सिलबट्टे का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से मसाले व चटनी पीसने के लिए पहले घरों में इस्तेमाल किया जाता था। हालांकि, अब इसका उपयोग कुछ कम हो गया। पर सिलबट्टे पर पिसी हुई चटनी व मसालों का स्वाद कुछ अलग ही होता है। आज भी ऐसे कई घर हैं जहां सिलबट्टे का इस्तेमाल किया जाता है। चलिए जानते हैं आखिर क्या है सिलबट्टा।
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सिलबट्टा शब्द कैसे बना?
सिलबट्टा दो शब्दों से बना है, सिल और बट्टा। सिल एक सपाट पत्थर का स्लैब होता है जिसे आसानी से पीसने के लिए खुरदरा किया जाता है। बट्टा (जांता) एक बेलनाकार पत्थर होता है जिसके ज़रिये से किसी भी चीज़ को पीसा जाता है। इसका इस्तेमाल आमतौर पर गीली चटनी या पेस्ट बनाने के लिए किया जाता है।
सिलबट्टा क्या होता है?
सिलबट्टा एक घरेलू उपकरण है जिसका इस्तेमाल घरों में मसाला आदि पीसने के लिए किया जाता है।
सीतामढ़ी की पूजा बनाती हैं सिलबट्टा
बिहार के कई जिलों के घरों में आज भी सिलबट्टे का इस्तेमाल पारंपरिक तौर पर किया जाता है। अगर सिलबट्टे का इस्तेमाल करने वाले हैं तो इसे बनाने वाले भी हैं। खबर लहरिया ने अपनी रिपोर्टिंग में पाया कि सीतामढ़ी जिले के मेजरगंज ब्लॉक की महिला पूजा देवी लगभग 10 सालों से सिलबट्टे बनाने का काम कर रही हैं।
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पूजा देवी, सिलबट्टा बनाने के लिए सीतामढ़ी से पत्थर का सिलाप खरीद कर लाती हैं। फिर वह उसी से सिलौटी और जांता बनाती हैं। एक सिलाप में तीन सिलौटी व जांता की जोड़ी बन जाती है। वह छैनी और हथौड़ी की मदद से सिलाप पर नकाशी करती हैं। एक सिलौटी बनाने में उन्हें कम से कम दो घंटों का समय लगता है।
पूजा के पति गांव-गाँव जाकर सिलौटी बेचते हैं। किसी दिन सभी सिलौटी बिक जाती है। किसी दिन खाली हाथ भी घर वापस आना पड़ता है। सिलौटी बनाना उनका खानदानी काम है। बरसात के समय सिलौटी की बिक्री कम होती है।
सिलौटी बनाते समय पत्थर उड़कर उनके आँख में चले जाते हैं। वह आँखों पर चश्मा भी नहीं लगा सकते। उनका कहना है कि अगर आँखों में पत्थर जाएगा तो वह निकल भी जाएगा पर अगर सीसा गया तो नहीं निकल सकता।
पूजा एक पत्थर 400 रूपये में खरीद कर लाती हैं। वहीं एक सिलौटी 350 रुपयों में बेचती है।
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