कबाड़ और कचरा बीनने वाले इसे इकट्ठा करके, छांटकर और अलग करके और फिर उसका व्यापार करके खुद का जीवन बसर करते हैं। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसा करके वो भारत में सालाना उत्पन्न होने वाले 62 मिलियन टन कचरे के महत्वपूर्ण अनुपात को साफ करने में मदद करते हैं। लेकिन इस काम को करने वाले लोगों को क्या ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाएं मिल पाती हैं ?
हमारे देश की डेढ़ मिलियन आबादी आज कबाड़ और कचरा बीन कर अपना रोज़गार चलाती हैं, लेकिन इस बड़ी संख्या के स्वास्थ्य और स्वच्छता की देखभाल के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठाती।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में तो ये लोग दिनभर में 200-300 रूपए का कबाड़ बेच ही लेते हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ये रकम 50 से 100 रूपए से ज़्यादा नहीं पहुँच पाती। रोज़ाना गंदगी में काम करने के बाद अगर इनके स्वास्थ्य पर कोई असर पड़ता भी है, तो ये लोग इतने मजबूर होते हैं कि पैसे खर्च होने के डर से अस्पताल नहीं जाते।
आज हम खड़े हैं चित्रकूट ज़िले के कोलमजरा गाँव में, जहाँ कई परिवार कबाड़ बीन कर अपना घर चलाते हैं, जब पिछले साल कोरोना संक्रमण के चलते देशभर में लॉकडाउन लगा, इन लोगों ने कोरोना से संक्रमित होने के खतरे को भूलकर पूरी ज़िम्मेदारी से अपना कर्त्तव्य निभाया। एक मास्क लगाकर बच्चे से लेकर बूढ़े तक इस उम्मीद से काम पर निकलते थे कि शायद इस तंगी के दौर में ये एक वक़्त की रोटी कमा लें।
इस गाँव में बड़ों के साथ-साथ बच्चे भी पढ़ने लिखने की उम्र में आज कबाड़ बीन रहे हैं, लेकिन इन बच्चों की लगन की सीमा तो तब देखने को मिली जब मोनू ने हमें बिना किसी शिकायत के हँसते-हँसते कठिनाइयों भरी अपनी दिनचर्या से रूबरू कराया।
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ऐसी कठिन परिस्थितियों में ये गरीब परिवार हर कोशिश करके अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं, ऐसे में शासन प्रशासन से सवाल पूंछना तो बनता है न।
क्या गांव, ब्लाक, जिले के अधिकारियों की नजर इन पर कभी नहीं पड़ती? अगर नहीं पड़ती तो क्यों? क्या ये सरकारी योजनाओं के पात्र नहीं? अगर हैं तो आवास, शौंचालय, राशन कार्ड, पेंशन जैसी तमाम योजनाओं की पहुंच से ये दूर क्यों?
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