सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख ने एकसाथ मिलकर पाठशाला में दलित-पिछड़े जाति के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। इस तरह उन्होंने आधुनिक भारत में महिलाओं की शिक्षा की बुनियाद रखी। फूले दंपति ने 1848 से 1852 तक पूरे महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले। ब्रिटिश सरकार ने उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें सम्मानित किया था।
लेखिका – वन्दना यादव
सम्पादन – संध्या
Savitribai Phule: आखिरकार इंतज़ार खत्म हुआ। हर साल होने वाली ‘रस्म बन गई’ मीडिया रिपोर्टिंग अब और नहीं होगी। इसके बचाव को लेकर कोई आंदोलन या प्रदर्शन भी नहीं करने होंगे। किसी दौर में स्वर्णिम माने जाते रहे इतिहास के वर्तमान के बोझ के नीचे दबने से हम सब बच गए। एक महानगरीय बाजार के बीच में खड़े, देश की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले द्वारा स्थापित स्कूल की जर्जर हो चुकी इमारत के नीचे दब कर मर जाने से हम सब बच गए हैं। दरअसल कहा यह जाना चाहिए कि हमें एक बोझ से मुक्ति मिल गई है।
वर्ष 2023 के नवंबर माह के अंतिम दिन में मैं अपनी बेटियों के साथ पुणे की उस इमारत को तलाश रही थी जो हम भारतवासियों के गौरव की परिचायक रही है। एक-दो जगह पर पहुँचने के बावजूद हम वहाँ नहीं पहुँच सके जिस जगह की तलाश में हम निकले थे। गूगल देवता ने हाथ खड़े कर दिये थे। हम तीनों माँ-बेटियों ने अपने-अपने संपर्क खंगाले, और दोपहर ढलने से पहले ही अपनी मंज़िल पर पहुँच गए। वही मंज़िल, जिसके बारे में 5 दिसंबर को समाचार मिला कि पूणा नगर पालिका ने उस इमारत को जमींदोज कर दिया है। सिर्फ पुणे वासियों या अकेले महाराष्ट्र के लोगों को नहीं, हम सबको, या ये कहूं कि समूचे भारतवासियों को पुणे नगर-निगम ने एक बोझ से मुक्ति दिलवा दी है, तब सही होगा।
जैसे ही यह खबर मिली, मैं निराशा से भर उठी। जब से पुणे से लौटी थी, अपने संपर्क के अधिकतर सूत्रों से सावित्रीबाई फुले द्वारा स्थापित स्कूल की खंडहर हो चुकी इमारत के लिए कुछ किये जाने के लिए बात कर रही थी। सब एक-दूसरे का नाम लेकर बात को टाल रहे थे। मैं किसी करिश्मे से इस धरोहर को बचा लिये जाने की प्रार्थना कर रही थी।
5 दिसंबर की दोपहर भी मैं एक पत्रकार से इसी मुद्दे पर बात कर रही थी कि शाम होने से पहले ही, मेरी तरह अन्य उन लोगों की मेहनत भी थम गई जिन्हें इस विरासत को बचाए रखने की ख्वाहिश थी। यह समाचार बेहद निराशाजनक था। मगर दूसरे ही पल लगा कि नहीं, दरअसल हम सब लंबे समय से इस ख़बर का इंतज़ार कर रहे थे। यदि यह सही नहीं है तो हम इसको बचाने के लिए कुछ ना कुछ तो कर ही चुके होते। इससे साबित हो जाता है कि अब हमारा इंतज़ार वाकई में खत्म हो गया है। हम डाक-टिकट पर तस्वीर छापने से आगे बढ़कर अब विभूतियों के नाम के ‘स्पेशल-डे’ घोषित कर, आत्मग्लानि से मुक्त हो जाने वाले लोग बन गये हैं।
भारत में जाति व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि आज के समय में भी तथाकथित दलित समुदाय के बच्चे को घड़े से पानी पी लेने का दंड देते हुए शिक्षक इतनी बेरहमी से पीट देता कि अंत में बच्चे की मौत हो जाती है। हमारे देश में एक युवा को तथाकथित सवर्ण समाज के समान मूंछें रख लेने पर अपनी जान से हाथ धोना पड़ जाता है। इसी समाज में शादी करने जाते दुल्हे को मार-पीट और अपमान सहना पड़ता है क्योंकि उसने घोड़ी पर चढ़ कर बारात ले जाना की हिमाकत की।
वहीं महिलाओं के हक में तो समाज आज भी बहुत संकीर्ण मानसिकता रखता है। सवर्ण और आरक्षित वर्ग की महिलाएं भी बहुत सारी वर्जनाओं को झेल रही हैं। ऐसे में दलित महिला होने के मायने समझना आज भी आम लोगों के लिए कठिन है।
ऐसी ही दोयम दर्जे की नागरिकता जीने वाली महिलाओं के हक में ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने बदलाव का बीड़ा उठाया था। महिलाओं को शिक्षित करने के लिए फुले दंपती ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्योतिराव फुले ने अपनी पत्नी के मन में शिक्षा की लगन देखते हुए अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित किया। आगे चलकर वह भारत की पहली महिला अध्यापिका बनी। उन्होंने समाज के बहिष्कृत हिस्सों के लोगों, खासतौर पर महिलाओं को शिक्षित करने के लिए 1 जनवरी 1848 में अपने पति के साथ मिलकर एक विद्यालय की शुरुआत की। उस समय भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए पाबंदी थी।
शिक्षा तो दूर की बात उस समय में दस-बारह वर्ष की लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। पुरूषों के लिए बहु-विवाह का प्रचलन था। बड़ी उम्र के पुरुषों से ब्याही युवतियाँ, पति की मृत्यु के बाद विधवा का जीवन जीने और परिवार एवं समाज के पुरूषों के यौन शोषण का शिकार बनती थीं। ऐसे बलात्कार की शिकार महिलाओं और उनके बच्चों को समाज में अपमानित होना पड़ता था। सावित्रीबाई फुले ने ऐसी महिलाओं के लिए प्रसूतीगृह भी खोले, अन्य काम भी किये मगर सबसे पहले उन्होंने महिलाओं को शिक्षित करने के लिए पाठशाला की नींव रखी।
बदलाव की हवा अपने साथ आंधी लेकर आती है। एक ढर्रे पर चल रहे पितृसत्तात्मक सोच के समाज को बदलाव की सुगबुगाहट कैसे बर्दाश्त होती! समाज के विरोध के साथ-साथ सावित्रीबाई फुले को अपने घर में भी विरोध झेलना पड़ा। दरअसल पति से पढ़ने और पढ़ाने की ट्रेनिंग पूरी करने के बाद सावित्रीबाई फुले ने पुणे के महारवाड़ा में लड़कियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। इसमें ज्योतिराव फुले की गुरू और क्रांतिकारी नारीवादी महिला सगुनाबाई ने उनका साथ दिया। इस शुरुआत के कुछ समय बाद फुले दंपती ने सगुनाबाई के साथ भिडेवाडा में अपना स्कूल शुरू किया। जहाँ लड़कियों को साइंस (विज्ञान) और मैथ्स (गणित) भी पढ़ाया जाता था। यह सब सोचना और करना, उस ज़माने के लिए बिल्कुल असंभव बात थी।
इस बदलाव का समाज में विरोध हुआ। धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें धर्म को डुबानेवाली कहा। घर से पाठशाला जाने के रास्ते में सावित्रीबाई पर गंदगी, कीचड़ और गोबर फेंका जाता था। सावित्रीबाई ने बोल कर जवाब देने के स्थान पर काम से जवाब देने को चुना। वे अपने साथ थैले में एक साड़ी लेकर जाने लगीं। पाठशाला पहुंच कर वे रास्ते में गंदी हो गई साड़ी को बदल लेती, और पढ़ाना शुरू कर देती थीं।
अंग्रेजी की कहावत “ब्रेकिंग द ग्लास सीलिंग” की तर्ज पर पहली कील ठोकने वाले को उसके परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। फुले दंपती को भी परिणाम झेलने ही थे। उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा। रहने के लिए उनके पास छत नहीं थी इसके बावजूद वे रूके नहीं। यहाँ उनकी मुलाक़ात फ़ातिमा शेख और उनके भाई उस्मान शेख से हुई। उस्मान शेख ने अपने घर का एक हिस्सा फुले दंपती को रहने और एक हिस्सा सावित्रीबाई को पाठशाला खोलने के लिए दिया।
सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख ने एकसाथ मिलकर पाठशाला में दलित-पिछड़े जाति के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। इस तरह उन्होंने आधुनिक भारत में महिलाओं की शिक्षा की बुनियाद रखी। फूले दंपति ने 1848 से 1852 तक पूरे महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले। ब्रिटिश सरकार ने उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें सम्मानित किया था।
इतनी परेशानियों को झेलकर जिस महिला ने उस दौर में महिलाओं के लिए पाठशाला की शुरुआत की थी, आजादी के पचहत्तर वर्ष बीत जाने के बावजूद हम उस स्कूल को बचाने या जीर्णोद्धार करने में असफल रहे। अनेक शैक्षणिक संस्थानों से पढ़कर निकलने वाले शिक्षित समाज को उस एक पाठशाला की याद भूल गई जिसके ऋण से हम सब चाहकर भी कभी उऋण नहीं हो सकते।
सरकारें बदलती रहीं, ना जाने सिविल सेवा अधिकारियों की कितनी पीढ़ियाँ आईं, ना जाने कितने स्वंय सेवा समूहों ने देशहित में कितना काम किये, जानें महाराष्ट्र और देश भर में कितने अजूबों का निर्माण हुआ मगर इन सबके बावजूद हमसे अपनी एक धरोहर संभाली नहीं जा सकी। चलो, अब हम सब इस बोझ से मुक्त तो हुए। अब हम पर सिर्फ एक “यादगार दिन” मनाने की जिम्मेदारी रहेगी।
सावित्रीबाई पर लिखी ये कविता पढ़ें –
जब हुआ मुझे विद्या का ज्ञान
हो गया मेरा अपमान,
सहे मैंने बहुत से अपशब्द
पर नहीं किया खुद को बद्ध,
लड़ी मैं उनसे(समाज से) अंत तक
दिलाने को शिक्षा का अधिकार
ताकि कोई स्त्री का न कर सके तिरस्कार,
उठा लो तुम भी अपनी कलम
ताकि हो जाये तुम्हें भी ज्ञान
तोड़ सके न तुम्हें कोई
तुम बनों खुद की पहचान,
कहे तुम्हें ये समाज कुछ भी
रोके कितना भी,
तुम डटी रहना
अपनी जिद पर अड़ी रहना,
जब हो जाये तुम्हें शिक्षा का ज्ञान
कर देना शिक्षित तुम अपने समाज को
ताकि मिल सके उन्हें इक आधार
उतार सके वो अपना स्त्री भार ,
बना सके वो अपना इतिहास
कोई न उड़ा सके उसका परिहास ।।
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बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक आलेख है जी
आदरणीया,आप हमेशा ज्ञानवर्धक लिखतीं हैं
आदरणीया,आप हमेशा सामजिक सरोकारों को उठातीं हैं
Ati uttam, sargarbhit lekh. Its a focussed comment on so called political Leaders, social organizations, NGO’s who could not save the initiative efforts in very begining for women education. Savitri bai Phule if honoured n regarded a a complete organization, flow of thoughts n concept fot upbringing of women education in India.
Thanks Dr. Vandana Ji for this informative article. ????????
Satish