देश में लगातार कई मुद्दे चलते आ रहे हैं, जिससे दहशद और डर का माहौल कायम है। जैसे पुलवामा अटैक, धारा 370, तीन तलाक़, राममंदिर-बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले पर फैसला और अब नागरिकता संसोधन बिल कानून। एक तरफ इन बड़े मुद्दों में हलचल करा कर मौजूदा सरकार अपने लिए इतिहास रच रही है तो दूसरी तरफ आम जनता सड़को पर है।
चारो तरफ दहशद और डर की वजह से हाहाकार मची है। लोग अपना काम और युवा अपनी पढ़ाई और कैरियर नहीं बना पा रहे। ये सब ज्यादातर बड़े शहरों में हो रहा है। कारण जो भी हो कि लोग जागरूक हैं, सही गलत समझते हैं, या पढ़े लिखे ज्यादा हैं या फिर ज्यादातर पैसे वाले हैं, या फिर उन्होंने संविधान को बहुत करीब से पढ़ा है। अगर मैं बुंदेलखंड की बात करूं तो जो आवाजें शहरों में उठ रही हैं वह आवाजें यहां पर गुम हैं।
अगर कोई मामलों के पक्ष या विरोध में बोलता है तो उन लोगों की संख्या बहुत कम है। ये लोग या तो उच्च मानी जानी वाली जाति से, अमीर हैं या फिर राजनैतिक लोग हैं। ग्रामीण, दलित, गरीब और महिलाओं की आवाजें बहुत ही कम सुनाई दे रही हैं क्योंकि दहशद और डर से ग अपनी आवाज दबा कर रखते हैं। उनको डर है कि अगर बोले वह भी कैमरे के सामने तो पता नहीं उसका क्या नतीज़ा हो। मैंने ऊपर बताए मुद्दों पर रिपोर्टिंग की। बार बार बांदा और अतर्रा के डिग्री कॉलेज गई। छात्र संघ संगठन से मिली। संगठन में जो भी छात्र-छात्राएं हैं उनसे बात की। इन संगठनों में उच्च जाति और अमीर घराने के छात्र-छात्राएं ही शामिल हैं। उनको भी इन मुद्दों की ज्यादातर समझ नहीं है। जैसे कि जब राममंदिर और बाबरी मस्जिद का फैसला आया और फीस बढ़ोतरी को लेकर जेएनयू दिल्ली में बवाल हुआ तो बांदा के पंडित जे एन पीजी पीजी कालेज के छात्र संघ के पूर्व उपाध्यक्ष अतर्रा के छात्र संगठन के पूर्व अध्यक्ष से बात की। उनका कहना था कि उनके संगठन में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का कोई भी छात्र नहीं शामिल।
जो लड़कियां हैं भी वह नहीं बोल पाएंगी। फिर भी दो लड़कियों से बात की तो वह नहीं बोल पाईं। यहां पर बात ये नहीं कि उनको ये मामले क्यों नहीं पता, उससे बड़ी बात कि देश में क्या हो रहा है। क्या उनकी भी किसी न किसी रूप में भागीदारी नहीं बनती है? देश में क्या चल रहा है उससे कोई लेना देना नहीं। ये बात सिर्फ छात्रों पर लागू नहीं होती यहां पर पार्टियों के राजनीतिक लोगों और सोशल मीडिया पर बैठे लोगों के अलावा इन मुद्दों में किसी से कोई मतलब नहीं है। यहां तक कि मीडिया से भी नहीं। उनको तो रोज जागने से लेकर सोने तक कमाने और खाने की व्यवस्था की चिंता सताती है। गांव में बसने वाली आबादी का कुछ हिस्सा ऐसे मुद्दों पर फुरसत के समय आपस में चर्चा जरूर करते हैं लेकिन किसी गैर के सामने भी बोलना उचित नहीं समझते। मुझे लगता इस आबादी का कुछ हिस्सा जानबूझकर ऐसे मामलों में नहीं पड़ना चाहता।लखनऊ- CAA के विरोध में प्रदर्शन कर रहीं महिलाओं के खिलाफ FIR दर्ज
क्योकि उसको ये पता है कि ऐसे मामलों से क्या लेना देना उसको अपने काम से मतलब है। अगर इस बात की सच्चाई जानना है तो खड़े हो जाइए एक दिन के लिए विभागों, अदालतों या फिर जनसुनवाई में। पता लग जायेगा कि किसको किस काम से मतलब रखना है। सवाल ये है कि हमारे लोकतांत्रिक देश में इतना बड़ा फर्क क्यों हैं ग्रामीण और शहरी आबादी में, शिक्षित और अशिक्षित में, गरीबी और अमीरी में, सवर्ण और दलित जाति (क्या दलित नहीं लिख सकते अभी भी) में। इन सभी में जिस तरह का भेदभाव है वह इस समय देश में स्पष्ट सुनाई और दिखाई दे रहा है। क्या ये जानकारी ग्रामीण, अशिक्षित, गरीब, दलित और हासिए पर रहने वाले लोगों को भी नहीं होनी चाहिए? क्या उनके पास भी ये हिम्मत नहीं होनी चाहिए कि ऐसे माहौल और मुद्दों में उनकी आवाज भी सुनाई दे? इन्ही विचारों और सवालों के साथ मैं लेती हूं विदा, अगली बार फिर आउंगी एक नए मुद्दे के साथ तब तक के लिए नमस्कार!