खबर लहरिया Blog ग्रामीणों इलाकों में मनरेगा मज़दूरों को महीनों-सालों से नहीं मिला वेतन, न मिला रोज़गार

ग्रामीणों इलाकों में मनरेगा मज़दूरों को महीनों-सालों से नहीं मिला वेतन, न मिला रोज़गार

यूपी और एमपी के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले कई मज़दूरों को मनरेगा के तहत काम करने का वेतन नहीं मिला है। कई लोग सालों से रोज़गार की आस लगाए हुए हैं।

साल 2005 में लागू हुई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा योजना कहती है कि वह ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीब और कमज़ोर आय वर्ग के लोगों को 100 दिनों का रोज़गार देगी। उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करेगी। जब साल 2019 में देश में कोरोना महामारी आयी तब भी ग्रामीणों को प्रदेश की सरकारों ने यह झांसा दिया की उन्हें रोज़गार मिलेगा। उन्हें अपने परिवारों के भरण-पोषण के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। लेकिन देश में कोरोना के बाद किस तरह से मज़दूरों की स्थिति और भी ज़्यादा दयनीय हुई, इसकी तस्वीर आपने और हमने टीवी की रंगीन स्क्रीन और अखबारों के फ्रंट पेज पर बखूबी देखी।

यूपी और एमपी जिलों के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रिपोर्टिंग करने के दौरान हमने पाया कि कई ज़रूरतमंद परिवारों को मनरेगा का काम ही नहीं मिल रहा है। जिन्हें मनरेगा के तहत काम मिला है उन्हें उनकी मज़दूरी नहीं दी गयी है। जिन्हें काम मिला उनके जॉब कार्ड तक नहीं बनाये गए। कोई महीनों से अपनी मेहनत की कमाई का इंतज़ार कर रहा है तो कोई सालों से। लेकिन उनका इंतज़ार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। एमपी और यूपी जिलों में मनरेगा मज़दूरों पर रिपोर्टिंग के दौरान हमने क्या पाया, यह हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं।

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मध्यप्रदेश

टीकमगढ़ : मज़दूरी का वेतन मांगने पर ‘मिल जाएगा’ कहकर टाल देते हैं बात

टीकमगढ़ जिले की जनपद पंचायत पलेरा, ग्राम पंचायत मगरई के 20-25 लोगों को मनरेगा के तहत काम करने का पैसा नहीं मिला है। घुराम राजपूत कहते हैं कि उन्होंने तीन महीने तक मनरेगा में काम किया था। साल भर हो गया है लेकिन मज़दूरी के पैसे नहीं मिले हैं। उन्होंने बुलडोज़र बनाने, तलैया में पत्थर लगाने और शीशी रोड बनाने का काम किया था।

कई बार सरपंच और सेक्रेटरी से भी वेतन की मांग की पर हर बार उन्हें ‘मिल जाएगा’, ‘आ जाएगा’ कहकर बात को टहला देतें। घुराम राजपूत दो बार कलेक्टर को ज्ञापन भी दे चुके हैं। जिले के सीईओ के पास भी गए। वहां के अधिकारी कहते हैं कि वह लोग पलेरा ब्लॉक जाएँ वहां उनका काम होगा। वह कहतें हैं कि अधिकारी जितनी बार जाने को कहते हैं वह जाते हैं आखिर उनकी मज़दूरी का पैसा जो है।

बसंतका अहिरवार का आरोप है कि उसके पैसे को किसी और के खाते में डाल दिया गया है जिसने मज़दूरी भी नहीं की है। वह मज़दूरी इसलिए करते हैं ताकि उस पैसे से वह बच्चों का पालन-पोषण कर सकें।

हमने इस बारे में ग्राम पंचायत मगरई के सचिव महेश ठाकुर से बात की। उन्होंने बड़े से आराम से कहा कि मज़दूरों के पैसे उनके खातों में डाल दिए जाते हैं। हमने इस दौरान सचिव को उन लोगों के नाम भी बताये जिन्हें मनरेगा के तहत पैसे नहीं मिले। इसी में वह कहते हैं कि वह हमारे द्वारा बताये गए नामों को देखकर, कितने लोगों ने काम किया है उसके अनुसार लोगों के खातों में पैसे डाल देंगे।

हर मज़दूर ने हज़ारों का ले रखा है क़र्ज़ : पन्ना जिला

पन्ना जिले के बाबा दीन को साल 2021 में मनरेगा के तहत कुल 23 दिन का काम मिला है। लगातार काम न मिलने की वजह से ये मजदूर कर्ज में डूबे हुए हैं। बाबा दीन बताते हैं कि गांव के लगभग हर मजदूर ने 10 से 20 हजार का कर्ज़ ले रखा है। बाबा दीन को भी अक्सर काम की तलाश में 10 से 15 दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता है।

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उत्तर प्रदेश

बाँदा : मुश्किल से 10 दिनों का मिला काम

बांदा जिले में मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाले राजा के परिवार ने लॉकडाउन के समय नमक और रोटी खाकर खुद को जिंदा रखा। राजा को ज़्यादातर समय काम नहीं मिला। राजा कहते हैं कि 2020 में लॉकडाउन से पहले उनकी स्थिति अच्छी थी। वह कहते हैं, ‘मेरे लिए कोरोना वायरस बड़ी समस्या नहीं है। मैं इस साल मनरेगा में काम करना चाहता हूं’। राजा को इस साल जुलाई में सिर्फ़ 8 से 10 दिन का ही काम मिला है।

ललितपुर : मज़दूरों के खातों से निकाला जा रहा पैसा – आरोप

जिला ललितपुर ब्लॉक महरौनी गांव साढूमल के लोगों का कहना है कि उन लोगों के अभी तक जॉब कार्ड नहीं बने हैं। वहीं जिनके जॉब कार्ड बने हुए हैं वह सब प्रधान के पास रखे हुए हैं। लोगों ने कई बार मांग की कि प्रधान उन लोगों के जॉब कार्ड वापस दे दें। इसके जवाब में प्रधान कहते हैं कि “आप लोग मजदूरी करते हो तो आपका पैसा आपके खाते में डल जाता है फिर जॉब कार्ड को लेकर क्यों परेशान हो। अभी नहीं देंगे, आप लोगों को क्या करना है ऐसे ही काम करो अगर करना है तो।”

लोगों का आरोप है कि उनके जॉब कार्ड से रुपये निकालकर किसी और के खाते में डाले जा रहे हैं। लोग कहते हैं कि जॉब कार्ड ना होने से वह यह साबित नहीं कर पाते कि उन्होंने कितने दिन मज़दूरी की है। इसी वजह से उनके पैसे भी नहीं आते। लोग ब्लॉक से जिला स्तर तक शिकायत कर चुके हैं। लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई है।

वहीं गांव के प्रधान केसरबाई कन्हैयालाल मज़दूरों के सभी आरोपों को खारिज़ करते हुए कहते हैं कि मज़दूरों के खातों में पैसे डाल दिए गए हैं। अगर ऐसा है तो मज़दूरों के खातों में पैसे क्यों नहीं आये? उनके जॉब कार्ड उन्हें क्यों नहीं दिए गए हैं?

साल 2016 से नहीं मिला मनरेगा का पैसा

ललितपुर जिले के ही छाप छोड़गाँव में मौजूद दलित बस्ती में रह रहे सभी परिवारों को 2016 में मनरेगा में काम मिला था। इस गाँव के तकरीबन 40 मज़दूरों को उनकी मेहनत का पैसा अब तक नहीं मिला है।

गाँव छाप छोड़ की रहने वाली रमा ने हमें बताया कि जिस साल मनरेगा में काम लगा था तब गाँव से करीब 2 हज़ार लोग मज़दूरी करने जाते थे, इसमें छोटे बच्चे भी शामिल होते थे क्यूंकि माँ-बाप बच्चों को घर पर छोड़ने के बजाय अपने साथ काम पर ले जाया करते थे। जब उन्हें मज़दूरी के पैसे नहीं मिले तो उन्होंने अधिकारीयों को भी शिकायत की। हमेशा की तरह यही जवाब आया की मिल जाएगा पर कब?

गाँव के प्रधान इमरत अहिरवार का कहना है कि उन्होंने अपनी तरफ से तो सभी मज़दूरों के खाते में पैसे डलवा दिए थे लेकिन जिन लोगों को अभी भी पैसे नहीं मिले हैं, उन लोगों की बैंक के खाते की जानकारी निकलवा कर उनको जल्द से जल्द पैसे दिलवाए जाएंगे। विकास खण्ड महरौनी के बीडीओ आलोक कुमार का कहना है कि उनके संज्ञान में अबतक ऐसी कोई बात नहीं आई थी लेकिन अब वो इस मामले की जांच करवाएंगे और जिन लोगों को मज़दूरी के पैसे नहीं मिले हैं, उनके खातों में पैसे डलवाएंगे।

नहीं लगाई जाती जॉब कार्ड में हाज़री – वाराणसी

जिला वाराणसी ब्लॉक चिरईगाँव गाँव छाही के लगभग 10 मज़दूरों को 14 दिन मनरेगा में काम करने का पैसा नहीं मिला है। इसके साथ ही यह लोग काम की आस में छह महीने से खाली बैठे हुए हैं। लोगों द्वारा कई बार अधिकारियों के दफ़्तर में चक्कर भी लगाए गए। लेकिन फिर भी ना काम मिला और ना ही वेतन। वहीं लोगों का यह भी कहना है कि अधिकारी द्वारा उनके जॉब कार्ड पर हाज़िरी भी नहीं लगाई जाती है।

गाँव की प्रधान गीता देवी के पति सिया राम यादव ग्राम सेवक नहीं है कहकर मामले से बचने की कोशिश करते हैं। अगर ग्राम सेवक नहीं है तो पहले लोगों को किसने काम दिया? वहीं सहायक विकास अधिकारी रजनीश कुमार पांडे कहते हैं कि वह मामले को लेकर कार्यवाही करेंगे।

अभी तक हमने यही देखा की प्रधान कहते हैं कि उन्होंने मज़दूरों के पैसे खाते में डाल दिए हैं। लोग बैंक जाकर खाता चेक करें और जब वह खाता देखते हैं तो उसमें पैसे नहीं होते। लोग फिर दोबारा से प्रधान के पास जाते हैं। फिर वह कहते हैं कि नहीं आये हैं तो आ जाएंगे। अब लोगों को अपने वेतन का इंतज़ार करते हुए महीनों से लेकर साल गुज़र गए लेकिन खातों में पैसे ही नहीं आये। लोग अधिकरियों के पास जाते हैं, वहां उनसे कहा जाता है कि उन्हें तो यह पता ही नहीं था। इसके बाद वह लोगों को पैसे देने का आश्वाशन देते हैं और कार्यवाही करने का वादा करते हैं। बस ऐसे ही यह सिलसिला चलता रहता है।

शोधार्थी अंकिता अग्रवाल और विपुल कुमार पैकरा के अक्टूबर 2020 में प्रकाशित विश्लेषण के मुताबिक, 21 में से कम से कम 17 राज्यों में मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी उन राज्यों में खेतिहर मजदूरी के लिए मिलने वाले न्यूनतम पैसों से भी कम है। इस विश्लेषण के मुताबिक, अलग-अलग राज्यों में मजदूरी का यह अंतर 2% से 33% तक का है।

मनरेगा में, सूखे और प्राकृतिक आपदाओं के समय 50 दिन का अतिरिक्त काम उपलब्ध कराने का प्रावधान है। लेकिन यहां तो लोगों को काम ही नहीं मिल रहा है।

अब ऐसे में क्या सरकार अब भी दावे के साथ कह सकती है कि मनरेगा के तहत लोगों को काम मिला और उनकी परेशानियां दूर हुई है? जिन परिवारों को मनरेगा में काम नहीं मिला या वे परिवार जिन्हें वेतन नहीं मिला, जिन्होंने नमक-तेल खाकर लॉकडाउन में दिन गुज़ारे, उनकी स्थति को लेकर क्या प्रदेश सरकार या कोई अधिकारी जवाब दे सकते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

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