खबर लहरिया Blog न्यायिक व्यवस्था व विकलांगो के प्रति असंवेदनशीलता है जी.एन साईंबाबा के मौत की वजह!

न्यायिक व्यवस्था व विकलांगो के प्रति असंवेदनशीलता है जी.एन साईंबाबा के मौत की वजह!

जेल से 28 अक्टूबर 2017 को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने बताया कि किस तरह से लगातार उनकी तबयत खराब होती गई। उन्हें इसके बाद जेल से अस्पताल ले जाने के लिए भी रेफर किया गया। लिखा, “मुझे एक बार बस एक भार की तरह उठाकर अस्पताल के अंदर लेकर जाया गया। ऐसा लग रहा था कि मेरी अपनी कोई गरिमा नहीं बची है। उन्होंने यह भी लिखा कि एक कुत्ते को भी सम्मान के साथ अस्पताल के अंदर लेकर जाया जाता है लेकिन मुझे इस तरह से लेकर जाना सही समझा गया।”

                                                                                                     जीएन साईबाबा दिल्ली में अपने आवास पर  (फोटो साभार – आउटलुक/विनीत भल्ला)

“मौजूदा सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि विकलांग व्यक्तियों को जीवन के सभी पहलुओं में दूसरे के समान कानूनी अधिकार प्राप्त हो। उन्हें कानून के समक्ष सबकी तरह समान मान्यता प्राप्त हो” 

– डिसेबिलिटी राइट्स ( राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विद डिसेबिलिटी एक्ट एंड नेशनल ट्रस्ट एक्ट) एंड मेन्टल हेल्थकेयर एक्ट की धारा 13 

सवाल यह है कि क्या समाज विकलांग व्यक्तियों को देख रहा है? क्या कानूनी तौर पर विकलांग लोगों के अधिकारों की बात हो रही है व उसे कौन प्राप्त कर पा रहे हैं? साथ ही वह समाज में कहां से आते हैं? और जब हम इन्हीं सवालों को जेल में बंद विकलांग व्यक्तियों के इर्द-गिर्द करते हैं तो इसके जवाब में जाति,पहुंच,आर्थिक मज़बूती,सत्ता,वर्ग इसके साथ-साथ न्याय, विकलांग लोगों के प्रति असंवेदनशीलता और उनके अधिकारों के प्रति होते हनन को भेदभावपूर्ण तरह से देखा जा सकता है। 

क्योंकि जेल समाज से अलग नहीं है। कानून, समाज से अलग नहीं है क्योंकि हर एक व्यक्ति समाज के घेरे में आता है विकलांग व्यक्तियों को छोड़कर। क्यों? क्योंकि समाज में उनकी कथित अदृश्यता ने उन्हें हमेशा से हाशिये पर लाकर रखा हुआ है। जहां जब भी पहुंच व उनके प्रति संवेदनशीलता की बात की जाती है तो यह कहा जाता है कि वह विकलांग व्यक्तियों द्वारा सामना की जा रही मुश्किलों को नहीं समझते,जानते या देखते हैं। वह समाज का हिस्सा ही नहीं है इसलिए हाशिये पर हैं।  

हर एक विकलांग व्यक्ति के जीवन का अपना एक संघर्ष और अनुभव है। जब हम मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक व दिल्ली विश्विद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी.एन साईबाबा को देखते हैं जिनकी 12 अक्टूबर 2024 को, 57 वर्ष की आयु में मौत हुई। उनकी मौत किस तरह से हुई और उसके क्या कारण थे, और किस तरह से उनकी विकलांगता व जेल में बंद रहने के दौरान उनकी स्वास्थ्य से जुड़ी ज़रूरतों को इस दौरान अनदेखा किया गया, इस पर चर्चा की जानी चाहिए। 

इसमें कानून द्वारा इस्तेमाल की जा रही सत्ता की बर्बरता और विकलांग लोगों के प्रति गलत रवैया अपनाने की भी बात होनी चाहिए।

जी.एन साईबाबा पर आरोप लगाया गया था कि उनका संबंध माओवादी संगठन से हैं। उनके साथ अन्य पांच लोगों पर साल 2017 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) व अन्य आपराधिक मामलों के तहत मामले दर्ज़ किये गए थे। 

साईबाबा पर आरोप था कि वह देश के खिलाफ कुछ ऐसी गतिविधि कर रहे हैं जिससे देश की सुरक्षा और अखंडता को नुकसान पहुंच रहा है लेकिन इसका कोई पुख्ता सबूत 10 सालों तक उन्हें जेल में बंद करने के बाद भी कथित तौर पर न्याय की बात करने वाली कानून व्यवस्था को नहीं मिला। 

जब 7 मार्च 2024 को, आज से लगभग सात महीने पहले वह नागपुर जेल से निकले तो उन्होंने मीडिया से बात करते हुए कहा, “पोलियो के आलावा जो मुझे बचपन से है, मैं बिना किसी स्वास्थ्य समस्या के जेल गया था लेकिन आज मैं ज़िंदा तो हूँ लेकिन मेरे शरीर का हर एक अंग काम करना बंद कर रहा है।”

साईबाबा जिन्हें 90 प्रतिशत विकलांगता रही, जेल में बंद रहने के दौरान उन्हें सही प्रकार से कभी स्वास्थ्य सुविधा नहीं दी गई। जब अदालत द्वारा उन्हें सज़ा सुनाई गई, उस समय भी उनकी विकलांगता को ध्यान में नहीं रखा गया। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायधीश ने कहा कि साईबाबा शारीरिक रूप से विकलांग हैं, लेकिन वह मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। उन्होंने सीपीआई-माओवादी और रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के “थिंक टैंक और हाई प्रोफाइल नेता” के रूप में काम किया है।

साल 2017 में जी. एन साईबाबा द्वारा जेल से लिखा पत्र 

                                                                                        जी.एन. साईबाबा द्वारा विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता मुरलीधरन को पत्र ( फोटो साभार – द वायर)

जेल से 28 अक्टूबर 2017 को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने बताया कि किस तरह से लगातार उनकी तबयत खराब होती गई। उन्हें इसके बाद जेल से अस्पताल ले जाने के लिए भी रेफर किया गया। लिखा, “मुझे एक बार बस एक भार की तरह उठाकर अस्पताल के अंदर लेकर जाया गया। ऐसा लग रहा था कि मेरी अपनी कोई गरिमा नहीं बची है। उन्होंने यह भी लिखा कि एक कुत्ते को भी सम्मान के साथ लेकर जाया जाता है लेकिन मुझे इस तरह से लेकर जाना सही समझा गया।”

पत्र में लिखे यह शब्द यह बताने के लिए काफी थे कि एक विकलांग व्यक्ति के शरीर,उसकी गरिमा, उसके प्रति संवेदनशील कैसे होया जाता है, यह बुनियादी विचार भी न्याय व्यवस्था के पास नहीं है, जो सबको एक समान देखने की बात करती है। किसी विकलांग व्यक्ति को बस भार की तरह उठाना, उसे अपने लिए भार की तरह महसूस कराना उसके मौलिक अधिकारों का हनन है जो उसे इज़्ज़त से समाज में जीने का अधिकार देती है। 

उन्होंने यह भी लिखा कि 90 प्रतिशत विकलांगता होने की वजह से वह पूरी तरह से व्हीलचेयर पर निर्भर हैं और इस तरह से जेल की ज़िंदगी जीना उनके लिए एक और प्रताड़ना है। 

मीडिया से बात करते हुए एक जगह उन्होंने यह भी बताया कि, “जेल में जो टॉयलेट था उस तक मेरी व्हीलचेयर नहीं पहुंच सकती थी। नहाने की जगह तक नहीं थी। मैं अकेले अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो सकता था। मुझे बाथरूम जाने, नहाने, बेड में शिफ्ट होने जैसे सभी कामों के लिए चौबीसों घंटे दो लोगों की ज़रूरत होती है।”

जेल से बाहर निकलने के बाद साईबाबा ने बताया कि पुलिस हिरासत में किस तरह से उनके साथ दुर्व्यवाहर किया गया, उन्हें घसीटकर लेकर जाया गया जिसके बाद उनका नर्वस सिस्टम (तांत्रिक यंत्र) ही टूट गया। 

10 सालों के बाद भी उनका हाथ सूझा रहा। उन्हें सही इलाज नहीं दिया गया जिसकी वजह से डॉक्टरों ने उन्हें कह दिया कि अब उनका नर्वस सिस्टम और मांसपेशियां दोबारा से जीवित नहीं हो सकती। 

नर्वस सिस्टम यानी कि तांत्रिक यंत्र जो शरीर के सभी अंगों से संवाद करने, अंदर-बाहर की प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने, हमारी बुद्धि,स्मृति,काम और धड़कन इत्यादि से जुड़ा हुआ है, उसे मृत कर दिया गया है, कथित न्यायिक व्यवस्था द्वारा। 

उन्हें एक अंडा सेल/कारागार में बंद करके रखा गया जिसकी दीवारें इतनी ठंडी कि कुछ सकारात्मक सोच पाना मुश्किल हो। जेल में परोसे गए भोजन से उन्हें पित्ताशय की पथरी, मस्तिष्क और किडनी में सिस्ट (गांठ) तक बन गया। 

उन्हें जेल में किसी भी तरह की सहायता या ये कहें मानव जीवन के अनुकूल मूलभूत सुविधा तक नहीं दी गई, जिसके बारे में मानवाधिकार के तहत बात की जाती है। 

इस तरह से किसी व्यक्ति को एकान्त कारावास में रखना और व्यक्तिगत देखभाल और स्वच्छता के लिए सुलभ सुविधाओं के अधिकार से इंकार करना गरिमा और शारीरिक अखंडता के अधिकार का उल्लंघन है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ-साथ विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRPD) के अनुच्छेद 17 में बताया गया है। 

मॉडल जेल मैनुअल (2016) की धारा 4 में कहा गया है कि हर जेल में रहने की सुविधा मानवीय गरिमा के अनुसार होनी चाहिए जिसमें रहने की जगह, स्वच्छता, भोजन, कपड़े, चिकित्सा आदि सुविधाएं शामिल हैं। 

न्यूज़्लॉन्ड्री की रिपोर्ट के अनुसार, साईबाबा की पत्नी वसंता कुमारी ने बताया कि कोविड-19 के दौरान भी उन्हें जेल में किसी भी तरह की स्वास्थ्य सुविधा देने से मना कर दिया गया जिससे धीरे-धीरे उनकी शारीरिक समस्या और बढ़ गई। उनकी मौत से एक सप्ताह पहले ही उनकी पित्ताशय की सर्जरी हुई और मौत से एक दिन पहले किडनी ने काम करना बंद कर दिया था। 

कई बातचीत में उन्होंने बताया कि जेल में उनके साथ किस तरह से भेदभाव किया जाता था। उन्होंने यह भी नोटिस किया कि यह भेदभाव एक केंद्रित वर्ग, जाति व समुदाय से आने वाले लोगों पर होता है सब पर नहीं। बस वे लोग जो गरीब हैं, जिनके पास अपनी सत्ता नहीं है। 

विकलांगता के अधिकारों का समझे का प्रयास कर रहे थे साईबाब 

2017 में लिखे अपने पत्र में साईबाबा ने विकलांगता के मुद्दे पर और जेल में विकलांग लोगों के अधिकार इत्यादि से जुड़ी जानकारी प्राप्त करने के लिए सामग्रियों की मांग की थी। उन्होंने कहा कि वह अपने आपको एक विकलांग एक्टिविस्ट के रूप में तैयार करना चाहते हैं। हालांकि, इससे पहले उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। 

उन्होंने कहा कि अपने शारीरिक गतिविधियों और बदलावों को देखते हुए वह अब उन क्षेत्रों और मुद्दों पर काम नहीं कर सकतें जिन पर वह दशकों से काम कर रहे थे। कहा, “यह मैनें अनुभव किया है। मुझे अपनी सीमाएं समझने की ज़रूरत है।”

कहा, शायद इस तरह से वह विकलांग लोगों के लिए, उनके विषय को लेकर कुछ कर पाएं। 

द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, साईबाबा ने 2017 में अपने लिखे पत्र के ज़रिये मुरलीधरन से इसलिए भी संपर्क किया क्योंकि उनका संगठन विकलांगों के अधिकारों के लिए राष्ट्रीय मंच (National Platform for the Rights of the Disabled) ने उनकी रिहाई के लिए सक्रिय रूप से वकालत की थी और विकलांग व्यक्तियों के लिए सम्मानजनक जीवन स्थितियों की मांग की थी। बता दें, मुरलीधरन विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता हैं जिनका संगठन एनपीआरडी है। 

मुरलीधरन ने द वायर को बताया कि उन्होंने निश्चित तौर पर यह विश्वास नहीं था कि अगर वह पत्र का जवाब देते हैं तो वह साईबाबा तक पहुंचेगा या नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि उनके द्वारा कई संगठनों साथ ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी इस मामले को लेकर संपर्क किया गया था। 

मुरलीधरन के संगठन एनपीआरडी ने इस बात पर रोशनी डाली की भारत में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) को मंजूरी देने के बावजूद भी साईबाबा को जेल में अपमान का सामना करना पड़ा। रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक टीम ने जेल में साईबाबा से मुलाकात भी की थी “लेकिन रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। कोई नहीं जानता कि उनके द्वारा क्या निष्कर्ष निकाला गया”- मुरलीधरन ने कहा। 

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, 2016 मुख्यतौर पर विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों और उन्हें सम्मान देने की बात करता है। साईबाबा के साथ जेल में जो दुर्व्यवहार व भेदभाव किया गया, इसकी जवाबदेही की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका की बनती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह न्यायिक हिरासत में थे लेकिन न्यायिक प्रणाली ने कभी इसे अपनी जवाबदेही नहीं मानी और इसलिए इसका जवाब भी आज तक नहीं दिया गया। 

साईबाबा का मामला सामने आने से पहले फादर स्टेन स्वामी का मामला भी चर्चा में रहा था। वह भी विकलांग थे। उन्हें “शहरी नक्सलवाद” और अत्यधिक संदिग्ध मामले के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जिसे एल्गर परिषद केस ((Elgar Parishad case) के रूप में जाना जाता है। 84 वर्षीय स्वामी को पार्किंसंस (Parkinson’s) के साथ कई अन्य स्वास्थ्य संबंधी बीमारी थी। कोविड-19 के दौरान उचित इलाज न मिलने की वजह से जेल में ही उनकी मौत हो गई थी। 

जेल में बंद विकलांग व्यक्तियों के मामलों में साईबाबा और स्वामी का मामला उन गिने-चुने चर्चित मामलों में से एक रहा जहां न्यायिक व्यवस्था द्वारा विकलांग लोगों के प्रति असमानता व् भेदभाव को खुलेतौर पर देखा जा सकता है। स्वामी की मौत समय पर स्वास्थ्य सेवाएं न मिलने से जेल में ही हो गई। वहीं साईबाबा की जेल से निकलकर कुछ महीनों बाद हुई। दोनों ही जगह न्यायिक व्यवस्था की समय पर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया न कराने की गलती साफ तौर से दिखाई दी। 

यह मामला लोगों की नज़रें कुछ हद तक अपनी तरफ कर पाया क्योंकि कई लोगों व सामाजिक कार्यकर्ताओं में इनके काम की वजह से इनकी पहचान रही। कई लोगों ने इनकी रिहाई के लिए अपील भी की। 

‘जेलों में जाति मामले’ में हाल ही में दिए गए फैसले में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने जाति और लिंग के साथ-साथ विकलांगता को भी भेदभाव का एक आधार बताया।

यह तथ्य व फैसले साफ़ तौर पर यह बताते हैं कि समाज में विकलांग लोगों की क्या स्थिति है व उन्हें हर जगह किस तरह से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। चाहें वह समाज हो या समाज के लिए बनाये गए तथाकथित अधिकार जो उन तक कभी नहीं पहुँचते, बस उनके नाम पर कथित तौर पर बना दिए जाते हैं। 

 

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