडीगढ़ के दायरे में लाख कोशिशों के बाद भी कोई किराये का मकान नहीं मिला तो उन सबको एक गाँव के बाहर एक सुनसान, बिना पानी की सुविधा के घर में बसना पड़ा। एक रात कुछ लड़के उनका दरवाज़ा पीट कर संभोग की मांग करने लगे। “हमने दरवाज़ा खोलने से इंकार करते हुए उन्हें बताया कि हम सेक्स वर्कर (यौनकर्मी) नहीं हैं। तो उन्होंने घर पर पत्थर फेंक कर खिड़कियाँ तोड़ दीं, और जाने से पहले दहलीज़ पर पैशाब कर गए,” चौहान ने आह! भरते हुए वो आतंक याद किया। 

युवान, जो एक इंटरसेक्स पुरुष हैं, और उनके साथी, जो एक ट्रांस-महिला हैं, दोनों को मुंबई में किराये का घर ढूँढ़ते हुए बार-बार इंकार झेलना पड़ा। “मकान-मालिक कहते हैं कि हम सोसाइटी का वातावरण खराब कर देंगे,” युवान ने बताया। जो राज़ी हुए उन्होंने ये कह कर ज़्यादा किराया मांगा कि अगर हम मकान में रहे तो उसकी कीमत गिर जाएगी।” 

अधिकतर ट्रांस लोगों का कहना था कि मकान-मालिक उन्हें सेक्स वर्कर समझते हैं और सोचते हैं कि  वो मकान को उसी काम के लिए इस्तेमाल करेंगे। आख़िरकार युवान को एक घर मिल गया, लेकिन वहाँ भी उन्हें और उनके साथी को पड़ोस के मर्दों ने लगातार परेशान किया। 

जो ट्रांस व्यक्ति हाशिए के संप्रदायों से हैं उनके साथ बदतर भेदभाव और उत्पीड़न होता है। “हम अक्सर देखते हैं कि मुसलमान ट्रांस लोगों को हिंदू नाम अपनाने पड़ते हैं वरना उनको किराये पर मकान मिलना और भी मुश्किल होता है,” सरोज गिरी ने बताया। गिरी ‘कोशिश’ नामक संस्था (जो पश्चिम बंगाल के समलैंगिक पुरुषों, ट्रांस महिलाओं, और हिजड़ा समुदाय के साथ काम करते हैं) में कार्यक्रम प्रबंधक हैं। 

सागोलसेम उत्तर-पूर्वी भारत के मनीपुर में आदिवासी समाज से हैं। मकान मालिकों ने उनकी इस पहचान को निशाना बनाकर बहुत सताया “उत्तर भारत में उत्तर-पूर्वी भारतीयों के ख़िलाफ़ कई सामाजिक धारणाएँ हैं — उन्हें मांसाहारी, पियक्कड़, और कामुक माना जाता है, जिसकी वजह से हमें सुरक्षित आवास मिलने की संभावना और सीमित हो जाती है,” सागोल्सम ने कहा, जो दिल्ली में रहते हैं।

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आवास योजनाओं को लेकर भेदभाव

अल्सी में बॉबी ने मुझे कहा था कि सरकारी योजनाओं, ख़ासकर जो आवास से जुड़ी हैं, उनमें ट्रांस लोगों को तवज्जो मिलना चाहिए। अधिकतर ट्रांस लोगों के पास पक्का काम नहीं होता। “हमारी पहचान के कारण बहुत-सी नौकरियाँ हमारी पहुँच से दूर होती हैं,” उन्होंने कहा। “फ़िलहाल मैं हॉर्मोन -बदलाव-चिकित्सा भी नहीं ले सकती जिसके महीने का खर्च ₹5000 है क्योंकि मुझे सबसे पहले मकान का किराया निकालना पड़ता है। लेकिन ये चिकित्सा मेरी मानसिक तंदरुस्ती के लिए ज़रूरी है।”

ट्रांस व्यक्तियों के लिए सरकार-प्रायोजित आवास का मुद्दा पिछले कई साल से गर्म है लेकिन ज़मीनी तौर पर ज़्यादा कुछ नहीं बदला। फ़रवरी 2022 में तेलंगाना उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से उन ट्रांस लोगों को अपार्टमेंट मुहैया करने को कहा, जो ग़रीब आवास योजना के मानदंड की पूर्ति करते हों। लेकिन अब भी योजना में अधिकतर ट्रांस लोग असम्मिलित हैं। ना ही 2018 की उत्तराखंड उच्च न्यायालय की हिदायत कि 6 महीने में ट्रांस लोगों के लिए आवास योजना बनाये जानें का कोई फल निकला। 

2016 के यू.एन.डी.पी-नैको अध्ययन ने पाया था कि छह सरकारी आवास योजनाओं में से सिर्फ़ दो ट्रांस लोगों को शामिल करती हैं, वो भी भेदभाव के साथ। उस अध्ययन में एक ट्रांसलिंगी आवेदक के अनुभव के बारे में भी है जिन्हें केंद्र की प्रधानमंत्री आवास योजना ने ज़मीन अदा नहीं की। उस योजना से जुड़े एक सरकारी अफसर ने बाद में ट्रांस आवेदक को बताया था कि उनके दफ़्तर को डर था यदि ट्रांस व्यक्तियों को आवास दिया तो आस-पास के विषमलैंगिक लोग विरोध करेंगे।

सामाजिक ढांचे में गड़े हुए ऐसे भेदभाव के बीच कुछ अच्छी ख़बर भी है। सितंबर 2020 में तमिलनाडु के तूतूकुड़ी ज़िला प्रशासन ने 85 ट्रांस लोगों के लिए एक गौशाला सहित आवास कॉलोनी स्थापित की। वो गौशाला सरकारी डेयरी सहकारिता को दूध बेचती है। “ये परियोजना बेहद ख़ास है क्योंकि ये ट्रांस लोगों को संपत्ति के अधिकार के साथ आमदनी का साधन भी देती है,” ग्रेस बानू ने बताया, जो इस परियोजना की नायिका और ट्रांस हक़ कार्यकर्ता हैं। ”राज्य के बाक़ी ज़िला प्रशासनों ने भी मुझसे ऐसी कामयाबी को दोहराने में मदद माँगी है।”

बेघर 

“हम डॉक्टर से जेंडर डायस्पोरिया (जन्म के वक़्त घोषित की गई लैंगिक पहचान से रज़ामंद ना महसूस करना) प्रमाण-पत्र कैसे ले सकते हैं?”

“क्या एक पुनःनिर्मित यौनि चिकनाहट पैदा कर सकती है?”

“चिकित्सात्मक लैंगिक बदलाव के दौरान कितने वक़्त तक हॉर्मोन बदलाव चिकित्सा लेनी होती है?”

ऐसे सवाल जून के उस उमस भरे दिन में एक बड़े कमरे में गूंजे जिसकी दीवारों पर इंद्रधनुष के चित्र बने हुए थे। लगभग 20 ट्रांस लोग प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठे एक ग़ैर-बाइनेरी डॉक्टर से ये सवाल कर रहे थे, जो इनसे मिलने गरिमा-गृह नामक ट्रांस लोगों के आश्रय-घर में आये थे। दिल्ली-स्थित यह गरिमा गृह मित्र ट्रस्ट द्वारा संचालित है; ऐसे कई और गरिमा गृह सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने नवंबर 2020 में शुरू किए थे। फ़िलहाल ऐसे सिर्फ़ 12 आश्रय-घर हैं, जो 18 वर्ष और उस से बड़े ट्रांस व्यक्तियों को सुरक्षित जगह देने का दावा करते हैं। ये बुनियादी सुविधाएं प्रदान करते हैं जैसे कि खाना, स्वास्थ्य सेवा, और मनोवैज्ञानिक नसीहत। यहाँ अन्य सेवाएं, जैसे अंग्रेज़ी बोलना सिखाना, हस्तकला प्रशिक्षण, कंप्यूटर, और सौंदर्यीकरण कोर्स भी दी जाती हैं। 

मैं दिल्ली के गरिमा गृह में कुछ बार गया हूँ। वहाँ के निवासी आश्वस्त और ज़िंदा-दिल हैं। वहाँ की एक आवासी, जो पंजाब के अबोहर शहर में अपने पिता और भाई के प्रपीड़न से बचकर आईं थीं, बोलीं कि ऐसे लोगों से पहचान बनाना बहुत अच्छा लगता है जिनके अनुभव अपने से मिलते हैं, जिनसे भेदभाव का डर नहीं रहता है।

लेकिन ये गरिमा गृह ट्रांस लोगों को एक साल से ज़्यादा ठहरने की इजाज़त नहीं देते और इस दौरान आवासीयों से आत्म-निर्भर बनने के कौशल सीख जाने की अपेक्षा करते हैं। कुछ कार्यकर्ता कहते हैं कि ये मुमकिन नहीं है। “हिंसात्मक जगहों से बचकर आए ट्रांस लोगों के आर्थिक स्वतंत्रता पाने के लिए एक साल काफ़ी नहीं है,” मित्र ट्रस्ट की संस्थापक रुद्राणी छेत्री ने कहा। “नई डगर पर चलने से पहले उन्हें बहुत मनोवैज्ञानिक सलाह की ज़रूरत होती है और अपनी पहचान से जुड़े मसलों को सुलझाना होता है।”

कभी-कभार ये सरकार-संचालित आश्रय-घर भी हिंसा के शिकार हो जाते हैं। 21 जूलाई, 2022, आधी-रात के बाद, दिल्ली और उत्तर प्रदेश पुलिस, दिल्ली के गरिमा गृह में घुसकर जबरन एक ट्रांस पुरुष को उठा ले गई। उस ट्रांस पुरुष के नाम उनके परिवार ने उत्तर प्रदेश में लापता की रिपोर्ट दर्ज की थी। लेकिन पुलिस के पास न तो आवास-घर में आने का कानूनी वॉरंट था, न ही उन्होंने ट्रांस पुरुष को ले जाने से पहले उनकी सहमति ली। पुलिस ने इस ज़बरदस्ती का विरोध करते सह-आवासीयों पर शारीरिक हिंसा भी की। बाद में सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय ने इस वाक़िये पर जांच करवाई और ग़ैर-क़ानूनी ढंग से उस बालिक ट्रांस पुरुष को ले जाने पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस को सख़्त फटकार लगाई। 

हालांकि गरिमा-गृह ख़ास तौर पर ट्रांस लोगों के लिए हैं, भारत में ज़्यादातर सरकारी आश्रय-घर केवल आदमियों और औरतों के लिए हैं, इस वजह से ये ट्रांस लोगों के लिए असुरक्षित हैं। न्यायविदों के अंतरराष्ट्रीय आयोग (आई.सी.जे) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, एक क्वीयर औरत ‘क,’ ने अपने ट्रांस मर्द साथी ‘ख’ के संग गुजरात के एक महिला आश्रय-घर में रहने के अनुभव को “मानसिक यातना’ बताया। आश्रय-गृह के कर्मचारियों ने ‘ख’ को महिलाओं के कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया, भले ही वे ऐसा करने में सहज और सहमत नहीं थे और कर्मचारी अक्सर ‘क’ को कहते थे कि “‘ख’ अच्छी नहीं है, वह धूम्रपान करती है और वह शराब पीती है”। दोनों ने तीन महीने बाद आश्रय-घर को छोड़ दिया।

छोटे शहरों में ट्रांस और क्वीयर लोगों के आश्रय-घरों की ख़ासकर कमी है। पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में पुलिस से सुरक्षा मांगते क्वीयर और ट्रांस लोगों की गुहार पुलिस देबोश्री बागची तक पहुँचाती है जो जलपाईगुड़ी उत्तरायण’ नामक लैंगिक और यौनिक अधिकार संस्था चलाती हैं। “जब तक वो कोलकाता या अन्य बड़े शहर नहीं चले जाते, मेरा घर उनके लिए अस्थाई आश्रय-घर का काम देता है,” बागची ने बताया।

 घर कहने को कोई जगह नहीं 

अल्सी में दोपहर ढलने का वक़्त था। बॉबी बिस्तर में लेटीं मोबाइल पर अपने नृत्य प्रदर्शनों की वीडियो देख रही थीं, कुछ पर मुस्कुरा रही थीं। इनमें से एक वीडियो मेहंदी की रस्म की थी। उसमें बॉबी तोतई साड़ी, सुनहरा ब्लाउज़, और चमकीले कमर-बंध पहने हुए 80 के दशक के एक बॉलीवुड गाने पर नाच रहीं थीं। “ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना ना दोबारा, अब हम तो भये परदेसी, के तेरा यहाँ कोई नहीं…”। इस मार्मिक गाने में दुल्हन अपने ही पैतृक घर में अजनबी हो जाने की बात कहती है। 

वो वीडियो देखते हुए बॉबी एक पल रुकीं, बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोलींः “ये हमारी कहानी है। घर कहने को कोई जगह ही नहीं है ।”

 

लेखक: मनु मोदगिल

अनुवाद: अक्षिता नागपाल

संपादन – संध्या 

इलस्ट्रेटर: मृणालिनी

 

This story is reported and produced by queerbeat, an independent collaborative journalism project focused on deeply and accurately covering LGBTQIA+ persons in India, in collaboration with Behanbox  and Khabar Lahariya.