क्या बाजारू नूडल्स ने ली मोठे अनाज की जगह?
आज मैं आपसे नूडल्स पास्ता और अनाजों पर होने वाली राजनीति के बारे में बात करूंगी। भाई मैं तो हर मुद्दे पर अपना ऐंगल ढूढ़ ही लेती हूं। जब पैसे ज्यादा कमाने की बात आती है जिसको कालाधन भी नाम दिया गया है और अपने स्वार्थ के लिए किसी भी मुद्दे पर बात की जाए या काम किया जाए वहां पर राजनीति अपने आप सवार हो जाती है, तो सुनिए अनाजों पर होने वाली राजनीति।
मैगी, पास्ता, मैक्रोनी का नाम तो आप बखूबी जानते होंगे। आज कल शहरों और अपने को प्रोफेशनल समझने वाले लोग इसको खान पान में अपना फैशन मान रहे हैं। शहर हो या गांव हर जगह बच्चों की च्वाइस मानी जाती है। सबसे पहले बात करते हैं मैगी की। मैगी मैदे से बनी होती है। आप जानते हैं कि मैदा कितना चिकना होता है इसलिए इसमें पोषक तत्त्व नहीं होते। मैदा चिकना होने की वजह से कई तरह की बीमारियां होती हैं।
वर्ल्ड इंस्टेंट नूडल्स एसोसिएशन द्वारा 2016 में प्रकाशित खबर के अनुसार, भारत ग्लोबल इंस्टेंट नूडल्स के सेवन करने के मामले में चौथे स्थान पर है। यहां हर साल 5.5 बिलियन पैकेट बेचे जाते हैं। वहीं दूसरी ओर, इस मामाले में चीन पहले नंबर पर है, जहां हर साल 44.4 बिलियन पैकेट बेचे जाते हैं। केवल इन्हीं आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि दो मिनट में बनने वाले नूडल्स का ज़्यादा इस्तेमाल करना आपकी सेहत के लिए बहुत ही नुकसान पहुंचाती है। ये जानते हुए भी लोग इसका इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा किया जाता है। उसको इतना सरल और चटपटा बना दिया गया कि लोग इसका इस्तेमाल करते हैं अंजाम कुछ भी हो। इस तरह में मैगी बनाने वाले की आमदनी गांवों से भी होने लगी। किसानों से गेहूं सस्ते दाम में खरीदकर उसको मैगी के रूप में महंगा बेचते हैं। यही है पैसों के लिए रणनीति है।
अभी पहले हफ्ते हमने मोटे अनाजों पर कवरेज किया कि क्यों बंद हो गए मोटे अनाज उगाना। एक तो कारण जलवायु परिवर्तन का तो है ही, न वह बारिश बची और न ही खाद बीज। आज से दस से पंद्रह साल पहले की बात है कि मोटे अनाज किसान उगाते थे उसी को खाकर हृष्ट पुष्ट रहते थे। जिसके कारण खूब मेहनत करते थे लोग। धीरे धीरे ज्यादा आमदनी और पैदावार कम का भ्रम पैदा करके सेठ महाजन लोग नए नए बीज और खाद मंगवाए और किसानों को बेचा। किसानों ने भी लालच में आकर इन बीज और खादों का प्रयोग करने लगे और मोटे अनाज उगाना धीरे धीरे कम कर दिया। इस तरह में किसानों को दोहरी मार झेलनी पड़ने लगी। एक तो पौष्टिक अनाज खाना बंद कर दिया जिससे बीमारियां होना शुरू हो गईं।
इससे सेठ महाजनों मतलब पैसों वालों को खूब पैसा मिलने लगी क्योकि खरीददारी बढ़ गई और इस आड़ से डॉक्टरों का रोजगार बढ़ने लगा। मतलब किसान पौष्टिक अनाज से गया ही ऊपर से अपनी कमाई का पैसा भी डॉक्टरों को देने लगा। मतलब सेठ और अमीर लोग अपने धंधे में कामयाब हो गए उनका बिजनेश बढ़ता गया और किसानों का घटता जा रहा है। अब इन अनाजों को पैदा किया जाता है कहीं कहीं तो वह शहर में भेज दिया जाता है और उसकी मोटी रकम भी इन सेठों को जाती है। जो भोजन किसानों की थाली में सजता था ताकि अच्छी मेहनत कर सकें वह भोजन शहर के लोगों की थाली में सजने लगा है ताकि उनका स्वास्थ्य अच्छा रह सके। पर किसान इन अनाजों को खाकर अपने को गरीब और शहरी लोग इस अनाज को खाकर अपनी अमीरी को दर्शाते हैं, यही है राजनीति।
कुछ प्रगतिशील किसान इन मोटे अनाजो को उगाने की तरफ अग्रसर है। ताकि उनका बिजनेस बढ़ सके और पुरानी किसानी को वापस ला सकें। जहां पर अनाजो को उगाने, बेचने और खाने में राजनीति चल रही हो उसको दुबारा ला पाना कितना संभव होगा। इन्हीं सवालों और विचारों के साथ अभी के लिए इतना ही। फिर आउंगी एक नए मुद्दे के साथ तब तक के लिए नमस्कार