महाकुम्भ में आई कुछ महिलाओं ने बताया कि महाकुंभ के दौरान जिनको खुशी हुई होगी, उन्हें जरूर हुई होगी, लेकिन हमें तो कोई फायदा नहीं हुआ। हमारे बने हुए मकान तो तोड़ दिए गए थे।
रिपोर्ट – श्यामकली, लेखन – सुचित्रा
महाकुम्भ का अंतिम रूप देखने के लिए मैं तीसरी बार प्रयागराज गई। महाकुम्भ जिसकी शुरुआत 13 जनवरी 2025 को हुई थी और अब यह कुम्भ का अंतिम दिन था। मेरा नाम श्यामकली है। इस बार मेरा अनुभव पिछले बीते दिनों के अनुभव से कुछ अलग था और यह यात्रा मेरे लिए विशेष बन गई।
ऐसे तो महाकुम्भ का अंतिम दिन 26 फरवरी को था लेकिन हम 27 फरवरी को महाकुम्भ के बाद की स्थिति जानने के लिए वहां मैं अपनी साथी शिव देवी के साथ पहुंची। महाकुंभ के जाने के रास्ते में ही महाकुम्भ की तस्वीर मेरे दिमाग में बनने लगी जैसे अब भी पूरा मेला खचाखच भरा हुआ होगा, लेकिन वहां पहुंचते ही मेरे दिमाग में बनी तस्वीर वास्तव की तस्वीर से एक दम उलट थी।
मैं और मेरी सहेली घाट पर गए थे, जहाँ हमें नाव के ऊपर एक स्टोरी करनी थी। जैसे ही हमने कैमरा निकाला, एक नाववाला भड़क उठा। वह नशे में था और कहने लगा, “आपको किसने इजाजत दी है फोटो खींचने की?” वह लगातार हमें धमकी दे रहा था कि वीडियो डिलीट करो। हमने उसे शांतिपूर्वक समझाया कि हमने उसकी नहीं, बल्कि गंगा नदी और नाव की तस्वीरें ली हैं। फिर भी वह नहीं माना और हमसे कहने लगा कि “अगर आपकी फोटो नहीं निकली, तो फिर?”
महाकुम्भ के बाद घाट पर गन्दगी
जब हमने वहां का माहौल देखा, तो पता चला कि लोग नहाकर जा चुके थे पर लोगों के द्वारा फैलाई गई गंदगी अब भी वहां मौजूद थी। गंदगी की वजह से लोग परेशान थे। गंदगी के कारण बीमारियाँ फैलने का डर था। मेला खत्म होने के बाद 26 तारीख से हालात और खराब हो गए थे। हमने जब स्थानीय लोगों से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि प्रशासन इस मुद्दे पर कोई कदम नहीं उठा रही है।
एक व्यक्ति ने बताया, “हम कैमरे के सामने सच्चाई नहीं बोल सकते, क्योंकि मीडिया वाले पीछे पड़ जाते हैं और प्रशासन का दबाव भी रहता है।” उन्होंने यह भी बताया कि जब महाकुंभ के दौरान भगदड़ मची थी, तो एक महिला कैंटीन में थी। उस महिला ने मीडिया से बात की थी उसके बाद से सारी मीडिया उसके पीछे पड़ गई अब उस महिला का कहीं अता पता नहीं।
कल्याणी देवी ने भी हमें अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि महाकुंभ में उन्हें बहुत अच्छा लगा। 12 साल बाद महाकुंभ में आई एक अनोखी स्थिति में उन्हें ऐसा अनुभव हुआ, जैसा उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। दिन और रात का कोई भेद नहीं था। उनका कहना था कि डेढ़ महीने तक दुकान बंद रही, लेकिन उन्हें इस बात का कोई एहसास नहीं हुआ। वे सोच रहे थे कि इस महीने आमदनी नहीं होगी, लेकिन जब दुकान फिर से खुलेगी तो उन्हें अच्छे से आमदनी होगी।
महाकुम्भ ने कई लोगों को किया बेघर
महाकुम्भ में आई कुछ महिलाओं ने बताया कि महाकुंभ के दौरान जिनको खुशी हुई होगी, उन्हें जरूर हुई होगी, लेकिन हमें तो कोई फायदा नहीं हुआ। हमारे बने हुए मकान तो तोड़ दिए गए थे। छह महीने पहले बनाए गए ये मकान जो कि पुराने थे, अब हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं बची है, तो हमें खुशी कैसे हो सकती है? हम किसी और के मकान में रहते हैं और कुछ लोग रोड पर गुजारा करते हैं।
जब इस बारे में पूछा गया कि ऐसा क्यों? तो उन्होंने बताया कि महाकुंभ मेले के कारण सड़क चौड़ीकरण हुआ है जिसके चलते उनके घरों को तोड़ा गया।
नाव चालक से बातचीत
हमने एक नाव चालक से नाव चलाने के बारे में बातचीत करने की कोशिश की। उन्होंने कहा, “क्या बताना है, आप पत्रकार हैं? पत्रकार कभी सच्चाई नहीं दिखाते।” हमने उनसे पूछा कि क्यों नहीं दिखाते? तो उन्होंने जवाब दिया, “महाकुंभ में हजारों लोगों की मौत हुई है। हम तो वहां थे, हमने देखा। जहां एक दिन में हमारी 15,000 की आमदनी होती थी, हमने दो दिन तक नाव नहीं चलाई। हम उनके दुख में शामिल हुए क्योंकि हमारे देश के लोग चारों ओर से आए थे। आप मीडिया वालों ने क्या दिखाया? सिर्फ 30 लोगों की मौत का ही जिक्र किया और सब कुछ खत्म कर दिया, जो कि पूरी तरह गलत था।”
सच्चाई बताने से घबराते हैं लोग
हमने उनसे वीडियो और वॉइस रिकॉर्डिंग की अनुमति लेने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बताया कि “मैं अभी नाव चला रहा हूं, अगर मैंने सच्चाई आपको बता दी, तो मुझे प्रयागराज में भी कोई काम नहीं मिलेगा। शासन और प्रशासन ने हमें मना किया है, लेकिन आपने पूछा तो मैंने आपको अपनी बात बता दी।”
हमने उनसे पूछा, “क्या हम आपकी बात अपने आर्टिकल में लिख सकते हैं?” उन्होंने कहा, “हां, आप मेरी बात लिख सकते हैं लेकिन मेरा नाम मत लिखिए। बाकी पूरी बात लिख सकते हैं।”
बस वाले टिकट में कर रहे हैं धांधली
वापस लौटते समय सुबह के 4:00 बज रहे थे। चित्रकूट जिले के बरगरढ से हमने रोडवेज बस ली जो प्रयागराज से आई थी। उस बस में हम बाँदा जाने के लिए बैठ गए। मेरी सहेली ने टिकट के लिए 400 रुपए दिए और बस कंडक्टर ने उसमें से 370 रुपए काटे और 240 रुपए का टिकट बना के दिया क्योंकि प्रति व्यक्ति किराया 120 रुपए है।
बस कंडक्टर ने कहा, अगर कोई टिकट चेक करने आए तो बता देना भौंरी (जगह का नाम) से बैठे हैं।
टिकट को जब देखा तो पैसे के हिसाब से टिकट नहीं काटी जा रही थी। हमने कंडक्टर से बोला कि हमें टिकट दो हमें टिकट चाहिए जितने पैसे लिए हैं उस हिसाब से। कंडक्टर भैया ने हमें बांदा से चित्रकूट की टिकट पकड़ा दिया।
उस वक़्त जो टिकट दिया हमने ले लिया। टिकट पर अंग्रेजी भाषा में लिखा था कहां से कहां तक की टिकट है। हमें इंग्लिश आती नहीं इसलिए अपने बेटे को टिकट भेजा और उससे पूछा यह टिकट कहां से कहां तक की है? उन्होंने बताया कि बांदा से चित्रकूट तक की टिकट है।
इसके बाद हमने फिर कंडक्टर से बात की और कहा कि हम चित्रकूट से बांदा जा रहे हैं और आप ने हमें बांदा से चित्रकूट का टिकट पकड़ा दिए।
टिकट के लिए बस कंडक्टर से हुई बहस
बात इतनी बढ़ गई कि कंडक्टर से बहस हो गई। हमने कहा आप हमारे पैसे वापस कर दीजिए वरना हम आपकी रपट कर देंगे। बस कंडक्टर हमें समझाने लगा कि आप हमारी परेशानी नहीं समझ रही हो? किसी और यात्री की टिकट थी वह उतर गया इसलिए ये टिकट आप को दे दी।
हमने कहा, यदि टिकट देना ही था तो ऐसे ही दे देते अलग से मशीन से काट कर क्यों दी फिर?
बांदा तक आते-आते वह कंडक्टर हमसे लड़ता रहा और कहता रहा जिससे कहना हो कह दीजिये। मुझे डर नहीं है।
जब हमने कहा ठीक है चलो बाँदा बस स्टॉप पर हम वहां पर आपकी शिकायत करेंगे तब वह कंडक्टर सॉरी बोलने लगा और कहने लगा कि यह नौकरी का सवाल है। फिर भी हमने कहा आप गलती करते हो उल्टा हमें गलत बनाते हो।
इस यात्रा ने मुझे प्रशासन की लापरवाही, गंदगी, और मीडिया की संवेदनशीलता की वास्तविकता से रूबरू कराया। यह अनुभव मेरे लिए बहुत कुछ सिखाने वाला था और मुझे यह महसूस हुआ कि कुछ मुद्दों पर सच्चाई को उजागर करना बहुत जरूरी है।
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