गांव में सीमेंट फैक्ट्री से निकल रहे धूल से लोग बेहद परेशान हैं गुलराहाई गांव की कलावती देवी बताती हैं कि “तीन साल से सीमेंट फैक्ट्री चालू है, तब से इतना ज्यादा धूल उड़ता है कि घर में रहना मुश्किल हो गया है।
प्रयागराज ज़िले के शंकरगढ़ ब्लॉक के गांव गुलराहाई और आसपास के दर्जनों गांवों में आज विकास का एक अजीब चेहरा दिखाई देता है। जहां एक ओर रोजगार की रोशनी जली है वहीं दूसरी ओर प्रदूषण का अंधेरा फैल गया है। तीन साल पहले जब इस क्षेत्र में के.के. सीमेंट फैक्ट्री और अल्ट्राटेक कंपनी (कापरी गांव के पास) की स्थापना हुई तो लोगों के चेहरों पर उम्मीद की किरण जगी थी। गांव के युवाओं को लगा कि अब शहरों की ओर पलायन नहीं करना पड़ेगा, परिवार के पास ही काम मिलेगा, आय बढ़ेगी और जीवन सुधरेगा।
लेकिन आज वही फैक्ट्रियाँ गांववालों के लिए रोजगार नहीं रोग का कारण बन चुकी हैं। हवा में उड़ता सीमेंट का महीन धूल अब हर घर, हर खेत और हर सांस में घुल चुका है। खेत बर्बाद हो रहे हैं बच्चे और बुज़ुर्ग बीमार पड़ रहे हैं और सड़कों पर धूल की वजह से हादसे आम बात बन गए हैं।
गांव में धूल का आतंक “सांस लेना मुश्किल हो गया है”
गांव में सीमेंट फैक्ट्री से निकल रहे धूल से लोग बेहद परेशान हैं गुलराहाई गांव की कलावती देवी बताती हैं कि “तीन साल से सीमेंट फैक्ट्री चालू है, तब से इतना ज्यादा धूल उड़ता है कि घर में रहना मुश्किल हो गया है। सांस लेने में तकलीफ होती है बच्चे खांसते रहते हैं और घर के बर्तन तक धूल से भर जाते हैं।” उनके घर की छत, दीवारें, और बिस्तर तक सफेद सीमेंट की परत से ढके रहते हैं। जो हवा उन्हें ज़िंदगी देनी चाहिए वही अब जहर बन चुकी है। गांव के लोग बताते हैं कि जब फैक्ट्री में मशीनें चलती हैं तो पूरा इलाका सफेद धुंध से ढक जाता है। धूल इतनी बारीक होती है कि वह नाक, आंख, और गले के रास्ते शरीर में प्रवेश कर जाती है जिससे अलग-अलग बीमारियाँ आए दिन दिखती रहती है। कभी सर्दी, कभी सर दर्द, खांसी आदि।
“खाना, पानी, हवा सब में धूल घुल गई है”
गुलराहाई की मुन्नी देवी की आंखों में भय है। वह कहती हैं “जब से ये फैक्ट्री बनी है, तब से तरह-तरह की बीमारियाँ फैल रही हैं। पांच लोग दम के मरीज हैं, दो को कैंसर हो गया है। धूल घर में भर जाती है, खाना, पानी सब दूषित हो जाता है। हमारे पास इलाज कराने तक के पैसे नहीं हैं।”
उनकी बातों से साफ झलकता है कि प्रदूषण का असर सिर्फ हवा तक सीमित नहीं है बल्कि लोगों के शरीर, खानपान और मानसिक शांति तक पहुंच गया है। बता दें गांव की आबादी लगभग दो हज़ार है जिसमें बड़ी संख्या में मजदूर और किसान हैं। लेकिन अब उनके पास न सांस लेने की राहत है और न साफ पानी।
हादसों की सड़क “धूल के धुंध में मौत दिखती नहीं”
गांव में फ़ैक्ट्री का धूल इतना ज़्यादा होता है कि एक समय के बाद रास्ते धुँध से ढक जाते हैं। चारो तरफ केवल धूल ही धूल नजर आता है। बिहरिया गांव के बबलू बताते हैं कि सीमेंट फैक्ट्री की वजह से हाईवे पर हर दिन खतरा मंडराता है। वे कहते है कि “इतना धूल उड़ता है कि कुछ दिखाई नहीं देता। दो पहिया वाले गिरते रहते हैं कई लोगों की जान चली गई। सड़क के दोनों तरफ ट्रक खड़े रहते हैं पूरा इलाका धूल से सफेद दिखता है।”
बांदा से प्रयागराज जाने वाला यह मार्ग अब दुर्घटनाओं का “धूल भरा रास्ता” बन चुका है। यात्री, किसान, मजदूर सबको समान रूप से परेशानी झेलनी पड़ती है। सीमेंट ट्रकों से उड़ती राख जैसी धूल आंखों को जला देती है और दृश्यता इतनी कम हो जाती है कि हादसे आम बात हो गए हैं।
“अब फसल नहीं खेतों में धूल उगती है”
फ़ैक्ट्री की धूल से स्वास्थ्य में दिक्कत तो हो रही है लेकिन ये धूल गांव में जो किसान हैं उनकी फसलें भी बर्बाद कर रही है। सीमेंट के महीन कण पौधों के छिद्रों में जाकर उनकी साँस रोक देते हैं। नतीजतन, फसलें कमज़ोर हो जाती हैं और उत्पादन घटने लगता है। किसानों का कहना है कि उन्होंने कई बार स्थानीय जनप्रतिनिधियों से शिकायत की लेकिन केवल आश्वासन मिला समाधान नहीं। गुलराहाई के किसान किशन बताते हैं कि “जब हवा चलती है तो सीमेंट का धूल खेतों में बैठ जाता है। पत्ते काले पड़ जाते हैं, फसलें सूख जाती हैं। चना, मसूर, गेहूं, मटर सब पर असर होता है। महुआ और आम के पेड़ भी काले पड़ गए हैं।”
स्वास्थ्य संकट, गांव के फेफड़ों में जमा ज़हर
स्थानीय स्वास्थ्यकर्मियों के मुताबिक, सीमेंट फैक्ट्रियों से निकलने वाली धूल में सिलिका, कैल्शियम ऑक्साइड, और भारी धातुएँ पाई जाती हैं जो लंबे समय तक शरीर में जाने पर सिलिकोसिस, ब्रोंकाइटिस, अस्थमा और कैंसर जैसी बीमारियों को जन्म देती हैं। गांव में दमा, खांसी, और सांस की दिक्कत से जूझने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।मुन्नी देवी कहती हैं, “रात को जब हम सोते हैं तब भी धूल उड़ती है। सुबह उठते हैं तो तकिये और बिस्तर पर सफेद परत जमी होती है। अब तो हमें डर लगता है कि कब कौन बीमार पड़ जाए।”
विधायक का बयान, “कंपनी बंद नहीं होगी पर उपाय करेंगे”
इस मामले पर बारा विधानसभा के विधायक वाचपति से जब इस विषय पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा क्षेत्र में बड़ी मुश्किल से तो दो कंपनी आई हैं। इससे लोगों को रोजगार मिला है। कंपनी बंद नहीं होगी लेकिन प्रदूषण कम करने के लिए हम बात करेंगे। ट्रक के लिए अलग सड़क बनवाने और प्रदूषण रोकने की दिशा में कदम उठाए जाएंगे। यह बयान गांववालों के गुस्से को और बढ़ा देता है।
अगर देखा जाए तो यह “रोजगार” के नाम पर अगर उनकी सांसें छीनी जा रही हैं तो यह विकास नहीं, विनाश ही कहा जा सकता है।
“सवाल है कंपनी गांव के बीच ही क्यों बनी?”
गुलराहाई और आस-पास के गांवों की यह कहानी केवल प्रयागराज तक सीमित नहीं है यह पूरे देश में “विकास बनाम पर्यावरण” की बहस को सामने लाती है। जब फैक्ट्रियों के लिए जगह तय की जाती है, तो क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए कि वहां इंसान, खेत, पेड़-पौधे और जानवर भी रहते हैं?
क्या प्रशासन की जिम्मेदारी सिर्फ लाइसेंस देने तक सीमित है, या उन्हें गांववालों के स्वास्थ्य की भी चिंता करनी चाहिए?
गुलराहाई, कापरी और आस-पास के गांवों में सीमेंट कंपनियों ने विकास का वादा किया था लेकिन आज लोग पूछ रहे हैं “क्या विकास की कीमत हमारी सांसें हैं?”
यहां रोजगार तो मिला है लेकिन साथ में आई हैं बीमारियाँ, प्रदूषण, और मौत के खतरे। खेत बर्बाद हैं, सड़कें धूल से ढकी हैं, और घरों में सफेद राख की परतें जमी हैं।
एक तरफ़ ये कंपनियाँ “विकास” और “रोज़गार” की बात करती हैं तो दूसरी तरफ़ उनका फैलाया प्रदूषण लोगों की सेहत और पर्यावरण दोनों को निगल रहा है। यह विरोधाभास सिर्फ गुलराहाई तक सीमित नहीं बल्कि उस विकास मॉडल पर सवाल उठाता है जिसमें रोजगार के बदले इंसान की सांसें बेचनी पड़ती हैं।
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