बालू-पत्थर के काम का असर गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों पर भी बुरी तरह से होता है। इससे अभी तक दो गर्भवती महिलाओं की मौत भी हो चुकी है।
इस गांव की आधी से ज़्यादा आबादी टीबी की बीमारी से ग्रसित हैं जिसकी वजह यहां का रोज़गार है। यह रोज़गार उन्हें पैसा तो देता है लेकिन यह उनकी बीमारी और मौत की वजह भी बनता है। यहां तक की यह युवा लड़कियों की शादी में रुकावट की वजह भी बन जाता है।
इसकी वजह है यहां के लोगों द्वारा किया जाने वाला बालू-पत्थर का काम। प्रायगराज जिले के शंकरगढ़ ब्लॉक, गांव गाढाकटरा और गुलराहाई की अधिकतर आबादी यही काम करती है।
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शादी में परेशानी
14 वर्षीय कुसुम (बदला हुआ नाम), सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में अपना टीबी का इलाज कराने आई थी। परिवार ने खबर लहरिया से बातचीत में बताया, हम नाम इसलिए नहीं बताना चाहते क्योंकि अगर समाज में या आस-पड़ोस में किसी को पता चल गया कि हमारी बेटी को टीबी की बीमारी है तो आगे उसकी शादी नहीं हो पाएगी।
रोज़ी-रोटी की मज़बूरी है
कलावती नाम की महिला बताती हैं, वह बालू चलाई का काम पिछले 20 सालों से कर रही हैं। जब बालू चालते हैं तो इतना धूल उड़ता है कि पूरा धूल मुंह के अंदर चला जाता है। गांव में सबसे ज़्यादा लोग टीबी से ही बीमार है। उनके पति की मौत भी टीबी की बीमारी से हुई लेकिन यह काम करना उनकी मज़बूरी है। यह काम भी नहीं होगा तो सवाल रोज़ी-रोटी पर आएगा।
आगे कहा, बालू-पत्थर के काम का असर गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों पर भी बुरी तरह से होता है। इससे अभी तक दो गर्भवती महिलाओं की मौत भी हो चुकी है।
खतरा है पर रोज़ पैसे मिल जाते हैं
शंकरगढ़ क्षेत्र में रहने वाले लगभग 75 प्रतिशत आदिवासी परिवारों का पेट बालू-पत्थर के काम से ही भरता है। कोई बालू चलाई का काम करता है, कोई बालू बोरी में भरता है, कोई ट्रक में लोड करता है। इन सभी कामों में खतरा है।
लोग बताते हैं, यह काम करने से उन्हें रोज़ का पैसा मिल जाता है इसलिए उनके लिए यह काम अच्छा रहता है। कहते,”पूरा दिन कितना मुंह में मास्क लगाए जब रोज़ बालू का ही काम करना है।”
मनरेगा में काम करने से उन्हें समय से पैसे नहीं मिलते। यही वजह है कि वह मनरेगा में काम नहीं करना चाहते।
सर्दियों में तेज़ी से फैलती है टीबी की बीमारी
महिलाएं जब काम पर आती हैं तो साथ में अपने बच्चों को भी साथ लाती हैं क्योंकि घर पर उन्हें अकेला छोड़ा नहीं जा सकता। महिलाएं काम करने लगती हैं तो बच्चे मुंह में बालू भर लेते हैं। इसका असर यह होता है कि उनका पेट फूल जाता है या वे टीबी बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं।
लोगों ने कहा, वे गरीब लोग हैं रोज़ कमाने-खाने वाले। उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे इलाज करवा पाएं।
आगे कहा, ‘चाहें जितना बचें, ठंड के मौसम में टीबी की बीमारी ज़्यादा बढ़ती है।’
दो प्रकार से फैलती है टीबी की बीमारी
बढ़ती टीबी की बीमारी को देखते हुए खबर लहरिया शंकरगढ़ के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के टीबी डॉ. धुन्नी प्रसाद से बात की। उन्होंने टीबी से ग्रसित एक गर्भवती महिला का उदाहरण देते हुए बताया कि उनकी तीन महीने की दवा हो चुकी है और तीन महीने की बाकी है। इस साल टीबी के लगभग 469 मरीज़ आये हैं। कारण, गिट्टी-बालू का काम है। आदिवासी परिवार यही काम करते हैं और उनमें दो प्रकार से टीबी की बीमारी दिखती है। पहला फेफड़ों में और दूसरा शरीर के किसी भी अंग,नाखून या बाल की होती है।
टीबी की बीमारी का इलाज अब सरकारी अस्पतालों में फ्री भी है लेकिन सवाल यह है कि क्या आदिवासी व गरीब परिवारों की इसकी जानकारी है? क्या उन तक इन सेवाओं की पहुंच है? लोग इस पर कितना विश्वास कर सकते हैं?
टीबी के इलाज के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए देखें ये खबर
इस खबर की रिपोर्टिंग सुनीता देवी द्वारा की गई है।
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