16 अगस्त 2025 को मध्य प्रदेश के शिवपुरी से एक खबर सामने आई है जहां कुपोषण से 15 महीने की बच्ची की मौत हो गई है। बच्ची का नाम दिव्यांशी था जिसका वजन मात्र 3.7 किलोग्राम था।
भारत के दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश में अब भी लाखों बच्चे भूख और कुपोषण से जूझ रहे हैं। आज़ादी के 79 साल बाद भी क्यों छोटे-छोटे बच्चे अपने हिस्से का भोजन और पोषण पाने से वंचित हैं। राज्य में दशकों से चला आ रहा स्वास्थ्य संकट फिर से चर्चा में आ गया है।
16 अगस्त 2025 को मध्य प्रदेश के शिवपुरी से एक खबर सामने आई है जहां कुपोषण से 15 महीने की बच्ची की मौत हो गई है। बच्ची का नाम दिव्यांशी था जिसका वजन मात्र 3.7 किलोग्राम था और उसका हीमोग्लोबिन स्तर बेहद खतरनाक रूप से कम 7.4 ग्राम/डीएल था। अस्पताल में इलाज के दौरान ही दिव्यांशी की मौत हो गई है। दरअसल यह जानकारी NDTV (एनडीटीवी) के रिपोर्ट के अनुसार मिली। डॉक्टरों का कहना है कि कई बार उसे पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) में भर्ती कराने की सलाह दी गई लेकिन परिवार ने उसे अस्पताल में भर्ती नहीं कराया। उसकी मां का आरोप है कि घरवालों ने कहा कि “वो तो बस एक बेटी है मरने दो।”
यह घटना सिर्फ एक परिवार की सोच नहीं दिखाती बल्कि एक रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक समाज का दर्दनाक चेहरा भी सामने लाती है। जहां इस दौर में भी लड़कियों का इलाज करवाना भी बोझ समझा जाता है। बता दें कुछ दिन पहले ही श्योपुर की डेढ़ साल की आदिवासी बच्ची राधिका की भी मौत हुई थी जिसका कारण भी कुपोषण ही था। राधिका का वजन मुश्किल से ढाई किलो का था। उसकी मां ने बताया कि राधिका जन्म के समय स्वस्थ थी लेकिन कुछ महीनों बाद कुपोषण के कारण पतली लकड़ी की तरह होती गई।
योजनाएं कागज में, ज़मीनी हक़ीकत कुछ और
राज्य सरकार दावा करती है कि बच्चों के पोषण के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। आंगनवाड़ियों में कुपोषित बच्चों को रोज़ 12 रुपये का पोषण आहार और बाकियों को 8 रुपये का मिलता है। लेकिन सवाल है कि 12 रुपये में क्या सचमुच किसी बच्चे को पौष्टिक खाना मिल सकता है? जबकि इस महंगाई के समय दो केले भी 12 रुपये से ज़्यादा के हैं। एनडीटीवी रिपोर्ट के अनुसार सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि मध्य प्रदेश में 10 लाख से ज़्यादा बच्चे कुपोषित हैं जिनमें 1.36 लाख गंभीर रूप से कुपोषित हैं। तुलना के लिए, अप्रैल 2025 में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में गंभीर और मध्यम कुपोषण की राष्ट्रीय दर 5.40% थी जबकि मध्य प्रदेश में यह 7.79% थी। यह संकट एनीमिया के कारण और भी जटिल हो गया है। मध्य प्रदेश में 57% महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं जिससे अगली पीढ़ी जन्म से पहले ही कमजोर हो जाती है। केंद्र के पोषण ट्रैकर ऐप से पता चलता है कि मई 2025 में मध्य प्रदेश के 55 में से 45 जिले “रेड जोन” में थे जिसका अर्थ है कि 20% से अधिक बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन के थे।
भ्रष्टाचार और लापरवाही की जड़ें गहरी
कागज़ पर योजनाएं मज़बूत दिखती हैं लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त बिल्कुल उलट है। NDTV की रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि आहार ख़रीद और वितरण में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं। 2022 में सीएजी (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) ने 858 करोड़ रुपये के घोटाले की पुष्टि की थी। लेकिन अब तक किसी बड़े अधिकारी या ठेकेदार पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई।
आंगनवाड़ियों का हाल भी ठीक नहीं। कुछ जगह केंद्र या तो बंद रहते हैं या फिर बच्चों को मिलने वाला खाना बीच में ही “गायब” हो जाता है। सवाल उठता है कि जब पैसा और योजनाएं दोनों मौजूद हैं तो फिर बच्चों तक पोषण क्यों नहीं पहुंच पा रहा? इस बीच पोषण के लिए 2025-26 का बजट 4,895 करोड़ रुपये है, फिर भी जमीनी हकीकत अपरिवर्तित बनी हुई है। एनडीटीवी के रिपोर्ट के अनुसार विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि अक्सर खाद्यान्न लक्षित लाभार्थियों तक पहुंच ही नहीं पाता। आपूर्ति बीच में ही गंवा दी जाती है स्थानीय आंगनवाड़ी केंद्र अनियमित रूप से काम करते हैं और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं में जवाबदेही का अभाव है।
राज्य विधानसभा में पेश किए गए आंकड़े
राज्य विधानसभा में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि साल 2020 से लेकर जून 2025 तक आदिवासी इलाकों के पोषण पुनर्वास केंद्रों (एनआरसी) में कुल 85,330 बच्चों का इलाज किया गया। हर साल भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या बढ़ रही है।
साल 2020-21 में जहाँ 11,566 बच्चे भर्ती हुए।
वहीं 2024-25 में यह संख्या बढ़कर 20,741 तक पहुँच गई।
सिर्फ़ इस साल (2025) के पहले तीन महीनों में ही 5,928 बच्चों को इलाज के लिए भर्ती करना पड़ा। यानी साफ़ है कि कुपोषण से जूझने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
ये आंकड़े केवल संख्या नहीं हैं बल्कि हमारे समाज और व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करते हैं। एक तरफ़ सरकार योजनाओं और दावों की लंबी सूची गिनाती है लेकिन ज़मीन पर हक़ीक़त यह है कि आदिवासी बच्चों की हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ती नज़र आ रही है। यह केवल सरकारी नीतियों की नाकामी नहीं है बल्कि समाज की चुप्पी और संवेदनहीनता का भी सबूत है।
आज अगर एक भी बच्चा कुपोषण से जूझ रहा है तो इसका मतलब है कि कहीं न कहीं हमारी पूरी व्यवस्था सरकार, स्वास्थ्य तंत्र और समाज ये सभी ज़िम्मेदार हैं। सवाल यह है कि क्या केवल आँकड़ों पर बहस किया जाता रहेगा या फिर सचमुच उन बच्चों के लिए बदलाव की पहल करेंगे जिनका बचपन कुपोषण की मार झेलते-झेलते बीत रहा है।
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