15 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। इसके लिए दिन भी तय है कि इस दिन अलग अलग देश, राज्य, जिला, शहर, गांव, व्यक्ति लोकतंत्र के बारे में खुलकर बात कर सके और आज़ादी के लिए अपनी आवाज़ भी बुलन्द कर सके। लोकतंत्र को लेकर जिस तरह का माहौल है वह किसी से छिपा नहीं हैं, मेरे तो हज़ार सवाल हैं, क्या आपके भी हैं तो आईए मिलकर इसमें चर्चा करते हैं। मैं बधाई नहीं दे सकती इस दिवस को मनाने को लेकर लेकिन हां उनको बहुत बहुत बधाई जिन्होंने इस दिवस को मनाने की सोची।
पूरी दुनिया में 15 सितंबर को लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य है कि बेहतरीन जीवन और सुशासन पद्धति को दुनिया में अंतिम छोर तक स्थापित करने का। लेकिन आज इसके मायने बदल गए हैं और लोकतंत्र का आधुनिक स्वरूप आज चुनाव प्रक्रिया और उसके लोकतांत्रिक प्रावधानों के आधार पर निर्धारित होता है। इसका आरंभ संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2007 में एक प्रस्ताव पारित करके किया गया ताकि विश्व में लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जा सके और उसे मजबूत बनाया जा सके। इसे पहली बार वर्ष 2008 में मनाया गया।
3 लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए के लिए ही नहीं है इसका व्यापक अर्थ है सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक लोकतंत्र। एक देश सही रूप में तभी लोकतांत्रिक है जब देश में रहने वाले सभी लोगों को समान समाजिक अवसर और प्रतिष्ठा प्राप्त हो। देश के सभी लोगों को सामान आर्थिक अवसर मिलें और देश के सभी लोगों को राजनीति में एक समान भागीदारी प्राप्त हो।
आज के माहौल और स्थिति को देखते हुए क्या आपको लगता है कि लोकतंत्र के कोई मायने हैं? नहीं न। मज़ेदार बात यह कि भारत मे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन यहां सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट में कोई लोकतंत्र नहीं रह गया है। सबूत के तौर पर आप कह सकते हैं कि देश के लगभग साठ करोड़ मतदाता वोट करके सरकार चुनते हैं। वहीं देशों का मुखिया देश अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होता है। भारत में सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट में कोई लोकतंत्र नहीं रह गया है। सामाजिक न्याय की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज अपनी बेंचो पर सामाजिक न्याय की चिंता नहीं करते हैं। दुनिया के न्यायिक इतिहास में जहां सुप्रीम कोर्ट के जज अपने ही केस की सुनवाई खुद करके खुद को बरी करते हो ऐसा लोकतांत्रिक सिस्टम कहीं और देखने को नहीं मिल सकता है सिवाय भारत के।
लोकतंत्र देश जरूर है लेकिन कितना लोगों के लिए कितना लोकतांत्रिक है यह कहने और आपसे बताने की नहीं हैं। मैंने ऐसे मामलों पर बहुत रिपोर्टिंग की है जो न्याय की उम्मीद लिए लोग उम्र गुजार देते हैं। रिपोर्टिंग के आधार पर मैं ये कह सकती हूँ कि लोकतांत्रिक देश में न्याय के लिए लोग भटकते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, अतर्रा निवासी एक महिला पति के खत्म होने पर चित्रकूट के एक प्राइवेट अस्पताल में जॉब करने लगी। कोविड-19 के कारण उसको घर वापस आना पड़ा। महिला ने आरोप लगाते हुए कहा कि ससुराल वालों ने उसको उसके पति के हिस्से वाले घर में रहने नहीं दे रहे और मारपीट करते हैं। अतर्रा थाने गई दरखास देने लेकिन कार्यवाही नहीं हुई तब एसपी से न्याय की गुहार लगाई। तब जाकर मामला दर्ज हुआ पुलिस में। न्याय के लिए उसको कितनी बार पुलिस कार्यालय के चक्कर काटने पड़ेंगे वही बता पाएगी। कहने का मतलब लोकतांत्रिक देश में लोगों को न्याय पाने के लिए दर दर भटकना पड़ता है।
5 मुफ्तखोरी की राजनीतिक संस्कृति ने भारत में नैतिकता और नागरिक बोध का भी खतरनाक संकट खड़ा कर दिया है। आज पूरे मुल्क में लोकतंत्र मतलब चुनाव जीतने की मशीन बनकर रह गया है। लोककल्याण का संवैधानिक लक्ष्य सत्ता के संघर्ष में पिस चुका है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र जिन लोगों को देखकर बनता था वे खुद लोकतंत्र पर ताला लगाकर परिवार के शो रूम खोलकर मजे कर रहे हैं।
भारत के सभी राजनीतिक दल घनघोर अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से संचालित है। जाहिर है जब दलों में ही लोकतंत्र की जगह परिवारवाद है तो भारतीयों के लोकजीवन में लोकतंत्र कहां से आएगा? न्यायपालिका में परिवारवाद , विधायिका में परिवारवाद और कार्यपालिका में भृष्टाचार, कैसे आदर्श लोकतंत्र को खड़ा कर सकता है? आज लोकतंत्र सच मायनों में सत्ता का खेल रहा गया है।