कोरोना महामारी आने से आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता का काम बहुत बढ़ गया। इन लोगों को और काम दे दिया गया। इस काम की रिपोर्ट संसाधनों के अभाव में भी टेक्नोलॉजी और इंटरनेट के माध्यम से हर रोज स्वास्थ्य विभाग को पेश करना होता है। सरकार की तरफ से स्मार्टफोन तो दिया गया लेकिन बड़े समूह के बीच एक स्मार्टफोन। उसका खर्च और नेटवर्क न रहने की दिक्कतें उनके काम में दिक्कतें पैदा करती हैं। यही नहीं उनको इस काम के बदले में नाममात्र के लिए पैसा दिया गया। कोरोना महामारी से काम के दौरान खुद की सुरक्षा के टिप्स स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने दिए तो लेकिन सुरक्षा व्यवस्था नहीं की गई।
अगर की गई तो फौरी तौर पर सिर्फ एक ही बार। ये कार्यकर्ता स्वास्थ्य विभाग की वह कड़ी है जो गांव को अस्पताल से जोड़ती है। बांदा मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर कमासिन ब्लाक का गांव सांडासानी की रहने वाली लगभग 32 वर्षीय और दसवीं पास सुशीला यादव जो संगिनी पद पर 2013 से कार्यरत हैं। उन्होंने 2007 में आशा कार्यकर्ता के पद पर नौकरी पाई थीं। संगिनी के अंडर में कई आशा कार्यकर्ता काम करती हैं जैसे सुशीला के अंडर में सांडासानी, छिलोलर, जामू, धुंधुई, भीती, तेरा गांव की आशा काम करती हैं। मतलब संगिनी का पद आशा से ऊपर का होता है।
इन्होंने बताया कि लगभग दो साल पहले इनको स्मार्टफोन मिला था ताकि वह अपनी आशा कार्यकर्ताओं और अपना खुद का काम अपने अधिकारियों को व्हाट्सएप के माध्यम से भेज सकें। जब कोरोना आया तो इसी फोन के माध्यम से गांव में आये प्रवासी मजदूरों की फ़ोटो, उनका सर्वे, उनके साथ बातचीत, उनके आंकड़े, उनके साथ जागरूकता जैसे के तमाम काम इस फोन से ही भेजे गए। इंटरनेट का खर्च उन्होंने खुद उठाया और नेटवर्क की दिक्कतों का भी सामना किया।
आशाओं की बात करें तो चित्रकूट जिले की छत्तीस वर्षीय माया देवी गौतम 10वीं पास करने के बाद 2006 से आशा के पद पर कार्यरत हैं। कृषि कार्य से घर खर्च न चल पाने, बच्चों की पढ़ाई और खुद की जरूरतों ने इस जॉब को करने के लिए मजबूर किया। कोरोना के बाद से उनके पास बहुत काम बढ़ गया। वैसे भी स्वास्थ्य विभाग बेहिसाब काम लेता है उनसे और कोरोना ने और काम बाधा दिया। बदले में मानदेय के नाम पर सिर्फ कुछ ही रुपये। जो कीपैड फोन विभाग से मिले थे उनमें नेटवर्क नहीं रहता। ऊपर से काम की फ़ोटो वीडियो मांगे जाते हैं तो उसके लिए किसी से फोन मांगकर व्यवस्था करते हैं। विभाग की तरफ से यह खर्च भरे तो नहीं दिया जाता।
बांदा जिले की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अड़तालीस वर्षीय रूखमणी देवी यादव कमासिन ब्लाक के तिलौसा गांव से हैं। इंटर तक की पढ़ाई करने के बाद 1995 से कार्यरत हैं। उनके यहां धात्री 12, गर्भवती 12, 3-6 साल के बच्चे 91, सात माह से तीन वर्ष के बच्चे 57 और किशोरियां 45-50 हैं। उनके कार्यक्षेत्र की जनसंख्या एक हज़ार तीन सौ है। इसीतरह चित्रकूट जिले की मिनी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बत्तीस वर्षीय रेनू मौर्या एमएसडब्ल्यू की डिग्री करने के बाद 13 सितम्बर 2011 से नौकरी कर रही है। चार हज़ार दो सौ रुपये मानदेय मिलता है। वह कुशवाहा जाती से हैं।
गांव और खुद का विकास और नाम कमाने के लिए उन्होंने जॉब शुरू की। इन दोनों आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने बताया कि कीपैड फोन मिला था बहुत पहले लेकिन उससे सिर्फ बात हो सकती है। अब जब कोरोना आया तो काम की रिपोर्ट फ़ोटो और वीडियो के साथ मांगा गया। उनके पास फोन न होने के कारण यह रिपोर्ट भेजने में बहुत दिक्कत आई। किसी आशा कार्यकर्ता, प्रधान या आसपास के लोगों से स्मार्टफोन लेकर इन रिपोर्ट को किसी तरह भेजते रहते हैं।
बांदा जिले में कुल 1705 आंगनबाड़ी केन्द्र हैं जिसमें 231 आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के पद खाली हैं और लगभग 1400 आशा कार्यकर्ता कार्यरत हैं। इन सब की वह सारी व्यवस्था और सुरक्षा को लेकर बांदा जिले के मुख्य चिकित्साधीक्षक (सीएमओ) डॉक्टर नरेंद्र देव से बातचीत की गई। इस दौरान ऐसा लगा कि वह बिल्कुल अनजान हैं इन सब बातों से। बहुत मुश्किल से उन्होंने ऑफ कैमरे बड़ी ही असंवेदनशीलता से जवाब दिया। बोले ये स्वास्थ्य कर्मी पहले से भी ऐसे काम करते चले आ रहे हैं तो कोई स्पेशल सुरक्षा और प्रोत्साहन क्यों? हां जिन्होंने अच्छा काम किया उनको प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया। ऐसा कोई शासनादेश भी नहीं था कि उनके लिए कोई स्पेशल इंतज़ाम किये जाएं।