साध्वी प्रज्ञा का जो भोपाल से BJP की पूर्व सांसद थीं। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर कहती हैं कि “अगर हमारी लड़की हमारा कहना नहीं मानती है अगर हमारी लड़की किसी विधर्मी के यहां जाने का प्रयास करती हैं तो उसकी टांगे तोड़ देनी चाहिए।”
पिछले कुछ माह में कुछ ऐसी खबरें आईँ जो है बेहद चिंताजनक और शर्मनाक हैं। जब बड़े-बड़े बाबाओं, धर्मगुरुओं और नेताओं के मुंह से यह निकलने लगे कि अगर कोई लड़की अपनी मर्ज़ी से दूसरे धर्म में शादी करे तो उसके टांगे तोड़ दो” इतना ही नहीं यह भी कहा गया कि “जो महिलाएं एक बेटे को जन्म देती हैं वो नागिन की तरह होती है” ऐसे शब्द सिर्फ बयान नहीं होते ये अपराधियों को खुली छूट देने वाले संकेत भी होते हैं। ये बयान केवल शब्द नहीं बल्कि सोच में जहर घोलने वाले तीर हैं जो महिलाओं को फिर से चारदीवारी में बंद करने की कोशिश करते हैं। जो कहते हैं कि “अगर तुम तय सीमाएं पार करोगी तो तुम्हें सज़ा मिलेगी।” यह वही सोच है जो महिलाओं की स्वतंत्रता से डरती है उनकी आवाज़ से असहज होती है और चाहती है कि वे हमेशा “किसी की बेटी, किसी की पत्नी, किसी की माँ” बनकर ही जिएं, एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं।
आपको बता दें बीते कुछ दिनों में महिलाओं को लेकर कई नामी लोगों ने विवादित और शर्मनाक टिप्पणियां की हैं। अब विस्तार से जानेंगे कि वे लोग हैं कौन।
साध्वी प्रज्ञा (प्रज्ञा ठाकुर) के बयान
सबसे पहले नाम आता है साध्वी प्रज्ञा का जो भोपाल से BJP की पूर्व सांसद थीं। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर कहती हैं कि “अगर हमारी लड़की हमारा कहना नहीं मानती है अगर हमारी लड़की किसी विधर्मी के यहां जाने का प्रयास करती हैं तो उसकी टांगे तोड़ देनी चाहिए।”
भोपाल में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान साध्वी प्रज्ञा ने यह बयान दिया जिसमें लव जिहाद पर बात करते हुए वे कहती हैं कि जो बेटियां संस्कार नहीं मानती हैं उनके साथ उन्हें सख़्ती से सबक़ सिखाना जरुरी है। “जो बातों से नहीं मानती है उसे ताड़ना देनी पड़ती है।” सवाल तो ये उठता ही है कि आख़िर ये लोग लड़कियों के लिए नियम तय करने वाले या बनाने वाले होते कौन हैं? क्यों कि यह देश संविधान से चलता है और संविधान के अनुसार दो बालिक लड़का-लड़की अपने मर्ज़ी से किसी भी धर्म में शादी कर सकते हैं। ये संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक हिस्सा है। साथ में अनुच्छेद 19 और 21 अपने पसंद से शादी करने का अधिकार देता है। स्पेशल मैरिज एक्ट 1054 धर्मनिरपेक्ष और शादी का अधिकार देता है। प्रज्ञा ठाकुर भूल गई हैं कि अगर लड़की बालिक है तो क़ानून उन्हें खुद हक देती है अपना जीवन साथी चुनने का। इसे कोई रोक नहीं सकता अगर रुक गया तो उल्टा कार्यवाही भी हो सकती है। ये बयान साफ लड़कियों के प्रति हिंसा और नफ़रत को बढ़ाने वाला है। अगर देखा जाए तो साध्वी प्रज्ञा का ऐसे बयान सामने आते ही रहते रहते हैं। जब ऐसे बयान सार्वजनिक रूप से कहे जाते हैं तो यह महिलाओं को डर-हिंसा और नियंत्रण के वातावरण में धकेलता है।
बाबाओं के बयान “एक बेटा पैदा करने वाली महिला नागिन होती है”
अब जानते हैं देश के जाने माने बाबाओं के बयान। “अगर महिलाएं बच्चे पैदा नहीं करेंगी तो दो-दो रुपए में बिकेंगी” “हिंदू धर्म में महिलाएं देवी होती हैं और मुस्लिम धर्म में बेबी होती हैं” बता दें ये आपत्तिजनक टिप्पणी किसी आम आदमी की नहीं है बल्कि जगत गुरु कहे जाने वाले रामभद्राचार्य जी और जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर यति नरसिंहानंद सरस्वती के हैं। रसिंहानंद ने कहा कि जो महिलाएं एक बेटे को जन्म देती हैं वो नागिन की तरह होती हैं। कार्यक्रम में बैठे महिलाओं से कहते हैं कि आप अपने परिवार को बड़ा करो वरना दो-दो रुपए में बिकोगी। हिंदुओं को खतरे में बताते हुए कहा कि मुसलमान खूब बच्चे पैदा कर रहे हैं लेकिन हमारी बेटियां एक या दो ही बच्चा पैदा कर रही हैं। ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब तुम लोगों को ये लोग जबरन उठा कर ले जाएँगे। इसलिए एक बेटे का पागलपन छोड़ो कम से कम तीन चार बेटे और एक बेटी होनी चाहिए। ये वही लोग हैं जो समझते हैं कि महिला सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन है। वैसे भी पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले लोगों से क्या ही उम्मीद की जा सकती है। रामभद्राचार्य ने कहा कि हिंदुओं में बेटियां देवी होती हैं और इस्लाम में बेबी होती है। मुस्लिम धर्म में महिलाओं की स्थिति बड़ी खराब है। पुरुष महिलाओं का इस्तेमाल करती हैं और उन्हें फेंक देते हैं जो हमारे हिंदू धर्म में नहीं हैं।
कोई धर्म के नाम पर महिलाओं की तुलना देवी से करता है तो कोई उन्हें नीचा दिखाने वाले शब्दों से संबोधित करता है। सवाल यह है कि आखिर इस तरह की बातें समाज को क्या संदेश देती हैं? क्या महिलाओं का अस्तित्व केवल बच्चे पैदा करने तक सीमित है? क्या उसकी सोच, उसकी मेहनत, उसकी पहचान का कोई मूल्य नहीं?
मुस्लिम धर्म में भी महिलाओं को गरिमा और सम्मान दिया गया है, लेकिन जब धर्म के ठेकेदार ही महिलाओं को नीचा दिखाने लगें, तो यह पूरे समाज की सोच पर सवाल खड़ा करता है।
ऐसे बयान न सिर्फ महिलाओं का अपमान करते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह गलत सिखाते हैं कि एक औरत की कीमत उसकी कोख से तय होती है। जबकि सच्चाई यह है कि महिला सिर्फ जन्म देने वाली नहीं, बल्कि समाज गढ़ने वाली है वह मां भी है, विचार भी है और इंसान भी।
बाबा अनिरुद्धाचार्य के बयान
अनिरुद्धाचार्य भी आए दिन विवादित टिप्पणी और बयान में फँसते ही रहते हैं। ऐसे गुरुओं का पसंदीदा काम है महिलाओं पर भद्दे कमेंट करना और अपने को महान बताना और सोसल मीडिया पर छाए रहना अपना प्रचार करना और उससे पैसे कमाते रहना। अनिरुद्धाचार्य कहते हैं “अब 25 साल की लड़कियां चार जगह मुंह मार ली होती हैं। सब नहीं पर बहोत और वो 25 साल तक आती है तो पूरी जवान होकर आती है। जब जवान होके आएगी तो स्वभाविक है वो उसकी जवानी कहीं न कहीं फिसल जाएगी” इन्हीं विवादित बयानों के खिलाफ वाराणसी में महिलाओं का ग़ुस्सा फूटा। शंकर सेना महिला विंग की अध्यक्ष प्रियंका द्विवेदी के नेतृतव में 9 सितंबर 2025 को एक किलोमीटर लंबा जुलूस निकाला गया जिसमें अनिरुद्धाचार्य के पुतले को चप्पलों से पीटा और लातों से कुचला गया।
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का बयान
हद तो तब होती है जब पूरे एक राज्य के बागडोर सम्भालने वाली मुख्यमंत्री भी इस तरह के बयान देती हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कुछ इसी तरह से ही महिलाओं को लेकर अपना बयान दिया था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दुर्गापुर की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘रात 12:30 बजे के बाद वे छात्राएं हॉस्टल से बाहर कैसे निकल गईं? कॉलेज को इस पर जवाब देना होगा।’ यह बयान तुरंत ही विवादों में आ गया क्योंकि यह सीधे-सीधे विक्टिम ब्लेमिंग (व्यक्ति को दोष देना) की श्रेणी में आता है। जब राज्य की सबसे ऊंची संवैधानिक कुर्सी पर बैठा व्यक्ति यह कहे कि अन्याय से जुड़ी छात्राओं को देर रात बाहर नहीं निकलना चाहिए था तो सीधा-सीधा इस बात का संकेत नहीं है क्या कि आज भी महिलाओं की सुरक्षा को उनके ‘व्यवहार’ या जबरन थोपे गए ‘दायरे’ से जोड़ा जा रहा है न कि लचर कानून व्यवस्था और अपराधी की मानसिकता से। इस बयान पर महिला संगठनों, विपक्षी दलों और आम नागरिकों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। लोगों का गुस्सा लाजमी है क्योंकि मुख्यमंत्री अपराधियों की बजाय अन्याय से जूझी हुई छात्रा पर सवाल उठा रही हैं जो न केवल असंवेदनशील है बल्कि शासन की गंभीरता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
साल 2022 में नादिया जिले की नबालिक लड़की के बलात्कार के मामले में भी ममता बनर्जी ने सवाल उठाया था कि क्या वास्तव में बलात्कार हुआ था, या गर्भधारण के वजह से कुछ हुआ, या किसी अन्य कारण से। उन्होंने कहा कि ये ‘लव अफ़ेयर’ हो सकता है और पड़ोसियों और परिवार वालों को उसकी जानकारी थी। साल 2012 में दिल्ली गैंग रेप मामलों में कई नेताओं ने सवाईवर के कपड़े और रात में बाहर जाने के अपराध का कारण बताया था जिसकी व्यापक आलोचना हुई थी।
हमारे समाज में पितृसत्ता (patriarchy) इतनी गहरी है कि लोग इसे सामान्य मानने लगे हैं। आज भी कई घरों में यह माना जाता है कि “अच्छी लड़कियां देर रात घर से बाहर नहीं निकलतीं,” “पत्नी को पति की बात माननी चाहिए,” या “लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाने की जरूरत नहीं।”
ऐसे वातावरण में जब धर्मगुरु या नेता सार्वजनिक मंच से ऐसी बातें करते हैं तो वे उस पुराने ढांचे को वैध ठहराते हैं जिसमें घर और समाज की सारी ताकत मर्द के हाथ में होती है और औरत को बस उसका साथ देने वाला माना जाता है।
जब समाज के प्रभावशाली लोग महिलाओं के खिलाफ ऐसे बयान देते हैं तो अपराधी मानसिक रूप से वैधता महसूस करते हैं। वे सोचते हैं कि अगर कोई लड़की देर रात बाहर निकली या किसी दूसरे धर्म में शादी की तो वह “खुद जिम्मेदार” है।
इससे बलात्कार और उत्पीड़न जैसे अपराधों को सामाजिक समर्थन मिल जाता है। अपराधी को शर्म नहीं बल्कि योग्य और बड़ा महसूस होता है और यही सबसे बड़ा खतरा है।
देश में पिछले कुछ दशकों में महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आया है। अब महिलाओं को शिक्षा के अधिक अवसर मिल रहे हैं, वे अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही हैं और परिवार की संरचना भी बदल रही है। लेकिन इन बदलावों के बीच कुछ लोगों को लगता है कि इस कारण हमारी परंपराएं खो रही हैं। जब समाज की पारंपरिक व्यवस्था जहां घर और फैसलों में पुरुषों का वर्चस्व होता था बदलने लगती है तो कई बार कुछ लोग उसे फिर से पहले जैसा बनाने की कोशिश करने लगते हैं।
इस प्रवृत्ति में महिलाएं फिर-से उन भूमिकाओं में धकेली जाती हैं जिन्हें पारंपरिक समाज ने तय किया था “घर”, “माँ”, “पत्नी”, “रक्षा” आदि। इसलिए हम देखते हैं कि सार्वजनिक बहस में फिर-से यह बात सुनने को मिल रही है कि महिलाएं बाहर न निकलें अपने निर्णय-खुद न लें, ‘दूसरे धर्म’ में शादी करने वालों पर ‘सुरक्षा’-बहाना लगाया जाए। यह सब बदलाव के खिलाफ एक रक्षात्मक रुख है। कभी-कभी यह राजनीति-रणनीति का हिस्सा भी हो सकती है। महिलाओं को “परंपरा का रक्षक” बना कर उनकी स्वतंत्रता कम करना।
समाज की असली ताकत उसकी सोच और समानता में होती है न कि महिलाओं पर नियंत्रण में। जब नेता, धर्मगुरु या प्रभावशाली लोग ऐसे बयान देते हैं जो महिलाओं की स्वतंत्रता, गरिमा और अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं तो वे केवल एक व्यक्ति या वर्ग का नहीं बल्कि पूरे समाज का अपमान करते हैं। भारत का संविधान हर नागरिक चाहे वह पुरुष हो या महिला को समान अधिकार देता है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह यह तय करे कि एक महिला कब, कहां, कैसे और किसके साथ अपना जीवन जिए।
ऐसे बयानों से यह साफ झलकता है कि पितृसत्ता अब भी समाज की सोच में गहराई तक जमी हुई है। लेकिन यह भी सच है कि आज की महिलाएं अब चुप नहीं हैं। वे पढ़ी-लिखी हैं अपनी आवाज़ उठाना जानती हैं और अपने अधिकारों के लिए खड़ी हैं। यह समझना होगा कि महिला की आज़ादी पर रोक लगाना परंपरा की रक्षा नहीं बल्कि समाज को पीछे धकेलने जैसा है। इसमें सवाल करने वाली बात यह है कि क्या कानून सिर्फ आम लोगों के लिए है और ताकतवरों के लिए नहीं?
आज ज़रूरी है कि हम ऐसे जहरीले बयानों को न सिर्फ़ अस्वीकार करें बल्कि उनके खिलाफ आवाज़ उठाएं। क्योंकि जब तक महिलाएं बराबरी से जीने और अपनी मर्ज़ी से फैसले लेने के अधिकार से वंचित रहेंगी तब तक किसी भी देश की आज़ादी अधूरी रहेगी।
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