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कौशांबी : मछुआरे हुए बेरोज़गार

नदी में ठेकेदारों द्वारा मछलियां पकड़ने का काम उन लोगों को दो सौ रुपये दिहाड़ी के हिसाब से दिया जाता है। गांव से अधिकतर लोग पलायन कर रहे हैं।

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                                                                                                                 फोटो साभार – खबर लहरिया

जिला कौशांबी : हजारों साल से यमुना नदी के महेवा घाट में मछली पकड़कर और नाव चला कर अपना जीवनयापन कर रहे मछुआरे लगभग दस साल से बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। उनकी मानें तो मछली पकड़ने और नाव चलाने के कारण ही उन्हें मछुआरा कहा जाता है। यदि मुछआरा समाज के लोग एक दिन भी मछली ना पकड़कर बेचें और नाव न चलाएं तो उनका परिवार भूखमरी की कगार में आ जाएगा लेकिन अफसोस की बात है कि मछली और नाव चलाने का व्यवसाय महेवा घाट के नदी में बंद चल रहा है जिसके चलते मछुआरा समुदाय रोजी रोटी के लिए पलायन कर रहा है। उनके बच्चे भी छोटा-मोटा रोजगार और रोजनदारी में ठेकेदारों के अंडर पर मजदूरी करके अपना परिवार पाल रहे हैं।

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नदी में ठेका होने से छिना रोजगार

महेवा गांव के धर्मेंद्र बताते हैं कि उनके गांव की आबादी पांच हजार है और टोटल निषाद परिवार के लोग ही रहते हैं। सभी नाव चलाने और मछली बेचने के काम पर आश्रित हैं लेकिन अब यह परिवार काम के लिए मारा-मारा प्रदेशो में फिर रहा है। क्योंकि जब से सरकार द्वारा नदियों के खनन के लिए पट्टे दिए जाने लगे तब से उनका यह रोजगार पूरी तरह से ठप हो गया है। नदियों में बालू खनन के साथ-साथ मछली पकड़ने के लिए भी ठेका होता है। उनका रोजगार ठप पड़ गया है।

महंगाई और बेरोजगारी से टूटी कमर

गोमती निषाद बताती है कि आजकल की महंगाई में एक समय की सब्ज़ी ही सौ रुपये से कम की नहीं आती जबकि पहले वह लोग नदी किनारे बारी लगाकर कुछ सब्जियां भी उगा लिया करती थी और पुरुष नाव चलाते थे और मछलियां पकड़ते थे जिससे उनका खुशहाल परिवार चलता था। इसके लिए उनको कोई पैसा भी नहीं लगता था। लेकिन लगभग दस साल से मछली पकड़ना और नाव चलाना पूरी तरह से बंद हो गया है। अब उनकी नाव कबाड़ की तरह एक जगह टूटी फ-टी कहीं पड़ी होंगी।

गोमती आगे बताती हैं कि नदियों में तो अब सब्ज़ी लगाने की भी जगह नहीं बची है लेकिन महेवा घाट एक ऐसी जगह है जहां किनारे-किनारे बहुत से घर बने हुए हैं और लोगों के घरों के सामने जगह पड़ी हुई है। उस जमीन पर अगर वह सब्जियां उगाती हैं तो जिनके घर हैं वह लोग उनसे पैसा मांगते हैं यानी कि अपने घर के सामने की ज़मीन उनको ठेके पर देते हैं इस कारण उनकी वह आमदनी भी नहीं हो पाती।

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जिले में नहीं है ऐसा कोई रोज़गार

दिप्ती देवी बताती है कि कौशांबी जिले में ऐसा कोई रोजगार भी नहीं है जिससे उनका परिवार पल सके। अब तो सिर्फ रोजनदारी की मजदूरी बची है दो सौ रुपये दिहाड़ी वाली। जो लोग प्रदेश नहीं जाते वह लोग मजदूरी का काम करते हैं लेकिन मजदूरी भी रोज नहीं मिलती। नदी में ठेकेदारों द्वारा मछलियां पकड़ने का काम उन लोगों को दो सौ रुपये दिहाड़ी के हिसाब से दिया जाता है। आज की महंगाई में परिवार चल पाना बहुत ज़्यादा मुश्किल हो गया है। अब उनके गांव के ज़्यादातर लोग पलायन करने लगे हैं। पलायन करके जब बाहर जाते हैं तो वहां भी मजदूरी जैसा ही काम मिलता है क्योंकि वह पढ़े-लिखे नहीं हैं जिससे कि बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों या कंपनियों में कहीं पर काम कर पाएं।

इस मामले पर क्या कहते हैं सांसद

बांदा चित्रकूट सांसद आर.के पटेल से जब इस मामले में खबर लहरिया ने बात की तो उन्होंने कहा कि महेवा गांव कौशांबी में है और महेवा घाट चित्रकूट जिले में है। सरकार द्वारा अब ठेके हुए हैं तो उसमें वह कुछ नहीं कर सकते लेकिन मछुआरों को काम करने के लिए कोई मना नहीं कर रहा। ठेकेदारों द्वारा जो काम कराया जाता है उसमें वह लोग काम करें।

सही कहा सांसद ने, उनको काम की ज़रूरत अगर होगी तो कम पैसों में भी काम करेंगे और करते भी हैं लेकिन जिस पुश्तैनी काम की वह बात कर रहे हैं उस पर भी बोलिए। क्या पहनना खाना है, कैसे कमाना है, कितना कमाना है, किसके लिए काम करना है इसका निर्णय सरकार या सरकारी तंत्र क्यों करता है?

इस खबर की रिपोर्टिंग सहोद्रा देवी द्वारा व लेख मीरा देवी द्वारा लिखा गया है। 

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