यूपी के बुंदेलखंड में पितृपक्ष के दिनों में एक अनोखा खेल खेलने की प्रक्रिया है जिसका नाम है ‘महाबुलिया’।
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में पितृ पक्ष के 15 दिनों तक एक खेल चलता है जिसका नाम है ‘महाबुलिया’। यह एक अनोखी परंपरा है। इस खेल को घर के बाहर लड़कियां खेलती हैं। बम्मबूल के कांटों पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल सजाकर और आटे का चौक पूरकर बडे़ ही धूम-धाम से इस खेल का खेला जाता है। इसके साथ ही ख़ुशी के साथ गाना-बजाना भी किया जाता है।
समय के साथ महाबुलिया खेल भी बदल गया है। पहले इस खेल का बुन्देलखण्ड में इतना चलन था कि शहर हो या देहात हर जगह ही इसे धूमधाम से खेला जाता था। लेकिन अब अनोखी परंपरा महाबुलिया का खेल गांव तक ही सीमित रह गया है। गांव में अभी भी लड़कियां पितृ पक्ष में होने वाले इस पर्व का साल भर बेसबरी से इंतेजार करती हैं। ये खेल शाम के समय कांटे को फूलों से सजा कर खेला जाता है और गाते-बजाते हुए तालाब में फूलों को बहाया जाता है। खबर लहरिया की रिपोर्टर गीता देवी ने इस खेल को लेकर अपनी कुछ यादें हमारे साथ शेयर की हैं जिसे हम अब आपके साथ बांट रहे हैं।
महाबुलिया खेल को लेकर बचपन की यादें-किस्से
बचपन के दिनों में वह और उनकी मोहल्ले की 10 से 15 सहेलियां साल भर महाबुलिया पर्व का इंतज़ार करती थी। जैसे ही पितृपक्ष आता था तो वह लोग बहुत ही खुशी से इस खेल को खेलती थीं। इन 15 दिनों में खुशी का कोई ठिकाना नहीं होता था। सुबह होते ही घर वालों से छुपकर फूलों की खोज में निकल जाना। किसी के बगीचे में घुसकर छुपके से फूल तोड़ लेना। वहीं कभी खेतों में घुसते हुए कोई देख ले तो बहुत डांट भी खाने को मिलती थी। फिर घर जाओ तो माँ की भी डांट खानी पड़ती थी। लेकिन खेल की ख़ुशी इतनी होती थी कि डांट का कोई असर नहीं होता था।
15 दिनों तक फूलों के पीछे घूमते रहते थे। खाने-पीने का होश तक नहीं होता था। माँ गुस्सा भी करती थी। कहती थीं, ‘घर का कोई काम करने में हाथ नहीं बंटाती हैं फूलों के पीछे सारा दिन लगी रहती है। पता नहीं कब ये 15 दिन खत्म होंगे।’
जब प्रतियोगिता होती थी तो यह देखा जाता था कि कौन सबसे ज़्यादा फूल खोज कर लाएगा और उसे बड़े से गोल आकार वाले कांटे को सजा कर ले जाएगा। जब शाम के समय तालाब की ओर सब बच्चे अपना-अपना कांटा लेकर जाते थे तो वहां अलग-अलग मोहल्ले की अलग-अलग पार्टियां होती थी। उसमें प्रतियोगिता होती थी कि किसकी कितनी अच्छी सजावट है।
14 दिनों तक सब कुछ आम चलता था। सिर्फ कांटा सजाते थे। पूजा के लिए आटे और चीनी का पंजीरी बनाते थे। तालाब में फूल को सिराकर कांटा वापस लेकर आ जाते थे। किसी के यहां आटे-चीनी का प्रसाद मिलता था तो कहीं चने की दाल का। लेकिन महाबुलिया के आखिरी दिन का सभी को बेसबरी से बहुत ज़्यादा इन्तज़ार रहता था। उस दिन सब ज़्यादा फूल इकठ्ठा करते थे। इतना ही नहीं छोटे-छोटे कपड़े भी खोजते थे कि अगर कोई लाल या पीले रंग का नया कपड़ा मिल जाए तो उसमें गोट लगाकर कपड़े कांटे में उड़ा दें। यह कांटे का लहंगा-चुनरी हुआ करता था।
जो पकड़ने वाला डंठल होता था उस पर लाल कपड़ा लपेट देते थे और उसके ऊपर से पीला कपड़ा उड़ा देते थे। आखिरी दिन चौक से बनाये गोले में अलग-अलग रंग भरते थे। अलग-अलग रंगो से वह बेहद सुंदर लगता था। इतनी ही नहीं आखिरी दिन प्रसाद में ले जाने के लिए गुजिया, लड्डू और मठरी भी बनाते थे और उसे तालाब लेकर जाते थे।
सबसे बड़ी बात यह कि आखिरी दिन बच्चे अपने पहनने के लिए मेवा की माला बनाते थे। उसमें भी प्रतियोगिता होती थी कि किसके माले में कितना बड़ा नारियल का गोला होगा, कितने पैसे लगे होंगे और कितनी लड़ी का बना होगा। माले के लिए माँ से रोना-झगड़ना भी होता था। अपने भाई और माँ के साथ फिर तालाब को जाते थे।
रास्ते भर माले को पहन कर जाते थे। गाजे-बाजे वाले आगे जाते थे। उनके पीछे महाबुलिया आती थी और लड़कियां नाचते-गाते हुए जाती थी। सबके गलों में माला काफ़ी सुंदर लगती थी। सभी लड़कियां अच्छे-अच्छे कपड़े पहनती थीं। कोई साड़ी, कोई फ्रॉक तो कोई लहंगा-चुन्नी पहनता था। उस समय दो-तीन लड़कों के झुंड माले को झपट कर भागने लगे। जब वह लोगों की पकड़ में आये तो उनकी काफ़ी पिटाई भी हुई लेकिन वह दिन गीता के लिए महाबुलिया का आखिरी दिन था। उस दिन के बाद उन्होंने कभी महाबुलिया का खेल नहीं खेला। परिवार और मोहल्ले वालों ने रोक लगा दी कि अब बड़े हो गए हो, अब नहीं खेलना। लेकिन जब भी बीते दिनों के पन्ने को पलट कर देखते हैं तो आज भी बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी होती है।
आपके भी बचपन से जुड़ा कोई ऐसा खेल होगा जिसे आज सोचकर आपके चेहरों पर मुस्कान आ जाती होगी। इसी को तो बचपन कहते हैं न जिसके याद करने भर से ही दिल खुश हो जाता है।
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