खबर लहरिया Blog भारतीय भाषाओं की बात, लेकिन मतलब सिर्फ हिंदी? दक्षिण में बढ़ता विरोध और सामाजिक सच

भारतीय भाषाओं की बात, लेकिन मतलब सिर्फ हिंदी? दक्षिण में बढ़ता विरोध और सामाजिक सच

अमित शाह का ‘अंग्रेज़ी बोलने पर शर्म’ वाला बयान दिखाता है कि न वो केवल दूसरी भाषाओं को अपनाने के खिलाफ हैं बल्कि इस सच्चाई को भी नज़रअंदाज़ करते दिखते हैं कि भारत में अंग्रेज़ी पढ़ाई नौकरी और बराबरी पाने का एक ज़रूरी ज़रिया बन चुकी है। 

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सांकेतिक तस्वीर (फोटो साभार:हिंदुजा)

लेखन-हिंदुजा

अमित शाह का बयान और बच्चों को इंग्लिश में बात करने को कहने पर ABVP की आपत्ति  

19 जून को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आईएएस अधिकारी आशुतोष अग्निहोत्री की पुस्तक ‘मैं बूंद स्वयं, खुद सागर हूं’ के विमोचन पर एक बयान दिया जिसने भाषा और पहचान को लेकर एक बार फिर बहस छेड़ दी। 

शाह ने कहा, “अपने जीवनकाल में हम ऐसा देश देखेंगे जहां अंग्रेजी बोलने वालों को शर्म आएगी, और मैं मानता हूँ कि हमारे देश की भाषाएँ हमारी संस्कृति के गहने हैं। इन भाषाओं के बिना हम भारतीय ही नहीं रह जाते। हमारे देश, इसके इतिहास, इसकी संस्कृति, हमारे धर्म को समझना है तो वह किसी विदेशी भाषा में नहीं, केवल अपनी मातृभाषाओं में ही संभव है।”

हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओँ की बीजेपी की राजनीति से सब वाकिफ हैं और ये राजनीति ज़मीन पर भी उतरती है। अमित शाह के बयान वाली सोच ही मध्य प्रदेश के गुना में एक कॉन्वेंट स्कूल की प्रिंसिपल पर सिर्फ बच्चों से यह कहने पर हमला कर देती है की वो “अंग्रेज़ी में बोलें”। ABVP कार्यकर्ता स्कूल में घुसकर हंगामा करते हैं, प्रिंसिपल से माफ़ी मनवाते हैं, FIR दर्ज होती है और आरोप लगाते हैं कि धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं। एबीवीपी ये तक मांग करती है कि या तो स्कूल बंद किया जाए या स्कूल में हर दिन “जय श्री राम” का नारा लगाया जाए। ये रिपोर्ट  न्यूज़लॉन्ड्री मेँ छपी। इतना ही नहीं, एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने स्कूल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री मोहन यादव की तस्वीरें न होने पर भी सवाल उठाये, जबकि स्कूल में महात्मा गांधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तस्वीरें दीवार पर लगाई गई हैं।

आपको बता दें की बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और महात्मा गाँधी को अंग्रेजी आती थी। अमित शाह, प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री मोहन यादव की अंग्रेजी की समझ या उस भाषा में रूचि कम रही है। ये कोई गर्व या शर्म की बात नहीं है। मगर अपनी समझ और रूचि न होने पर उस भाषा का खंडन करना ग़लत है खासकर तब जब उन्हें पता है की अंग्रेजी सीखना आज के दौर में कितना ज़रूरी है। वरना अमित शाह की खुद की ही सरकारों ने अंग्रेज़ी को बढ़ावा देने की कोशिश न की है। उत्तर प्रदेश में 2021 में करीब 15,000 सरकारी स्कूलों को अंग्रेज़ी माध्यम में बदला गया — यह दावा करते हुए कि इससे बच्चों को मिशनरी और कॉन्वेंट स्कूलों के बराबर शिक्षा मिलेगी।

बीजेपी की अंग्रेज़ी भाषा को लेकर असहजता कोई नई बात नहीं है। लेकिन हकीकत यह है कि अंग्रेज़ी आज भारत में एक ज़रूरी ज़रिया बन चुकी है। क्यों अंग्रेजी बोलने वालों को ज़्यादा महत्व मिलता है? क्यों देश के सारे अच्छे शैक्षिक संस्थान अंग्रेजी में पढ़ाते हैं? अभिभावक क्यों बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने चाहते हैं?

क्या है सामाजिक सच?

अगर गृह मंत्री यह मानते हैं कि भविष्य में अंग्रेज़ी बोलना शर्मनाक होगा, तो शायद वो उस सामाजिक संरचना से वाकिफ नहीं हैं जिसमें अंग्रेज़ी बोलने वाले अब भी ऊँचे दर्जे के माने जाते हैं। आंकड़े बताते हैं की अंग्रेज़ी न केवल शिक्षा बल्कि वर्ग, जाति और धर्म से भी जुड़ी हुई है।

लाइव मिंट की एक रिपोर्ट (2019) के अनुसार, 2011 की जनगणना के अनुसार, अंग्रेज़ी 2.56 लाख लोगों की पहली भाषा (मातृभाषा) है, 8.3 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा है, और 4.6 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा है। अंग्रेज़ी, हिंदी के बाद देश में दूसरी सबसे ज़्यादा बोले जाने वाली भाषा है। अंग्रेजी के बाद बंगाली, मराठी, तेलुगु, तमिल आती हैं। 

हमारे देश में अंग्रेजी बोल पाना और भी चीज़ों से जुड़ा है। ये केवल भाषा नहीं, साक्षरता, वर्ग जाति आदि को भी दर्शाती है। यही वजह है की हर तीन में से एक ग्रेजुएट अंग्रेज़ी बोल सकता है। अंग्रेज़ी बोलने की क्षमता में धर्म और जाति का भी बड़ा असर है। 15% से ज़्यादा ईसाई अंग्रेज़ी बोल सकते हैं, जबकि हिंदुओं में यह संख्या 6% और मुसलमानों में 4% है। कोई ऊंची जाति का व्यक्ति, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति की तुलना में तीन गुना ज़्यादा संभावना रखता है कि वह अंग्रेज़ी बोले।

इन आंकड़ों के अलावा, अंग्रेजी किताबें न पढ़ पाने से हम वैचारिक रूप से भी पीछे रह जाते हैं। जितनी भाषा आएगी उतना हम देश दुनिया को समझ सकते हैं और क्यूंकि इंग्लिश इतनी प्रचलित भाषा है की ज़्यादातर सभी किताबें, रिसर्च पेपर्स, रिपोर्ट्स, विचार इस भाषा में मिल सकते हैं तो इंग्लिश सीखना ज़रूरी हो जाता है। ज़्यादा भाषाएँ खासकर इंग्लिश सीखने को इसीलिए प्रेरित किया जाता है क्यूंकि वो हमारे लिए बहुत से दरवाज़े खोलती है। 

भारतीय भाषा से अमित शाह का मतलब सिर्फ हिंदी क्यों लगती है?

यह बयान इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि मोदी सरकार पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि वो हिंदी और संस्कृत को प्राथमिकता देती है, जबकि अन्य भाषाओं की उपेक्षा होती है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने 2014-15 और 2024-25 के बीच संस्कृत के प्रचार-प्रसार पर 2532.59 करोड़ रुपये खर्च किए, जो दूसरी पांच शास्त्रीय भारतीय भाषाओं – तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओडिया पर किए गए 147.56 करोड़ रुपये के संयुक्त खर्च का 17 गुना है। इस प्रकार संस्कृत के लिए प्रतिवर्ष (औसतन) 230.24 करोड़ रुपये तथा अन्य पांच भाषाओं के लिए 13.41 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च होता है। 

महाराष्ट्र में जहाँ बीजेपी और शिव सेना (शिंदे) की सरकार है वहां भी ‘हिंदी थोपने’ पर विवाद चल रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने पिछले मंगलवार यानी 17 जून को एक संशोधित आदेश जारी करते हुए कहा कि अब राज्य के सभी स्कूलों में हिंदी तीसरी भाषा के तौर पर डिफ़ॉल्ट (यानी पहले से तय) होगी। अप्रैल में सरकार ने एक आदेश में कहा था कि सभी मराठी और इंग्लिश मीडियम स्कूलों में प्राइमरी छात्रों के लिए हिंदी तीसरी भाषा के तौर पर अनिवार्य होगी। इस फैसले के बाद विपक्षी महा विकास अघाड़ी और यहां तक कि बीजेपी के करीब मानी जाने वाली राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने भी इसका विरोध किया था। किसी ने कहा की तीसरी भाषा की ज़रुरत ही नहीं है बल्कि दूसरों का तर्क था की आदेश में कहा गया है कि एक स्कूल के एक क्लास में करीब 20 ऐसे छात्र होने चाहिए जो हिंदी के अलावा कोई और भाषा सीखना चाहते हैं तभी उस भाषा के लिए कोई टीचर उपलब्ध कराया जायेगा। इस आदेश से फिर से हिन्दी का दबदबा लाने की कोशिश है ऐसा विरोध करने वालों का कहना है। 

तो अमित शाह जब भारतीय भाषा कहते हैं तो पहली बात वो केवल हिंदी या हिंदी राज्यों में बोली जाने वाली भाषाओँ पर संकेत करते हैं ऐसा माना जाता है और इस बयान से भी यही निकल कर आता है। और दूसरी बात ये है की ये कहना की किसी को कोई भाषा बोलने पर शर्म आएगी बहुत बचकानी, अपरिपक्व और असंवेदनशील है। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि विपक्ष, खासकर गैर-हिंदी भाषी राज्य, अमित शाह पर हिंदी और हिंदी भाषी राज्यों की भाषाओं की ओर झुकाव होने पर सवाल उठाये। बीजेपी का हिंदी थोपने से पुराना रिश्ता रहा है। भारतीय जनसंघ (जो अब बीजेपी है) ने ही “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” का नारा दिया था। जब यह नारा विवादों में घिर गया और दक्षिण भारत में संघ के विस्तार की कोशिशों से टकराने लगा, तो इसे चुपचाप दबा दिया गया।

राजनीतिक विश्लेषक का कहना रहा है कि बीजेपी का हिंदी को ज़बरदस्ती बढ़ावा देना दरअसल भारत की विविधता और अलग-अलग भाषाओं की पहचान को नज़रअंदाज़ करने की रणनीति का हिस्सा है।

शाह का बयान नाम मात्र से मातृभाषाओं की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला लग सकता है लेकिन हकीकत यही है कि अंग्रेज़ी भारत में सिर्फ भाषा नहीं, बल्कि एक सामाजिक स्थिति है। यह बयान इसलिए भी संवेदनशील हो जाता है क्योंकि यह दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से उन लोगों को प्रभावित करता है जो हिंदी नहीं बोलते और जिनके लिए अंग्रेज़ी एक संपर्क भाषा है। केरल की शिक्षा मंत्री आर. बिंदु और सामान्य शिक्षा मंत्री वी. शिवनकुट्टी ने शाह के बयान की आलोचना करते हुए कहा कि यह सोच “संकीर्ण और सीमित” है। बिंदु ने डेक्कन हेराल्ड से कहा, 

“अंग्रेजी दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है — संवाद और इंटरनेट दोनों के लिए। यह कहना कि बच्चों को अंग्रेजी नहीं सीखनी चाहिए या उन्हें शर्म आनी चाहिए — इससे बच्चों की दुनिया और संकीर्ण हो जाएगी। भारत कोई अलग-थलग टापू नहीं है, इसलिए अंग्रेजी सीखना अब ज़रूरत बन चुका है।”

दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध इतना ज़्यादा है की 2022 में तमिलनाडु में डीएमके के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता थंगावेल (85) ने हिंदी थोपे जाने के खिलाफ विरोध जताते हुए खुद को आग लगा ली। उन्होंने एक कागज पर लिखा था – “जब तमिल है तो हिंदी थोपने की ज़रूरत नहीं।”

बीजेपी को हिंदी की ज़रुरत क्यों?

अमित शाह और उनकी पार्टी के लिए “हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान” वाली राजनीति न सिर्फ एक वैचारिक रेखा है, बल्कि उनका मुख्य वोटबैंक भी इसी पर टिका है इसलिए यह उनके लिए राजनीतिक रूप से ज़रूरी हो जाता है कि इस भावनात्मक मुद्दे को लगातार जीवित रखा जाए।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का उद्देश्य है — आपको आपके गांव, आपकी मेहनत, आपकी कठिन परिस्थितियों और आपकी भाषा पर गर्व कराना है। लेकिन असल में यह प्रक्रिया आपको सच से थोड़ा दूर ले जाती है — एक ऐसा भावनात्मक गर्व पैदा करती है, जिसमें आप अपने संघर्षों की आलोचना नहीं करते, बल्कि उन्हें गर्व से देखने लगते हैं। और जब आप ऐसा महसूस करने लगते हैं, तभी आप उनकी विचारधारा के साथ जुड़ते हैं।

असल मुद्दा बहुत सीधा है: आप कई भाषाएं जानते हुए भी अपनी मातृभाषा को अहमियत दे सकते हैं। भाषा की पहचान व्यक्तिगत होती है और यह तय करने का अधिकार न सरकार का है, न किसी नेता का। सरकार का काम है कि वह हर नागरिक को सभी भारतीय भाषाएं यहाँ तक की दूसरे देशों की भाषाएं सीखने और समझने का समान अवसर दे। 

लेकिन जब केंद्रीय गृह मंत्री यह कहते हैं कि ‘इंग्लिश भाषा बोलने पर आपको शर्म आनी चाहिए’, तो यह एक लोकतांत्रिक विचार नहीं, बल्कि एक उग्र राष्ट्रवादी सोच को दर्शाता है — और यही सोच हमारे देश की विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ख़तरा बन सकती है।

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