खबर लहरिया Blog बिहार: मल्लाह समाज आज भी मालगुजारी कर जीवन कर रहे यापन

बिहार: मल्लाह समाज आज भी मालगुजारी कर जीवन कर रहे यापन

बिंद समाज के लोग खेतों में घास-फूस की झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। उषा देवी, जो बड़े कासिम चक की रहने वाली हैं, बताती हैं कि उनके सास-ससुर के चार बेटे हैं, जो अलग-अलग झोपड़ियों में रहते हैं। बरसात के समय गंगा नदी का पानी खेतों में भर जाता है, लेकिन पानी खत्म होने पर वे सब्जी की खेती करते हैं। इसके लिए उन्हें जमींदार को पैसे भी देने पड़ते हैं। वे हर साल अपनी झोपड़ी बनाते हैं और वहीं रहकर जीवन यापन करते हैं।

Mallah community of Bihar still dependent on malgujari for livelihood

                                                                                      दानापुर ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले एक गांव की तस्वीर जहां मल्लाह समाज के लोग रहते हैं (फोटो साभार – सुमन)

रिपोर्ट – सुमन, लेखन – सुचित्रा 

बिहार के पटना जिले के दानापुर ब्लॉक में बिंद समाज के लोग रहते हैं। बिन्द, जिसे मल्लाह समाज भी कहा जाता है। यह केवट जाति में आते हैं पहले इनका मुख्य रोजगार नाव चलाना (जब नदियों को पार करने का एकमात्र साधन नाव ही हुआ करता था) और मछली पकड़ना था। बिंद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और त्रिपुरा में पाई जाने वाली एक जाति है। बिंद केंद्रीय सूची की ओबीसी (अन्य पिछड़ी जाति) श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। बिन/बिंद नोनिया समुदायों में से एक है। यह लोग अपनी जिंदगी खेती और मालगुजारी (दूसरो के खेतों में काम कर के) के काम में बिता रहे हैं। इनका जीवन सरकारी योजनाओं से वंचित रहकर और शिक्षा में पीछे रह जाने के कारण कठिनाइयों से भरा हुआ है।

महतो उपनाम का इस्तेमाल बिहार में मुख्य रूप से कुशवाहा जाति के लोग करते हैं। कुशवाहा जाति के लोग पारम्परिक रूप से किसानी करते थे और इनमें से आज भी कई लोग किसानी करते हैं। मल्लाह समुदाय की कई उपजातियाँ हैं जिनमें केवट, बिंद, निषाद, धीमक, करबक और साहनी शामिल हैं।

दानापुर ब्लॉक के अंतर्गत आने वाला गांव, पुराना पानापुर, छोटा कासिम चक, बड़ा कासिम चक और भी कई ऐसे गांव जो दानापुर ब्लॉक के गंगा नदी के उस पार बसे हैं। उन गांव के खेतों पर घास फूस की झोपड़ी बनाकर बिंद समाज के व्यक्ति अपने परिवार के साथ निवास करते हैं।

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गांव में आबादी

कासिम चक गांव की आबादी लगभग 10 हजार से ऊपर है लेकिन महतो और मल्लाह समुदाय की लगभग 25 से 30 झोपड़ियां हैं, जो गांव के बाहर है। यह स्थिति वर्षों से चली आ रही है, और इन लोगों को उम्मीद है कि कभी उनकी जिंदगी में सुधार आएगा।

जीवन यापन का तरीका

बिंद समाज के लोग खेतों में घास-फूस की झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। उषा देवी, जो बड़े कासिम चक की रहने वाली हैं, बताती हैं कि उनके सास-ससुर के चार बेटे हैं, जो अलग-अलग झोपड़ियों में रहते हैं। बरसात के समय गंगा नदी का पानी खेतों में भर जाता है, लेकिन पानी खत्म होने पर वे सब्जी की खेती करते हैं। इसके लिए उन्हें जमींदार को पैसे भी देने पड़ते हैं। वे हर साल अपनी झोपड़ी बनाते हैं और वहीं रहकर जीवन यापन करते हैं।

वे आगे बताती हैं कि बाढ़ का पानी खत्म हो जाने पर वह घास फूस, बांस-बल्ली ढूंढ कर लाते हैं और फिर अपनी झोपड़ी बनाते हैं। इसके बाद वह अपने सामान को सुरक्षित जगह रख कर अपना जीवन बिताते हैं। इस तरह से वह खेतों में ही खेती करते हैं और वहीं पर खेती करते हैं। यह क्रम उनके पीढ़ियों से चला आ रहा है। उनकी शादी को 18 साल हो गए हैं और वह इसी तरह यहां पर अपना जीवन गुजार रही है।

बच्चों की शिक्षा में बाधाएं

रेशमी देवी बताती हैं कि वे बच्चों को स्कूल भेजना चाहती हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। इसके अलावा, खेती के काम में बच्चे भी उनकी मदद करते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई पर भी काफी असर पड़ता है। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा सकें। गांव से स्कूल दूर होने के कारण बच्चों का नियमित रूप से स्कूल जाना भी मुश्किल होता है।

स्कूल गांव से कोसों दूर

दूसरा कारण यह भी है कि जो लोग खेत पर रहते और काम करते हैं, खेतों से स्कूल की दूरी बहुत ज्यादा है। गांव के अंदर स्कूल है तो जाने में भी समय लगता है तो कभी बच्चे जाते हैं तो कभी बच्चे नहीं भी जाते हैं। बच्चों के साथ से थोड़ी खेती करने में ही मदद मिल जाती है जैसे पानी लाना, खाना पहुँचाना आदि।

पीढ़ी दर पीढ़ी वही जीवन

अमरजीत महतौ का कहना है कि उनका परिवार पीढ़ियों से खेती कर रहा है। वे एक साल के लिए 20000 रुपये में 2 बीघा जमीन लेते हैं और उसमें सब्जियां उगाते हैं।

वे कहते हैं, “इस समय टमाटर, तोरई (तोरी) जैसी सब्जियां लगाएंगे जिसमें उन्हें कम से कम 50 से 60000 रुपए अभी और खर्च करने पड़ेंगे। सब्जियों के लिए तार लगाना, गुड़ाई करना, गुड़ाई के लिए पैसे देना, जुताई के लिए पैसा देना। इस तरह के बहुत कामों में पैसा का जुगाड़ करना और फिर उन सब चीजों पर हमारी जो बचत होती है वह 50000 हर साल हमको 10 से 50000 रुपए बच पाता है। वह पैसा जब बाढ़ आती है तो उसमें काम आता है और घर बैठकर खाना पड़ता है कोई कमाई नहीं होती तो वह उसमें खर्च हो जाता है। इस वजह से हम लोगों के समाज के बच्चे आगे नहीं बढ़ पाते हैं और न ही उन्हें अच्छी शिक्षा मिल पाती है। खेती में होने वाले खर्चों के कारण उनकी बचत बहुत कम होती है।

सरकारी योजनाओं से वंचित

उषा देवी बताती हैं कि उनके ससुर का राशन कार्ड तो बना था, लेकिन बच्चों के अलग हो जाने से किसी का राशन कार्ड नहीं बन सका। उन्हें सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल रहा है, और वे बाढ़ के समय अपने घर खो देते हैं। सरकार उन्हें किसी तरह की सहायता नहीं देती, जिससे उनका जीवन और भी कठिन होता जा रहा है।

आज भी इस समुदाय के लोग जमींदारी प्रथा के तहत काम करने को मजबूर हैं क्योंकि उनकी खुद की जमीन नहीं है और न ही सरकार से उन्हें कोई योजना का लाभ मिल पा रहा है। बाढ़ आने पर भी सरकार मुआवजा नहीं देती है जिससे उन्हें मदद मिल सके। उनके पास आधार कार्ड तो है वे सरकार बनाने के लिए वोट भी देते हैं फिर भी सरकार उनके लिए कोई कदम नहीं उठा रही जिससे उनका जीवन सुधरे।

 

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