2021 में नवम्बर का महीना मेरी जिंदगी का एक ऐसे पल में दर्ज़ हो गया जो ऐतिहासिक होगा। इस महीने मैं नीदरलैंड देश के एम्स्टर्डम शहर गई जो दिल्ली से 6,338 किलोमीटर दूर है। यहां पर पांच दिन काम और खूब सैर सपाटे के बाद वापस अपने देश को जा रही हूं। आज यह अनुभव मैं अपनी वापसी की हवाई यात्रा के दौरान जहाज में 25 नवम्बर को लिख रही हूं। अभी मैं केएलएम रॉयल डच एयरलाइंस की जहाज में बैठी हूं।
इस समय एम्स्टर्डम का टाइम शाम के साढ़े पांच हैं तो हमारे देश भारत का टाइम रात दस बज रहे हैं। मुझे लगभग साढ़े आठ घण्टे का हवाई सफर तय करना है तो सोची इस मौके का फायदा क्यों न उठाया जाए। कारण यह भी कि इस बार मुझे विंडो सीट नहीं मिली। वरना फ़ोटो वीडियो बनाने में ही यह समय गुजर जाता। चलिए यहां से शुरू करती हूं।
जब मिल गया वीज़ा
29 अक्टूबर को मैं हरियाणा राज्य के जींद जिले गई थी एक एक्सपोजर के लिए और 1 नवम्बर की वापसी थी। मैं अपने दिल्ली ऑफिस में थी तभी पता चला कि वीज़ा अप्लाई के लिए 2 नवम्बर की डेट मिल गई है। मुझे दिल्ली से बांदा वापसी की टिकट कैंसिल करनी पड़ी। 2 नवम्बर को मैं वीजा अप्लाई के लिए दिल्ली के पर्यटन ऑफिस गई। वीज़ा अप्लाई तो कर दिया लेकिन वीज़ा समय रहते मिलेगा या नहीं इसकी चिंता सता रही थी क्योंकि 4 नवम्बर को दिवाली थी तो छुट्टी होनी थी। सोची कि देखा जाएगा जो होगा। मैं इतनी लकी थी कि पांच दिन में मेरा वीज़ा आ गया। बस अब क्या था आंखों के सामने खुशी ही खुशी।
जहाज में विंडो सीट मिलना किसी अजूबे से कम नहीं
20 नवम्बर की सुबह तीन बजे दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट से मेरी फ्लाइट थी एम्स्टर्डम के लिए। इतनी सुबह की फ्लाइट लेने के लिए मुझे 19 नवम्बर की रात 12 बजे निकलना पड़ा। एयरपोर्ट पहुंच कर कई तरह की जांच हुई। कोरोना के चलते ये जांच और भी ज़्यादा टाइम लगा रही थीं। कोरोना जांच की रिपोर्ट होना अनिवार्य कर दिया गया था। उसके बगैर आप न देश से बाहर निकल सकते और न ही घुस सकते। सारी जांच के बाद मैं फ्लाइट में घुसने के लिए गेट खुलने का इंतजार कर रही थी। तभी मुझे याद आया कि बोडिंग पास लेते समय मैंने विंडो सीट लेने के लिए क्यों नहीं बोला। मन गिराए हुए मैंने बोडिंग पास निकालकर देखा तो वह विंडो सीट ही थी। अब क्या था अगर कोई चीज बिना मांगे मिल जाये तो यह एक अजूबे से कम नहीं लगता।
इतनी बड़ी जहाज क्योंकि विदेश जाने वाली है
मैंने पहले जहाज की कई यात्राएं की थी तो वही मन में ख्याल आया रहे थे। सीट ऐसी थीं तो विंडो सीट कहां हो सकती है वगैरह। तभी गेट खुलता है और थोड़ा चलते हुए फ्लाइट के अंदर मैं आ गई। देखती हूं कि यह फ्लाइट बहुत अलग थी पहले वाली मेरी फ्लाइट यात्राओं से। जहाज बड़ी थी, सीटें भी बहुत ज्यादा थीं। तीन-तीन सीट अगल-बगल होती और बीच में जगह खाली रहती थी आने-जाने के लिए लेकिन ये क्या इसमें तो बीच में भी चार सीटों वाली लाइन थी मतलब जहां 6 सीटें रहती थीं तो इसमें दस सीटें। मैं समझ रही थी कि यह विदेश जाने वाली जहाज है तो बड़ी होगी ही। मैं अपनी सीट पर बैठ गई। सीट बेल्ट बांध ली और खिड़की से बाहर ही देखती रही। जहाज पहले खूब दौड़ी और फिर जोर से उड़ान भर दी। दोनों कान सुन्न पड़ गए जैसे हवा भर गई हो। थोड़ी देर में सब सही हो गया। मैंने खूब फ़ोटो वीडीओ बनाई।
बादलों के बीच जहाज मानो रुई में रखी हो
बादल से ऊपर उड़ती हुई जहाज बाहर देखते समय लग रहा था मानो जहाज रुई में रखी हो। आसपास दूर-दूर तक सिर्फ बादल ही बादल। थोड़ी किरकिरी थी कि जहाज का पंखा इतना लंबा चौड़ा था कि नीचे का कुछ नहीं देख पाई। वीडियो फ़ोटो भी नहीं बना पाई। सीट के जस्ट सामने लगी टीवी स्क्रीन पर ये सुविधा थी कि आप फिल्म देखो, गेम खेलो या फिर अपनी फ्लाइट अपडेट देखो। मैंने फ्लाइट का अपडेट देखना पसंद किया। मैं देख रही थी कि मेरी फ्लाइट 845 से 1050 किलोमीटर प्रति घण्टे की स्पीड और सैंतीस हजार फुट की ऊंचाई से उड़ रही थी। यह देखते-देखते करीब साढ़े आठ घण्टे का सफर तय हो गया और करीब एम्स्टर्डम शहर के समय के हिसाब से सुबह साढ़े नौ बजे प्लाइट लैंड कर गई। यहां के एयरपोर्ट का नज़ारा कुछ अलग था। चमक-दमक सजावट सब अलग था।
साफ़-सुथरा और खूबसूरत शहर
एयरपोर्ट से एम्स्टर्डम सेंट्रल के लिए लोकल ट्रेन का टिकट खरीदकर इलेक्ट्रॉनिक सीढ़ी से उतरकर रेलवे स्टेशन पहुंची और ट्रेन में बैठ गई। सुंदर-सुंदर पेड़, बड़ी-बड़ी और बहुत ही पुरानी खूबसूरत इमारतें एक ही डिजाइन में बनी दिख रही थी तब तक में शहर आ गया। स्टेशन से बाहर निकलकर शहर का नज़ारा देखते ही बन रहा था। शहर के चारों तरफ नहरें थीं उनमें नावें थीं। ऐसे लग रहा था कि इस शहर की सारी इमारतें पानी में तैर रही हों। साफ सुथरी सड़को में बहुत ही कम दिखते लोग। शाम के वक्त लोगों की थोड़ी भीड़ दिखाई देती। ज़्यादातर लोग पैदल चलते थे। एक जगह से दूसरे जगह तक जाने के लिए दो तीन किलोमीटर भी चलते हैं या फिर साइकिल खूब चलाते हैं। साइकिलों की बड़ी-बड़ी पार्किंग देखने को मिलीं। लोगों से यह भी पता चला कि यहां साइकिलों की खूब चोरी भी होती है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट बहुत अच्छा दिखा। बस, ट्रैम, टैक्सी, ट्रेन चलते हैं लेकिन बहुत कम और सुविधाजनक होते हैं।
ठंडी और बर्फबारी ने गलाए हाथ-पैर
मैं इस शहर में पांच दिन बिताई जिसमें रोज कम से कम 8 डिग्री सेल्सियस पारा रहा और रात में 3 डिग्री तक। दो दिन धूप निकली लेकिन जबरजस्त ठंड और गलन के साथ। एक दिन बारिश भी हुई तो गलन से हाथ-पैर पत्थर हो रहे थे। बर्फ-बारिश भी होती रहती है। यहां पर अभी ठंडी के मौसम की शुरूआत हो रही थी वरना और बहुत ठंड होती है।
हमारे देश भारत से यहां के समय में साढ़े पांच घण्टे का फर्क है। जैसे कि एम्स्टर्डम में दोपहर के साढ़े तीन बज रहे हैं तो हमारे देश में रात के आठ बजते हैं। मुझे अगर घर में बात करनी होती थी तो मेरे घर के लोग देर रात तक जगते थे या फिर मुझे सुबह तीन या चार बजे जगना पड़ता था।
एक यूरो बराबर पचासी रुपये
एक दिन मैंने कुछ खरीदने की सोची। दुकानों में घुसने के लिए कोरोना टेस्ट रिपोर्ट दिखानी पड़ती थी तो हर रोज कोरोना टेस्ट करना होता था जो 24 घण्टे के बाद बेकार हो जाती थी। मैंने पुछा कि यहां की सबसे मशहूर खाने की चीज़ क्या है। पता चला कि यहां का मशहूर खाना चीज़ है। दुकानों में बड़ा-बड़ा सजाकर रखते हैं। एक चीज़ का वजन कम से कम 5-8 किलो तक का होता है। मुझे लगा मैं पहले खाऊं फिर ले जाना तो है ही। मैं थोड़ा खरीदी और खाई। बता नहीं सकती कितना खराब और गन्दा स्वाद और महक से तो उल्टी ही आ जाए। मैं उसको दोबारा से देखी तक नहीं लेकिन यहां पर लोग उसको बहुत शौक से खाते हैं। दूसरी चीजें और पूछी तो बहुत छोटे-मोटे सामान एक से पांच यूरो के थे जो हमारे यहां के 85 रुपये के बराबर एक यूरो होता है। वहां के हिसाब से तो चीजें सस्ती थीं लेकिन मेरे लिए महंगी थीं फिर भी मैंने थोड़ी-थोड़ी शॉपिंग की।
सब कुछ अच्छा नहीं हो सकता
कहते हैं न कि सब कुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं होता कुछ चीजें हमारे लिए खराब भी हो सकती हैं जो हमारे मन की नहीं होतीं। ठीक वैसे ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। मैं खाने के लिए तरस गई। खाना तो खाया लेकिन इच्छा नहीं पूरी हुई। यहां पर भारतीय और शाकाहारी भोजन तो मिल जाता था लेकिन स्टाइल बहुत अलग होती। जैसे चावल तो मिलता लेकिन उसमें खूब सारी अधपकी सब्जियां। न खट्टे में न मीठे में न ही नमकीन में। रोटी तो मिली लेकिन रोल की हुई और उसके अंदर कई तरह की हरी अधपकी सब्जियां और सॉस लेकिन पेट तो भरना था। एनर्जी जैसे खत्म ही हो गई हो। पानी तो खूब मिलता लेकिन लोग कहीं से ही भरकर पी लेते। कहा जाता है कि यहां का पानी बहुत शुद्ध होता है। मेरे लिए जितना अच्छा शहर था उतना ही खराब खाना।
विदेश यात्रा को टाटा बाय नहीं और मौकों की तलाश
पांच दिन के बाद अब लगता था कि कितना जल्दी घर वापसी हो। घर और परिवार घर से बाहर निकलने पर याद आते ही हैं लेकिन अपने देश का मेरे दिल से लगाव पहली बार महसूस हुआ। खैर पांचवे दिन फिर से एम्स्टर्डम एयरपोर्ट पहुंची। आरटीपीसीआर रिपोर्ट न होने के कारण एयरपोर्ट से लौटा दिया गया जबकि कोरोना टेस्ट जांच थी लेकिन आरटीपीसीआर नहीं। उसको हमारा देश भारत स्वीकार नहीं करता बाकी सारे देशों में लोग जा सकते थे। फिर से अगले दिन मतलब 25 नवम्बर को फ्लाइट की टिकट मिल गई, आरटीपीसीआर रिपोर्ट भी आ गई और मैंने अपने देश वापस के लिए फिर से करीब साढ़े आठ घण्टे का फ्लाइट का सफर तय किया। आखिरकार अपने देश की धरती में पैर रखकर मैं इस विदेशी यात्रा को टाटा बाय-बाय की। अगर मौका मिला तो फिर किसी विदेशी यात्रा के लिए जाउंगी।
फिल्म फेस्टिवल के लिए गई थी इतनी दूर
सोशल मीडिया पर मेरी फ़ोटो देख लोग पूछ रहे हैं कि इतनी दूर मैं किस काम के लिए गई हूं। बहुत लोग प्राउड फील कर रहे हैं और करा रहे हैं। उनको बताना चाहूंगी कि खबर लहरिया पर एक फिल्म बनी है जिसका नाम “राइटिंग विद फायर” हैं। यह फिल्म दुनिया के अलग-अलग देशों के फिल्म फेस्टिवलों में धमाल मचाये हुए है। इस फिल्म की किरदार मैं भी हूं इसलिए फिल्ममेकरों के साथ नीदरलैंड जाने का मौका मुझे भी मिला।
यह सफर और अनुभव की कहानी है खबर लहरिया की ब्यूरो चीफ मीरा देवी की। इसे लिखा भी मीरा देवी द्वारा ही गया है।
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