दिल्ली के कुसुमपुर पहाड़ी दलित बस्ती में महिलाओं के लिए न तो उपयुक्त शौचालय है और न ही पानी की व्यवस्था। दिल्ली जैसे शहर के पॉश इलाकों के बीच इस बस्ती में रहने वाली महिलाओं को शौचालय न होने की वजह से शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है जहां उनके साथ किसी भी तरह की हिंसा होने की संभावना हमेशा रहती है और होती भी है, पर इसके लिए आवाज़ कौन उठा रहा है? यहां रहने वाली दलित बहुजन आदिवासी महिलाओं के साथ हो रही हिंसाओं की बात कौन कर रहा है?
रिपोर्ट व लेखन – संध्या
हर एक महिला को सुरक्षा का अधिकार है। समाज में भिन्न जाति,वर्ग,समुदाय व सामाजिक पहचान से आने वाली महिलाओं को भी जिन्हें समाज सवर्ण व दलित के ढांचे में बांट अधिकार व इंसाफ की लड़ाई लड़ने की बात करता है।
कलकत्ता रेप मामले के बाद देश भर में विभिन्न संगठित महिला समूह राष्ट्रव्यापी “रिक्लेम द नाइट”/Reclaim the night विरोध प्रदर्शन के लिए एकजुट हुए। इन एकजुट आवाज़ों में मांग थी, कार्यस्थलों पर सुरक्षा व हिंसा के प्रति कड़े कदम उठाने को लेकर परन्तु चयनित वर्ग, पहचान व पेशे से संबंधित महिलाओं के लिए, सभी के लिए नहीं।
इस मांग में कहीं भी दलित बहुजन आदिवासी समुदाय से आने वाली महिलाओं को शामिल नहीं किया गया जिनके साथ उनकी जाति के नाम पर सबसे ज़्यादा यौन हिंसाएं व शोषण किया जाता है।
दलित बहुजन आदिवासी समुदाय से आने वाली महिलाओं को भी उनके कार्यस्थलों, उनके घरों में सुरक्षा व आज़ादी मिले, इसके लिए दिल्ली के वसंत विहार के कुसुमपुर पहाड़ी इलाके में जहां रहने व कमाने वाला वर्ग दलित समुदाय से आता है, 18 अगस्त की शाम 7 बजे ‘Women, Reclaim the night’ के साथ हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए व सुरक्षा की मांग करते हुए कैंडल मार्च किया गया। मांग साफ़ थी कि सुरक्षा का अधिकार हर एक महिला का है, महिलाओं के साथ हो रही हिंसाओं के खिलाफ न्याय की मांग सबके लिए है, वहीं सवाल था कि क्या सभी महिलाओं के लिए यह आवाज़ उठाई जा रही है?
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इसका आयोजन ऑल इंडिया सेंट्रल कॉउंसिल ऑफ़ ट्रेड यूनियन, रेवॉल्यूशनरी युथ एसोसिएशन व ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेंस एसोसिएशन द्वारा किया गया था।
“कार्यस्थल पर शोषण व यौन हिंसा का जो सवाल है यह सिर्फ बड़े घरवालों का सवाल नहीं है। ये हमारे समाज के दलित बहुजन आदिवासी महिला मज़दूरों का भी सवाल है और ये लोग जब इसे झेलते हैं तो समाज इसे देखता भी नहीं है”– आकाश (ऑल इंडिया सेंट्रल कॉउंसिल ऑफ़ ट्रेड यूनियन से)
दिल्ली का कुसुमपुर पहाड़ी इलाका जहां अधिकतर कामकाजी दलित महिलायें वसंत कुंज,वसंत विहार, काका विहार इत्यादि जैसी अपार्टमेंट्स में काम करती हैं। यहां से अमूमन दलित महिला कामगारों के साथ यौन शोषण व हिंसा के मामले सामने आते रहते हैं लेकिन कितने दर्ज़ होते हैं इसका कोई जवाब नहीं है। द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, 25 अप्रैल 2024 को वसंत कुंज बी2 ब्लॉक में एक 40 वर्षीय दलित घरेलू महिला कामगार के साथ कार्यस्थल पर हुई हिंसा की एक घटना सामने आई थी। दलित महिला कामगार को स्टोव पर गर्म चाकू से जलाने का मामला सामने आया था जिसमें छोटी-छोटी गलतियों पर मौखिक और शारीरिक तौर पर उसे हिंसा पहुंचाई गई थी।
ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेंस एसोसिएशन के साथ काम करने वाली सना ने खबर लहरिया को बताया कि ये कामगार महिलाएं जब कार्यस्थल से हिंसाओं का सामना करते हुए घर की सड़क पर पहुँचती हैं तो वहां भी उन्हें शोषण व छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। रात की अंधेरी सड़कें जिसे रोशन करने वाले खंभे नहीं हैं वहां दारु पीकर पुरुष उनके साथ शोषण करते हैं। आज भी यह सड़क अँधेरी ही है और हिंसा…..
कुसुमपुर पहाड़ी की निवासी उर्मिला जो मज़दूरों के लिए आवाज़ उठाती रहती हैं उनका कहना था कि कुसुमपुर पहाड़ी की हालत इतनी खराब है कि लड़की अकेले नहीं निकल सकती। एक लड़की अगर कॉलेज से रात में 9 बजे भी आ रही है तो उसका घर में घुसना मुश्किल हो जाता है। यहां पुलिस चौकी भी पास में है लेकिन सुरक्षा कुछ भी नहीं है। यहां पुलिस को 7 बजे से 11 बजे तक खड़ा रहना चाहिए ताकि उस लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ न कर पाए।
साउथ दिल्ली का यह इलाका जहां वसंत विहार का पुलिस स्टेशन भी नज़दीक है इसके बावजूद भी यहां सुरक्षा महिलाओं व लड़कियों के लिए सवाल ही है।
प्रदर्शन के दौरान दर्जन भर पुलिस बल भी बस्ती में मौजूद रही यह सुनिश्चित करने के लिए वहां कोई हिंसा न भड़के। यह पुलिस बल यहां हो रही रोज़ाना की हिंसाओं और छेड़खानी को रोकने के लिए नहीं होता जिसकी बात और मांग यहां की निवासी उर्मिला ने की।
इस दलित बस्ती में न तो उपयुक्त शौचालय है और न ही पानी की व्यवस्था। दिल्ली जैसे शहर के पॉश इलाकों के बीच इस बस्ती में रहने वाली महिलाओं को शौचालय न होने की वजह से शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है जहां उनके साथ किसी भी तरह की हिंसा होने की संभावना हमेशा रहती है और होती भी है, पर इसके लिए आवाज़ कौन उठा रहा है?
क्या जो देश में महिलाओं के लिए सुरक्षा व इंसाफ की मांग को लेकर आंदोलन चलाये जा रहे हैं, वह सभी महिलाओं के लिए हैं?
बुलंद आवाज़ में बस्ती के लोगों को संबोधित करते हुए कहा गया कि जो देश में महिलाओं के लिए सुरक्षा व इंसाफ की मांग को लेकर आंदोलन चलाये जा रहे हैं, उसमें बराबरी नहीं है। अगर होती तो बिहार के मुज़फ्फरनगर में 14 साल की दलित नाबालिग के साथ हुए सामूहिक बलात्कार, एमपी में 6 साल की दलित नाबालिग से बलात्कार व उत्तराखंड में नर्स के साथ हुए बलात्कार के मामलों के खिलाफ भी रौष दिखाया जाता पर नहीं है। यह गुस्सा व आंदोलन चयनित हैं।
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जहां सभी महिलाओं ने सड़कों पर उतर अपनी सुरक्षा की मांग की, हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाई, वहां दलित समुदाय से आने वाली महिलाओं को यह करने पर उनके साथ भेदभाव किया गया, जिसका उदाहरण है मुंबई के तथाकथित पॉश इलाके पवई में 14 अगस्त को आयोजित किया गया प्रदर्शन। हीरानंदानी गार्डन की महिलाओं ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन का नोटिस ज़ारी कर सभी लोगों को गैलेरिया शॉपिंग मॉल के बाहर जोकि एक सार्वजनिक जगह है वहां इकट्ठा होने को कहा था।
इस प्रदर्शन में जय भीम नगर की महिलाएं भी शामिल होने गईं जिनकी बस्ती को कुछ समय पहले ही तोड़ दिया गया था। पॉश जगह से आने वाली एक प्रदर्शनकारी महिला ने उन्हें यह कहकर प्रदर्शन छोड़कर जाने को मज़बूर कर दिया कि, “आपके मुद्दे यहां उठाए गए मुद्दों से अलग हैं।” अन्य ने कहा, “यह केवल हीरानंदानी परिसर के निवासियों के लिए एक विशेष विरोध है।”
यह घटना यह साफ़ बताती है कि समाज में महिलाओं के लिए मांगी जा रही सुरक्षा व हिंसा के खिलाफ न्याय की मांग सबके लिए बराबर नहीं है, यहां तक की सबके लिए भी नहीं है। समाज के एक विशेष तबके से जुड़ी है, उसकी पहचान से जुड़ी है और इसी वजह से समाज में गूंज भी रही है।
ये प्रदर्शन यह दर्शाते हैं कि समाज किस तरह से जाति,पहचान,वर्ग,परिवेश व समुदाय के अनुसार हिंसा को चुनता है और अपना गुस्सा दिखाता है।
एससी और एसटी को मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय गठबंधन (पीओए) अधिनियम (एनसीएसपीए) ने एनसीआरबी 2021 रिपोर्ट का विश्लेषण किया है। एनसीएसपीए 500 से अधिक दलित और आदिवासी नागरिक समाज संगठनों, समुदायों, नेताओं और कार्यकर्ताओं का एक मंच है।
एनसीएसपीए का मानना है कि स्पष्ट संवैधानिक प्रावधानों और दिशानिर्देशों के बावजूद पूरे भारत में दलित और आदिवासी समुदाय सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं। यह समुदाय जाति व्यवस्था की वजह से संस्थागत भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करते हैं।
दिल्ली के कुसुमपुर पहाड़ी इलाके में रह रहे दलित महिला कामगारों की बात हो या फिर जय भीम नगर में एक समय पर रह रही महिलाओं की, दोनों ही मामलों में समाज उनकी सुरक्षा, उनके साथ होने वाली हिंसा व अधिकार को लेकर चुप है। यहां तक इनकी आवाज़ों को भी आंदोलन से दूर रखा जाता है, भेदभाव किया जाता है।
जब समाज महिला हिंसा की बात करता है तो वह सिर्फ जाति की सीढ़ी के सबसे ऊपर पायदान पर मौजूद पहचानों की बात करता है जिसे उसने ही रखा है, दलित बहुजन आदिवासी समुदाय से आने वाली महिलाओं की नहीं। विरोध व गुस्से का चयन समाजिक ढांचे के अनुसार किया जाता है। यहां समाज का विरोध हिंसा से ज़्यादा से पहचान से जुड़ा हुआ है।
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